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प्रभात पटनायक की क़लम से: अमेरिका के शिक्षा परिसरों में ‘आतंक’

बताया जाता है कि 1,500 छात्रों के छात्र वीसा रद्द कर दिए गए हैं और उन्हें निर्वासन की कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है।
US STUDENTS
अमेरिका के बॉस्टन शहर के लोगन एयरपोर्ट पर हुसैन आबादी के निर्वासन के विरोध में प्रदर्शन। (फोटो: सारा बेंटनकोर्ट, कॉमनवेल्थ)।

अमेरिकी शिक्षा परिसरों में अंतर्राष्ट्रीय छात्र इस समय आतंक से ग्रस्त हैं। उन्हें कभी भी अगवा किया जा सकता है, वे जहां रहते हैं वहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर के डिटेंशन केंद्रों में भेजा जा सकता है, वहां कितने ही समय तक रखा जा सकता है और उसके बाद उनका अमेरिका से बाहर प्रत्यार्पण किया जा सकता है। और यह सब इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी ज्ञात कानून का उल्लंघन किया हो बल्कि पूरी तरह से प्रशासन की मर्जी के आधार पर। 

ठीक-ठीक अनुमान तो लगा पाना मुश्किल है, लेकिन बताया जाता है कि 1,500 छात्रों के छात्र वीसा रद्द कर दिए गए हैं और उन्हें निर्वासन की कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है।

अमेरिकी प्रशासन की मनमानी

ज्यादातर मामलों में प्रशासन ने इस तरह की कार्रवाई का निशाना बनाए गए छात्रों पर ‘‘यहूदी-विरोध’’ में संलिप्त होने का आरोप लगाया है। लेकिन, यहूदी-विरोध क्या है इसे परिभाषित किया जाता है, पूरी तरह से प्रशासन की मनमार्जी के हिसाब से। खुद प्रशासन के अनुसार भी, इसके कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि किस तरह की गतिविधियों को, इसके दायरे में आने वाली गतिविधियों में रखा जा सकता है।

वास्तव में टफ्ट यूनिवर्सिटी के एक छात्र को तो सिर्फ इसलिए निशाना बनाया गया है कि उसने इस विश्वविद्यालय के छात्रों के अखबार, टफ्ट्स डेली में संपादकीय पृष्ठ के बगल के पेज के लेख का सह-लेखन किया था, जिसमें यूनिवर्सिटी से इस्राइल से नाता तोड़ने का आग्रह किया गया था। एक और छात्र को सिर्फ इसलिए निशाना बनाया गया था कि वह हमास के एक सलाहकार का रिश्तेदार था, जो एक दशक पहले ही उक्त पद को त्याग भी चुका था और जिसने 2023 के अक्टूबर की हमास की कार्रवाई की आलोचना तक की थी। 

यहां तक कि सोशल मीडिया पोस्ट भी किसी छात्र को मुश्किल में डाल सकती हैं। प्रशासन के अधिकारीगण इस समय सोशल मीडिया पोस्टों को ही खंगालने में लगे हुए हैं, ताकि यह तय कर सकें कि किसे अगवा करना है और निर्वासित करना है। और आतंकित छात्र अपने सोशल मीडिया पोस्ट डिलीट करने में लगे हुए हैं कि उनकी वजह से ही संकट में नहीं फंस जाएं।

इसका भी कहीं कोई प्रावधान नहीं है कि ‘‘यहूदी-विरोध’’ कोई संज्ञेय अपराध है। ‘‘यहूदी-विरोध’’ के लिए छात्रों को दंडित करने के लिए दलील यह दी गयी है कि इस कार्रवाई का निशाना बनाए जा रहे छात्रों ने अमरीकी विदेश नीति के खिलाफ काम किया था, जिसके वैश्विक लक्ष्यों में से एक है, यहूदी-विरोध के खिलाफ संघर्ष करना। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी विदेशी छात्र को अमरीकी विदेश नीति की आलोचना करते हुए कुछ भी कहने या ऐसा कुछ भी सोशल मीडिया में पोस्ट करने के लिए भी, प्रत्यार्पित किया जा सकता है।

अगला नंबर अमेरिकी नागरिकों का होगा

चलिए हम एक क्षण के लिए इस सचाई को भूल जाते हैं कि इस्राइल का तो अस्तित्व मात्र, निर्मम सैटलर उपनिवेशवाद का उदाहरण है, जिसने दसियों लाख फिलिस्तीनियों को विस्थापित किया है और उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया है। चलिए, हम इस तथ्य को भी भूल जाते हैं कि इस्राइल इस समय बड़ी बेशर्मी से ग़ज़ा में नरसंहार कर रहा है, जो कि मानवता की अंतरात्मा पर ही प्रहार करता है। चलिए हम यह भूल जाते हैं कि बहुत सारे यहूदी छात्र खुद, इस नरसंहार के खिलाफ जारी विरोध कार्रवाइयों में सक्रिय रहे हैं। 

