पहलगाम त्रासदी: विदेशों में भारतीय प्रतिनिधिमंडल

22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकवादी हमले ने भारत की जनता के मन पर गहरा असर डाला है। एक ओर जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्दों की वीरता में लिप्त रहे, वहीं 'गोदी मीडिया' ने भी इसी लहजे में यह दावा किया कि भारत ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर कार्रवाई की। दूसरी ओर, पाकिस्तान ने दावा किया कि उसने भारत के कई विमानों को मार गिराया। इन सबके बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सबसे पहले थे जिन्होंने दावा किया कि उन्होंने 'सीज़फायर' (संघर्षविराम) करवाया।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस संघर्षविराम का श्रेय स्वयं लिया, और सेना के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान की ओर से संघर्ष विराम का अनुरोध आया था, जिसे भारत ने स्वीकार कर लिया ताकि दोनों ओर की सेनाओं और आम नागरिकों के संभावित रक्तपात को टाला जा सके।
भारत सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों को विदेशों में भेजने का निर्णय लिया। इनमें विपक्षी दलों के कई सांसद भी शामिल हैं। ऐसा ही एक प्रतिनिधिमंडल अमेरिका भेजा गया, जिसकी अगुवाई कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने की। इन प्रतिनिधिमंडलों को क्या संदेश लेकर भेजा गया था, यह थरूर के अमेरिकी बयान से स्पष्ट होता है।
पूर्व राजनयिक थरूर ने अमेरिका में कहा, “पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले का मक़सद लोगों को बाँटना था, लेकिन भारत में इसने लोगों को एकजुट कर दिया—चाहे उनका धर्म या पहचान कुछ भी हो। यह एक असाधारण एकजुटता थी, जिसने धार्मिक और अन्य विभाजनों को पार कर दिया, जिन्हें भड़काने की कोशिशें होती रही हैं। संदेश साफ़ है कि हमले की मंशा घृणा फैलाने की थी…”
क्या सभी प्रतिनिधिमंडलों को यही ब्रीफिंग दी गई थी? यह बात काफ़ी हद तक सही भी है, क्योंकि पहलगाम की इस बर्बर वारदात की निंदा में भारत के हिन्दू और मुसलमान समान रूप से एकजुट दिखे।
लेकिन इस सबके पीछे अब भी वह सुनियोजित नफ़रत बनी हुई है जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार फैलाई जा रही है। पहलगाम त्रासदी से पहले ही मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ घृणा का माहौल तेज़ हो चुका था। इस हमले के बाद यह घृणा और अधिक तीव्र हो गई है। पिछले सप्ताह मैंने एक लेख में मुसलमानों के विरुद्ध फैलाए गए नफ़रत भरे अभियानों की एक आंशिक सूची दी थी। इन घटनाओं को मुंबई स्थित ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज़्म’ ने दर्ज किया है।
एक अन्य लेख में टिप्पणी की गई है कि “जब भारत पहलगाम आतंकवादी हमले में जान गंवाने वालों का शोक मना रहा था, उसी दौरान ऑनलाइन और ऑफलाइन, एक संगठित अभियान शुरू हुआ—इस एक ही संदेश के साथ: कि मुसलमान हिन्दुओं के लिए ख़तरा हैं, कि सभी हिन्दुओं का यही हश्र होगा, और मुसलमानों को सज़ा दी जानी चाहिए—हिंसा और बहिष्कार के ज़रिए।”
सबसे चिंताजनक घटना अशोका विश्वविद्यालय के राजनीतिक शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ़्तारी थी। उन्होंने एक बेहद प्रासंगिक पोस्ट में लिखा: “मैं यह देखकर ख़ुश हूँ कि इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी की सराहना कर रहे हैं,” और आगे जोड़ा कि “उन्हें यह भी मांग करनी चाहिए कि भीड़ हिंसा, मनमाने ढंग से घरों को गिराने और भाजपा की नफ़रत फैलाने वाली राजनीति के अन्य शिकार लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में सुरक्षा मिले।”
कई मानवाधिकार संगठनों ने इस बात को रेखांकित किया है कि पिछले एक दशक में भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा और घृणा फैलाने वाले बयानों में वृद्धि हुई है।
इसके बाद हरियाणा राज्य महिला आयोग ने प्रो. महमूदाबाद की सोशल मीडिया पोस्ट के खिलाफ यह आरोप लगाया कि उन्होंने दो महिला सैन्य अधिकारियों का "अपमान" किया है और उनकी भूमिका को "कमतर" दिखाया है। यह समझ से परे है कि उनकी पोस्ट किस तरह महिला सैन्य अधिकारियों के सम्मान को ठेस पहुंचाती है या उनकी भूमिका को कमतर करती है?
