अयोध्या विवाद : सुनवाई के अंतिम चरण में मध्यस्थता या समझौते की बात के क्या मायने हैं?

अयोध्या मसले पर अदालत में सुनवाई अपने अंतिम चरण में है। इधर इस बीच एक बार फिर समझौते की बात उठने लगी है। शांति और सांप्रदायिक एकता की बात करते हुए मुस्लिमों के एक वर्ग ने विवादित ज़मीन हिन्दुओं को भेंट स्वरूप देने की वकालत की है, लेकिन इस पर हिन्दू पक्ष मौन है। दूसरी तरफ़ मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग, समझौते के प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर रहा है कि अगर मस्जिद की ज़मीन भेंट कर दी जाती है तो इससे बहुसंख्यकवाद को बल मिलेगा और लोकतंत्र कमज़ोर होगा।
शनिवार को लखनऊ के नदवा कॉलेज में मौलाना राबे हसन नदवी की अध्यक्षता में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की एक हुई मीटिंग हुई। इसमें भी समझौते के प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया गया कि मुस्लिम समुदाय अयोध्या विवाद का हल समझौते से नहीं बल्कि अदालत से चाहता है। बोर्ड का कहना है समझौते के लिए हुई बातचीत कई बार विफल हो चुकी है। इसलिए अब समझौते की बात करना महत्वहीन है।
बोर्ड ने कहा है कि विवादित ज़मीन से मुस्लिम पक्ष कभी भी दावा नहीं छोड़ेगा। इसके अलावा मस्जिद की ज़मीन को किसी को भेंट या उपहार में भी नहीं दिया जा सकता है।
कुछ अन्य मुस्लिम संगठन और बुद्धिजीवी भी मानते हैं कि ऐसे समय में जबकि केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह बहुसंख्यक समुदाय को समर्थन करने वाली सरकार है, विवादित ज़मीन को उपहार या भेंट करने को अल्पसंख्यक समुदाय का बहुसंख्यकवाद के समने आत्मसमर्पण समझा जायेगा। इससे भविष्य में मुस्लिम समाज को अन्य दबाव भी झेलने होंगे और समान नागरिक संहिता जैसी बातें भी स्वीकार करने पर भी मजबूर किया जायेगा।
इस बात पर भी चर्चा हो रही है की क्या सत्तारूढ़ दल के इशारे पर “इंडियन मुस्लिम फॉर पीस” ने समझौते की बात की है। अयोध्या विवाद पर करीब तीन दशक से नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हुसैन अफ़सर कहते हैं की हुकूमतों के पास ऐसे लोग हमेशा रहते हैं जो सरकारी भाषा बोलते हैं। जिसको सरकार अपनी ज़रूरत के अनुसार इस्तेमाल करती है।
उन्होंने कहा कि शहर के एक पाँच सितारा होटल में कांफ्रेंस करके समझौते की बात करना, इस प्रश्न को जन्म देता है कि क्या इसके पीछे कोई और बड़ी ताक़त है। हुसैन अफ़सर करते हैं की सवाल यह है कि इतने महंगे होटल का भुगतान किसने किया?