चलिए, हम इस तथ्य को भी भूल जाते हैं कि खुद इस्राइल में जनता का बहुमत, नेतन्याहू की सरकार गज़ा में जो कुछ कर रही है, उसके खिलाफ है। 

आइए, हम इस बुनियादी सचाई को भी भूल जाते हैं कि यहूदीवाद का विरोध, यहूदी-विरोधी होना नहीं होता है। नुक्ता यह है कि अमरीकी प्रशासन ने अपना यह अधिकार मान लिया है कि वह किसी को भी प्रत्यार्पित कर सकता है, जिसके खिलाफ उसे लगता है कि उसके पास कोई बहाना है। फिलहाल बहाना है यहूदी-विरोध का। लेकिन, अमरीकी प्रशासन की कार्रवाइयां इसकी ओर इशारा करती हैं कि किसी भी विचारवान तथा संवेदनशील छात्र पर हमला किया जा सकता है, जो उसके विचारों तथा कदमों से असहमत होने की जुर्रत करेगा।

अगर इस तरह का हमला विदेशी छात्रों के खिलाफ तथा विश्वविद्यालयों के विदेशी शिक्षकों के खिलाफ किया जा सकता है और ग्रीनकार्ड धारकों तक के साथ किया जा सकता है, तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि इसका दायरा अमरीकी नागरिकों तक नहीं फैला दिया जाएगा, भले ही अमरीकी संविधान का पहला संशोधन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने का प्रावधान करता हो।

आखिरकार, यह तो एक बहसतलब मुद्दा है कि क्या ग्रीनकार्ड-धारक विदेशी संविधान के पहले संशोधन के अंतर्गत संरक्षण के अधिकारी हैं। लेकिन, अगर उन्हें इसके दायरे बाहर कर दिया जाता है, तो वैध अमरीकी नागरिकों को भी इस आधार पर इसके दायरे से बाहर किया जा सकता है कि वे ‘‘अमेरिका-विरोधी’’ तत्वों की मदद कर रहे थे।

संकट के दौर में साम्राज्यवाद

इन हालात की तुलना जरा साठ के दशक के आखिर तथा सत्तर के दशक के आरंभ के दौर से करें, जब अमेरिकी शिक्षा परिसरों में और अन्य देशों के शिक्षा परिसरों में भी, वियतनाम युद्ध के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन देखने को मिल रहे थे। इन सभी आंदोलनों में, वे चाहे अमेरिका में रहे हों या अन्यत्र रहे हों, अंतर्राष्ट्रीय छात्र उतने ही सक्रिय रूप से शामिल रहे थे, जितने सक्रिय रूप से उन देशों के छात्र शामिल थे, जहां के शिक्षा परिसरों में ये विरोध कार्रवाइयां हो रही थीं। तब विदेशी छात्रों के अलग से किन्हीं खतरों का सामना करने और इस तरह आतंकित कर उनसे हामी भरवाए जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि तब से अब तक क्या बदल गया है, जो हमें ऐसा भारी अंतर दिखाई दे रहा है?

बुनियादी अंतर आया है ऐसी विरोध कार्रवाइयों के संदर्भ में। साम्राज्यवाद निर्मम तो तब भी उतना ही था, जितना आज है। लेकिन, यह ऐसा साम्राज्यवाद था जो, वियतनाम में पराजय का सामना करने के बावजूद, दूसरे विश्व युद्ध के चलते अपनी हैसियत में आयी कमजोरी से उबरने में कामयाब रहा था। उसने अपनी स्थिति को पुख्ता कर लिया था। बेशक, सोवियत संघ से उसे गंभीर चुनौती मिल रही थी, फिर भी उसने यह आत्मविश्वास हासिल कर लिया था कि वह इस चुनौती का सामना कर लेगा। 

यह वही स्थिति थी जिसे मार्क्सवादी दार्शनिक हर्बर्ट मार्कूस हों या मार्क्सवादी अर्थशास्त्री पॉल बरान तथा पॉल स्वीजी, सभी ऐसी स्थिति बताते हैं जहां उसने अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों को सफलता के साथ संभाल लिया था। मुद्दा यह नहीं है कि उनका ऐसा कहना सौ फीसद सही था या नहीं। मुद्दा यह है कि हालात इस तरह के वर्णन को आमंत्रित करते थे।