एक अन्य शिकायत सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के एक युवा कार्यकर्ता द्वारा दर्ज कराई गई, जिसके आधार पर अली ख़ान को गिरफ़्तार किया गया। बाद में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जहाँ से उन्हें अंतरिम ज़मानत मिली। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि वे इस विषय पर आगे कुछ न लिखें और अपना पासपोर्ट जमा करें।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि अली ख़ान की पोस्ट "डॉग व्हिसलिंग" (Dog Whistling) जैसी है, जो परोक्ष रूप से भड़काऊ संदेश दे सकती है। हम जानते हैं कि 'डॉग व्हिसलिंग' एक ऐसा शब्द है जो किसी गुप्त, परोक्ष और सांप्रदायिक इशारे के लिए उपयोग होता है। यद्यपि अदालत ने उन्हें ज़मानत दी, लेकिन उनके पोस्ट के पीछे की मंशा और समय पर संदेह भी जताया।
वहीं दूसरी ओर, मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री और भाजपा नेता विजय शाह ने कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहा। अदालत ने इस घोर निंदनीय टिप्पणी पर उन्हें कड़ी फटकार लगाई। यह टिप्पणी एक उत्कृष्ट सैन्य अधिकारी के विरुद्ध घृणा का चरम रूप थी। वास्तव में यह टिप्पणी स्वयं 'डॉग व्हिसलिंग' का उदाहरण है। अदालत ने उनके माफ़ीनामे को अस्वीकार कर दिया, हालाँकि उनकी गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी गई है।
‘डॉग-व्हिस्लिंग’ क्या है?
अब सवाल है कि 'डॉग व्हिसलिंग' क्या होती है? प्रो. अली ख़ान की पोस्ट निश्चित ही डॉग व्हिसलिंग नहीं है—बल्कि यह अल्पसंख्यक समुदाय की पीड़ा की एक संवेदनशील अभिव्यक्ति है। इसके उलट, विजय शाह की टिप्पणी खुले तौर पर नफ़रत फैलाने वाली थी।
अली ख़ान ने एक संवेदनशील ढंग से यह दिखाया कि यह राष्ट्र अपने अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह का व्यवहार कर रहा है, जबकि शाह ने यह दिखाया कि किस तरह हर अवसर को अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ घृणा फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
अल्पसंख्यक समुदाय के किसी प्रोफ़ेसर को इस वजह से निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए कि वह भीड़ हिंसा और बुलडोज़र की राजनीति की आलोचना कर रहा है—जो आज के भारत का ‘न्यू नॉर्मल’ बन चुका है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोज़र की कार्रवाई पर आपत्ति जताई हो, लेकिन राज्य सरकारें लगातार इसका इस्तेमाल कर रही हैं।
इसके अलावा, दो व्यंग्यकारों—नेहा सिंह राठौर (लोकगायिका) और माद्री काकोटी (ऑनलाइन नाम डॉ. मेडुसा)—के खिलाफ़ भी मुकदमे दर्ज किए गए क्योंकि उन्होंने पहलगाम हमले के बाद मोदी सरकार की आलोचना से जुड़े पोस्ट किए थे।
दरअसल, जो बात विजय शाह ने कही, वह उनकी पार्टी में पूरी तरह स्वीकार्य है। न तो उन्हें निलंबित किया गया, न निष्कासित और न ही गिरफ़्तार किया गया। भाजपा के शीर्ष से लेकर नीचे तक, अल्पसंख्यकों के प्रति यह खुली नफ़रत न सिर्फ़ स्वीकार की जाती है, बल्कि यह नेताओं के राजनीतिक करियर को सीढ़ी भी प्रदान करती है।
याद दिला दें कि 2019 में दिल्ली में हुई साम्प्रदायिक हिंसा से पहले जिन लोगों ने शांति और सौहार्द की अपील की—जैसे उमर ख़ालिद, शरजील इमाम और अन्य—वे अब भी पाँच वर्षों से जेल में हैं, और उनकी सुनवाई तक शुरू नहीं हुई है। वहीं दूसरी ओर, उसी दौर में ‘गोली मारो…’ जैसे नारे लगवाने वाले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को प्रमोशन देकर कैबिनेट मंत्री बना दिया गया।
हमारे संविधान और नागरिकता के मानदंड धीरे-धीरे उस राजनीति के हाथों कमजोर किए जा रहे हैं, जो धर्म का चोला पहनती है। लोकतंत्र को आज ज़रूरत है अली ख़ान, उमर ख़ालिद, नेहा सिंह राठौर और हिमांशी नरवाल जैसे नागरिकों की—जो न सिर्फ़ शांति की बात कर रहे हैं, बल्कि समाज को आईना भी दिखा रहे हैं।
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और आईआईटी बॉम्बे में अध्यापन कर चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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