क्या विवादित ज़मीन को हिन्दू पक्ष को भेंट करने के समस्या का हल हो जायेगा? इस सवाल पर इंकलाबी मुस्लिम कांफ्रेंस के अध्यक्ष मोहम्मद सलीम कहते हैं कि अगर अयोध्या की ज़मीन भेंट भी कर दी जाये, तब भी समस्या का हल नहीं होगा, क्योंकि इसके बाद सविंधान के विरुद्ध जाकर भारतीय जनता पार्टी का अगला क़दम राष्ट्रीय नागिरकता रजिस्टर (एनआरसी) के नाम पर मुल्क के मुसलमानों को परेशान करना है, जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह के भाषणों से साफ़ नज़र आता है कि मंशा संविधान के विरुद्ध नागरिकता के नाम पर मुस्लिम समुदाय को परेशान करने की है।
मोहम्मद सलीम कहते हैं कि किसी बड़े सरकारी पद से सेवानिवृत्त होने से किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता है, कि वह संवेदनशील मुद्दों पर अपनी राय देने लगे। विवादित ज़मीन को भेंट करने की बात करने वाले ज़मीरुद्दीन शाह (रिटायर्ड फ़ौजी जनरल) पर उन्होंने आरोप लगाया कि वह जानते थे, कि नरेंद्र मोदी 2002 में गुजरात दंगों के दौरान क्या कर रहे थे, जिसके बारे में उन्होंने अपनी किताब में लिखा भी है। लेकिन उस समय उन्होंने राष्ट्रपति से नरेंद्र मोदी की कोई शिकायत नहीं की थी।
मोहम्मद सलीम कहते हैं कि समझौते की बात करने वाले ज़्यादातर लोग रिटायर्ड सरकरी अधिकारी है, जिनको सेवानिवृत्त होने के बाद क़ौम की याद आ रही है, यह सरकारी सेवाओं में रहते कभी अन्याय के विरोध में नहीं बोले। वह कहते है कि मुस्लिम समुदाय द्वारा समझौता की बात हो रही है जबकि हिंदू पक्ष ख़ामोश है। इस से भारत में बहुसंख्यकवाद को बल मिलेगा और लोकतंत्र की बुनियादें कमज़ोर होंगी।
लखनऊ विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए प्रोफेसर नदीम हसनैन कहते हैं कि अगर इस समय विवादित ज़मीन को भेंट किया जाता है, तो सन्देश यह जायेगा की केंद्र और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार होने के कारण मुस्लिम समुदाय ने आत्मसमर्पण कर दिया। प्रोफ़ेसर हसनैन कहते हैं कि अब सभी को अयोध्या ज़मीन विवाद में अदालत के फ़ैसले का इंतज़ार करना चाहिए और देखना चाहिए की 6 दिसम्बर, 1992 को विवादित ढाँचे को गिराने वालों को 27 साल बाद भी सज़ा क्यों नहीं मिली है।
बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि समझौते की बात करने वालों की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता है। लेकिन देखना होगा कि विवादित ज़मीन को भेंट करने की बात जो लोग कर रहे हैं, क्या उनको मुस्लिम समुदाय अपना नुमाइंदा मानता है या नहीं?
डॉ. सुमन गुप्ता कहती हैं कि 1984 से पहले अयोध्या कोई महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं था। अयोध्या आंदोलन और मीडिया के विषय पर रिसर्च कर चुकी डॉ. सुमन गुप्ता का कहना है कि 1990 से शुरू हुए आंदोलनों ने इस मुद्दे को महत्वपूर्ण बना दिया है। अब यह मुद्दा भारत में मुसलमानों के उत्तरजीविता (अस्तित्व) का प्रश्न बन चुका है। इसलिए मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग चाहते हैं कि अयोध्या का संवेदनशील मुद्दा आपसी सहमति से हल किया जाए और विवादित ज़मीन को हिन्दू पक्ष को भेंट कर दिया जाये।
वरिष्ठ पत्रकार और बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के मुक़दमे में गवाह शरत प्रधान कहते हैं कि बहुत अच्छा होगा अगर यह संवेदनशील मसला अदालत के बहार आपसी सहमति से तय हो जाये। अगर ऐसा हो जायेगा तो इस मुद्दे पर आगे राजनीति पर विराम लग जायेगा। शरत प्रधान कहते हैं कि लेकिन समझौते की बात मुस्लिम पक्ष की तरफ से आई है, हिन्दू पक्ष तो मौन है। उन्होंने कहा कि केवल एक पक्ष के चाहने से कुछ नहीं होता, जब तक समझौते के लिए दोनों पक्ष राज़ी नहीं होते हैं। शरत प्रधान मानते हैं कि दोनों पक्ष के वह लोग जो इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं, वह कभी नहीं चाहेगे की कोई समझौता हो और मसले का हल शांतिपूर्ण ढंग से हो जाये।
