विश्लेषण: नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन या भाजपा के दानकर्ताओं के लिए पैसा कमाने का ज़रिया

देश की संपत्तियों को सरकारी हाथों से निकालकर प्राइवेट सेक्टर में सौंपने की राह पर चलते हुए नरेंद्र मोदी सरकार नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन योजना की घोषणा की है। सरकार ने दावा किया है कि मोनिटाइजेशन यानी मुद्रीकरण के तहत सरकार की संपत्तियों का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा। चार साल के लिए संपत्तियां प्राइवेट क्षेत्र में सौंपी जाएंगी। उसके बाद उन्हें वापस करनी होगी। लेकिन सवाल वही क्या यह भारत जैसे अर्थव्यस्था के लिए कितना सही है।
पहले से सरकारी क्षेत्र के अंतर्गत चल रहे रोड, शिपिंग, रेलवे, गैस पाइपलाइन, टेलीकॉम, एयरपोर्ट जैसे 13 क्षेत्रों के कई प्रोजेक्ट को प्राइवेट सेक्टर को सौंपा जाएगा। मोटे तौर पर कहा जाए तो इस प्रक्रिया के मुताबिक सरकार पट्टे पर प्राइवेट सेक्टर को पहले से बनी बनाई सरकारी संपत्तियां सौंपेंगी।
26700 किलोमीटर की नेशनल हाईवे, 400 रेलवे स्टेशन, 90 यात्री ट्रेन, 25 एयरपोर्ट, 160 कोयला खनन क्षेत्र, 2.86 लाख किलोमीटर तक टेलीकॉम सर्विस पहुंचाने के लिए फैली ऑप्टिकल फाइबर, 12 बंदरगाह, 422 अनाज के गोदाम, 1 नेशनल स्टेडियम - ये सब पट्टे पर निजी क्षेत्र को सौंपा जाएंगे। लोगों में विरोध की लहर ना पनपे इसलिए सरकार ने स्वामित्व अपने पास रखा है। और यह दावा किया है कि 4 साल में उसे इन सरकारी संपत्तियों पर 6 लाख करोड़ रुपए की कमाई होगी।
ऐसी योजना लाने के पीछे तर्क वही दिया गया जो प्राइवेटाइजेशन के लिए दिया जाता है। जिसका केंद्रीय भाव यही होता है कि सरकार बिजनेस करने के लिए नहीं होती है। जब यह सारी सरकारी संपत्ति है प्राइवेट हाथों में जाएगी तो इनकी कार्य दक्षता बनेगी मुनाफा बढ़ेगा और अंत में सरकार को कमाई होगी। भले यह बात कही जा रही हो कि स्वामित्व सरकार के हाथ में होगा लेकिन इस योजना का मकसद बताता है कि यह सब कुछ प्राइवेट हाथों में बेचने के रास्ते में उठाया गया एक बड़ा कदम है। जबकि प्राइवेटाइजेशन की हकीकत क्या है?
अभी कुछ दिन पहले ही कुबेरपतियों के कब्जे में फंसे बैंकों के पैसे निकालने के लिए बने इंसॉल्वेंसी एंड बंकृप्सी कोड से जुड़े कानून की रिपोर्ट संसद में पेश की गई। जिस रिपोर्ट के मुताबिक फंसे कर्ज से जुड़े मामलों का आइबीसी के तहत अधिकतम 180 दिनों के भीतर निपटारा करने का प्रावधान है। लेकिन कुल मामलों के 71 फ़ीसदी यानी करीबन 13,000 मामले ऐसे हैं जो इस समय सीमा को बहुत पहले पार कर चुके हैं और लटके हैं। इन मामलों में 9 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि फंसी हुई है। सबसे बड़ी बात जो इस कमेटी ने बताई है वह है कि तकरीबन बैंकों के बकाया कर्ज की औसतन 95% राशि की वसूली नहीं हो पाती है। यानी अगर बैंक तरफ से किसी कारोबारी ने ₹100 का कर्ज लिया है तो इंसॉल्वेंसी कानून की पूरी प्रक्रिया के बाद केवल ₹5 की वसूली हो पाती है। ₹95 डूब जाता है।
यह रिपोर्ट प्राइवेटाइजेशन के उस तर्क पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है जिसमें यह कहा जाता है कि प्राइवेट हाथों में जब पैसा जाएगा तो वह मुनाफा बनकर निकलेगा. जबकि रिपोर्ट बता रही है कि प्राइवेट हाथों में गया हुआ पैसा डूब जाता है। बैंकों के जरिए दिया गया लोन बैंकों को नहीं मिल पाता। जिसकी अंतिम मार आम लोगों को सहनी पड़ती है। अगर आंकड़े ऐसे हैं तो यह कैसे कहा जाए कि चार साल में इतनी कमाई होगी कि सरकार को छह लाख करोड़ की आमदनी हो जाएगी।
वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अंशुमान तिवारी कहते हैं कि 4 साल में ₹6 लाख करोड़ रुपए कि कमाई होगी, सरकार को यह आंकड़ा कहां से मिला? सरकार ने यह गणना कैसे किया कि 4 साल के बाद 6 लाख करोड़ की कमाई होगी। सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया है। अब तक पट्टे पर सरकारी संपत्तियों को देकर मुनाफा कमाने वाली कोई भी बहुत बड़ी कहानी सरकार के पास नहीं है। इस तरह के कमाई के अधिकतर मॉडल फेल ही हुए है। स्पेक्ट्रम का मामला देखिए। अब तक उलझा हुआ है।
इसी बात से प्राइवेटाइजेशन को लेकर सबसे मूल सवाल खड़ा होता है कि आखिर कर जब चार साल के भीतर 6 लाख करोड़ रुपए की कमाई का अनुमान प्राइवेट सेक्टर से लगाया जा सकता है तो सरकार क्यों नहीं कर सकती? कहां कमी है? इस सवाल का जवाब सरकार की तरफ से कभी नहीं मिलता। आम लोग और मीडिया वाले भी सवाल पलट कर नहीं पूछते. बल्कि उल्टा यह फैलाने में लगे रहते हैं कि सरकारी कंपनियां कामचोर होती हैं।इसलिए काम निकालने और कार्य दक्षता बढ़ाने के लिए प्राइवेट कंपनियों को सरकारी संपत्तियां दे दी जाए। अगर यह बात फैलाते भी हैं तो भी मीडिया वाले सवाल नहीं खड़ा करते हैं कि कैसे बेकार सरकारी संपत्ति जैसे ही निजी क्षेत्र में जाएगी तो लाभ कैसे देने लगेगी? आखिरकार वह कौन सी जादू की छड़ी है जो सरकार में काम करने वाले लोगों के पास नहीं होती और प्राइवेट सेक्टर के पास होती है? इन सवालों का कभी मुकम्मल जवाब नहीं मिलता है। रटे रटाई और कहीं कहाई बातें ही मिलती हैं कि निजी क्षेत्र में जाने से कार्य दक्षता बढ़ जाती है। इस बिंदु पर न्यूज़क्लिक में ढेरों लेख लिखे गए हैं कि कैसे यह पूंजीवादी समाज द्वारा फैलाया गया झूठ है।
बिजनेस स्टैंडर्ड में छपा लेख कहता है कि सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट हाथों में सौंप कर कमाई करने की ऐसी योजनाएं पहले भी इस्तेमाल की जा चुकी है। नेशनल हाईवे ऑथरोटी ऑफ इंडिया के तहत बनी हुई तकरीबन 20 फ़ीसदी सड़कों को प्राइवेट हाथों में चलाने के लिए सौंपा गया। यह भी पट्टे की तरह ही दिया गया था। सरकार ने प्राइवेट सेक्टर के खिलाड़ियों से अनुबंध किया कि वह सड़क की रखरखाव करें, टोल टैक्स वसूले और सरकार को इसके बदले में अपनी कमाई का एक नियत हिस्सा देते रहे। इसकी सबसे खराब बात यह रही कि इसके कामकाज से जुड़ी सूचनाएं बहुत कम मिली। पता ही नहीं चला कि आखिर कर क्या हो रहा है। ना ही सड़क और परिवहन मंत्रालय की तरफ से ठीक-ठाक सूचनाएं आई और ना ही नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया की तरफ से। अब ऐसा क्यों गया होगा? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
आर्थिक मामलों के पत्रकार एनडी मुखर्जी ब्लूमबर्ग पर लिखते हैं कि यह एक तरह का ऐसा अनुबंध है जिसमें मालिकाना हक सरकार के पास होगा और 4 साल के लिए प्राइवेट इन्वेस्टर को सरकारी संपत्ति को सौंपा जाएगा। इस छोटी सी अवधि में अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए प्राइवेट इन्वेस्टर कीमतें ऊंचे करेगा और प्रतिस्पर्धा कम करने की पूरी कोशिश करेगा। मतलब सड़क इस्तेमाल करने के लिए आम लोगों को अधिक भुगतान करना पड़ सकता है। रेलवे स्टेशन और रेलगाड़ी भारत की 1,2 कंपनियों के हाथों में जा सकती है जिनका सरकार से अच्छा खासा संबंध है। सिंगापुर में ठीक ऐसे ही हुआ था। सरकार ने शहरों से गांव देहात को जाने वाली ट्रेनों का प्राइवेटाइजेशन कर दिया। इन्वेस्ट करने वालों ने ट्रेन के मेंटेनेंस पर कम खर्चा किया। इसलिए बार-बार ब्रेक लगाने की समस्या पैदा हुई। यात्री गुस्से में आए विरोध प्रदर्शन किया और फिर से ट्रेन का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा।
भारत एक ऐसा मुल्क है जहां पर अर्थव्यवस्था के बड़े-बड़े औजार सरकारी मिलीभगत की वजह से कुछ लोगों की हाथों में पहले से ही सीमित है। कारोबार को नियंत्रित और नियमन करने के लिए बनी किसी भी तरह की संस्थाएं ढंग से काम नहीं करती हैं। बैंकों का बढ़ता एनपीए और कई क्षेत्रों में उभरते एकाधिकार की प्रवृत्तियां यही बताती हैं कि भारत का प्रशासनिक नियंत्रण बहुत कमजोर है। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि इतना कमजोर प्रशासनिक नियंत्रण क्या प्राइवेट इन्वेस्टर पर वह लगाम लगा पाएगा जिससे सरकार की पूरी योजना एकाधिकार वाले क्षेत्र में ना बदले और बुनियादी ढांचे से जुड़ी सुविधाओं के शुल्क की कीमत बढ़ती ना जाए? क्या ऐसा हो पाएगा कि करदाताओं से बनी सरकारी संपत्ति अगर प्राइवेट लोगों के हाथ में जाए तो नागरिकों के तौर पर मौजूद करदाताओं से अधिक कीमत की वसूली ना की जाए? क्या जब टोल टैक्स और रेलवे का किराया बढ़ेगा तो उसे भारत की गरीब जनता को देखते हुए कम किया जा सकेगा? क्या भारत की प्रशासनिक व्यवस्था अंबानी और अडानी जैसे पूंजी पतियों पर लगाम लगा पाएगी? अगर इन सब का इशारा ना की तरफ है तो कैसे कहा जाए कि यह योजना ढंग से काम करेगी।
अगर हम पूरे विश्लेषण को देखते हैं तो एक बात स्पष्ट जाती है कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। भारत जैसे गरीब मुल्क में सरकार की तरफ से इस्तेमाल होने वाला यह सबसे ज्यादा जनविरोधी वाक्य है। बिजनेस करने के तौर-तरीकों की वजह से मुट्ठी भर लोग ही आगे बढ़ रहे हैं बाकी ढेर सारे लोग पीछे रह जा रहे हैं। ऐसे माहौल में अगर सरकार सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट हाथों में सौंपने का रास्ता बनाती चले तो इसका मतलब यह है कि सरकार साफ शब्दों में कह रही है कि अपने जानमाल की रक्षा आप खुद करें सरकार का आपसे कोई लेना देना नहीं।
राहुल गांधी ने सरकार की इस योजना पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह लिस्ट सिर्फ 4 लोगों को मिलने वाली है। इस योजना से अर्थव्यवस्था में मोनोपोली बढ़ेगी। जैसे ही मोनोपोली बढ़ेगी बेरोजगारी और अधिक बढ़ती चली जाएगी। 70 साल में देश के आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जो बुनियादी ढांचा खड़ा किया गया था उसे वह सरकार खुलेआम भेज रही है।
वाम दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने भी राष्ट्रीय मौद्रिकरण पाइपलाइन (एनएमपी) की घोषणा को लेकर मंगलवार को आरोप लगाया कि सरकार ने देश को ‘बेचने’ की आधिकारिक रूप से घोषणा कर दी है। माकपा ने एक बयान में कहा, ‘‘केंद्र सरकार ने आधिकारिक रूप से भारत को बेचने की घोषणा कर दी है। एनएमपी हमारी राष्ट्रीय संपत्तियों और आधारभूत अवसंरचना की लूट है।’’
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