वहीं मुस्लिम फॉर पीस के सदस्य डॉ क़ौसर उस्मान से भी हमने न्यूज़क्लिक के लिए बात की। उन्होंने कहा मामला सवेंदनशील है, मगर समझौते के दरवाज़े हमेशा खुले रहना चाहिए। किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) के प्रोफ़ेसर डॉ क़ौसर उस्मान कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि विवादित ज़मीन मुस्लिम पक्ष की है। लेकिन करोड़ों दिलों को जोड़ने के लिए एक ऐसी मस्जिद को जहाँ काफी सालों से नमाज़ नहीं हुई है, उसको एक समझौते के तहत भेंट कर देने में कुछ ग़लत भी नहीं है।
प्रसिद्ध इतिहासकार रवि भट्ट भी मानते हैं कि मुस्लिम फॉर पीस का क़दम ठीक है, और दोनों पक्षों को अदालत के बहार बैठकर अयोध्या विवाद को हल कर लेना चाहिए।
इस सब के बीच दिलचस्प बात यह है “इंडियन मुस्लिम फ़ार पीस” ने मध्यस्थता का प्रस्ताव तो रखा है,लेकिन उसकी अभी तक हिन्दू पक्ष से कोई बात नहीं हुई है।” इंडियन मुस्लिम फ़ार पीस” के सदस्य अनीस अंसारी ने बताया कि अभी प्रस्ताव पर हिन्दू पक्ष से किसी तरह की बात नहीं हुई है। सेवानिवृत्त आईएएस अनीस अंसारी ने बताया कि प्रस्ताव सभी पक्षों को भेजा गया है,लेकिन हिन्दू पक्ष से समझौता कर के विवादित ज़मीन भेंट करने को लेकर कोई बातचीत किसी नहीं हुई है। उन्होंने बताया की सिर्फ़ सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष ज़फ़र फ़ारूक़ी से बात हुई है,लेकिन क्या बातचीत हुई है इसके बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया। ज़फ़र फ़ारूक़ी से सम्पर्क किया तो उनका फ़ोन बंद था।
आपको बता दें कि अयोध्या विवाद को लेकर एक फैसला इलाहबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने 30 सितम्बर 2010 में दिया था। अदालत ने अपने फैसले में 2.77 एकड़ विवादित ज़मीन को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला के बीच बराबर-बराबर बांट दिया था।
हिन्दू पक्ष राम लला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और मुस्लिम पक्ष सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड तीनों ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। हाई कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ कुल 14 अपील सुप्रीम कोर्ट में हुई।
सुप्रीम कोर्ट ने भी मामले को अदालत के बहार हल करने की सलाह दी थी। मध्यस्था के लिए सुप्रीम कोर्ट से एक कमेटी भी गठित की गई थी।जिसमें जस्टिस ऍफ़एमआई कलिफुल्लाह (रिटायर्ड), वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पाँचू और आध्यात्मिक धर्मगुरु कहे जाने वाले श्री श्री रवि शंकर शामिल थे। हालाँकि उस मध्यस्था का कोई नतीजा नहीं निकला है, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में रोज़ाना के आधार पर सुनवाई शुरू कर जल्द फ़ैसले की इच्छा जताई।
सुप्रीम कोर्ट ने भूमि विवाद मामले की सुनवाई पूरी करने के लिये 18 अक्टूबर तक की समय सीमा निर्धारित की है। हालांकि साथ ही यह भी कहा कि पक्षकार चाहें तो मध्यस्थता के माध्यम से इस विवाद का सर्वसम्मत समाधान कर सकते हैं।
क़ानून के जानकर मानते हैं कि “इंडियन मुस्लिम फॉर पीस” का क़ानून के नज़र में कोई महत्त्व नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता अमित सूर्यवंशी कहते हैं कि जब कोर्ट ने स्वयं मध्यस्ता की कमेटी बनाई है,तो किसी बाहर की कमेटी का कोई महत्व नहीं रह जाता है। उन्होंने बताया “इंडियन मुस्लिम फॉर पीस” मुक़दमे में पक्ष भी नहीं है तो उसको विवादित ज़मीन को भेंट करने अधिकार कैसे हो सकता है। अधिवक्ता अमित सूर्यवंशी के अनुसार ऐसी बातें मीडिया की सुर्ख़ियाँ तो बटोर सकती हैं, लेकिन इनका क़ानून की नज़र मे कोई महत्व नहीं है।
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