नव-फ़ासीवाद का दौर

इसके विपरीत आज अमरीकी साम्राज्यवाद, और इसलिए निहितार्थत: आम तौर पर साम्राज्यवाद, संकट में फंसा हुआ है। यह इस संकट का ही लक्षण है कि वह इसकी बदहवास कामना करता है कि तमाम विरोध से छुट्टी पा ले और इसमें सबसे बढक़र शिक्षा परिसरों से आने वाला बौद्धिक विरोध शामिल है। 

ट्रंप प्रशासन के अपने ही शब्दों में अमरीकी शिक्षा परिसर, उदारवादी तथा वामपंथी तत्वों से भरे हुए हैं और इनसे छुट्टी पाए जाने की जरूरत है। 

शिक्षा परिसरों की विरोध कार्रवाइयों के प्रति प्रशासन जिस तरह की खुली आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहा है, उस संकट की ही वजह से है, जिसका सामना आज व्यवस्था को करना पड़ रहा है।

बहुत से लोग इस प्रस्थापना से असहमत होंगे। इसके बजाए वे यह दलील देंगे कि आज के हालात और साठ के आखिरी तथा सत्तर के शुरूआती वर्षों के दौर के बीच का यह अंतर सारत: इसलिए है कि ट्रंप जैसा नव-फासीवादी मानसिकता का व्यक्ति, आज अमरीकी राष्ट्रपति के पद पर है। लेकिन, ट्रंप जैसे व्यक्ति के राष्ट्रपति पद पर चुने जाने का कारण भी तो, इस संकट को ही प्रतिबिंबित करता है। पहले वाले पुराने फासीवाद की ही तरह, नव-फासीवाद तब उभरकर सामने आता है, जब संकट के दौर में सत्ताधारी वर्ग, अपने वर्चस्व के लिए किसी भी चुनौती को टालने के लिए, नव-फासीवादी तत्वों के साथ गठजोड़ कर लेते हैं। 

संक्षेप में यह कि ट्रंप का सत्ता में आना और उसी प्रकार नरेंद्र मोदी या जेवियर मिलेई तथा इसी प्रकार के अन्य लोगों का सत्ता में आना, अपने आप में मूल कारण नहीं है। इसकी तो खुद, व्याख्या किए जाने की जरूरत होगी। इसकी निकटतम व्याख्या, उस अभूतपूर्व संकट से ही हो सकती है, जिसका पूंजीवाद खुद आज सामना कर रहा है।

उल्टी ही क्यों पड़ रही हैं ट्रंप की चालें?

यह इस संकट की ही निशानी है कि इसे वर्तमान व्यवस्था के दायरे में हल करने की तमाम कोशिशें, संकट को बढ़ाने का ही काम कर रही हैं। यह ट्रंप की  करनियों से स्पष्ट है। यहां तक कि वर्तमान संकट को नकारने वाले, इन कदमों को तथा संकट को ही बढ़ाने के इन कदमों के उल्टे असर को या अपनी समझ से इन कदमों के ही संकट पैदा करने वाले असर को देखते हुए, बहुत से लोग ट्रंप को एक ‘‘सनकी’’ (crazy) की तरह चित्रित करते हैं। लेकिन, इस  ‘‘सनकी’’ व्यक्ति की हरकतों के पीछे एक अलंघ्य संकट है। इस तरह, दूसरे देशों से आयातों के खिलाफ टैरिफ थोपने के जरिए ‘‘मैम्युफैक्चरिंग अमेरिका में वापस लाने’’ की ट्रंप की कोशिशों ने, दुनिया भर में भारी अनिश्चितता पैदा करने और इस तरह खुद अमेरिका में मंदी के हालात पैदा करने का ही काम किया है। इसी के चलते ट्रंप को टैरिफ प्रहार को रोकना पड़ा है। इसी प्रकार, कारोबार के ‘‘गैर-डालरीकरण’’ को आगे बढ़ाने वाले देशों के खिलाफ बदले की कार्रवाई की धमकियों के जरिए, डालर को उछाला देने की ट्रंप की कोशिशों ने, दीर्घावधि में डालर की हैसियत को कमजोर करने का ही काम किया है। उसने ऐसा किया है ऐसी स्थानीय व्यापारिक व्यवस्थाओं के गठन को बढ़ावा देने के जरिए, जो सर्कुलेशन के माध्यम के रूप में डालर को परे कर के चलती हैं।

ठीक इसी तरह से ट्रंप प्रशासन की इसकी कोशिश कि अमेरिका आने वाले विदेशी छात्रों को इसके लिए मजबूर किया जाए कि चुपचाप बैठकर कक्षाओं में पढ़ें, जहां वही पढ़ाया जाएगा जिसकी प्रशासन अनुमति देगा और मानवता के सामने उपस्थित ज्वलंत प्रश्नों पर अपने कोई भी विचार व्यक्त करने से बचकर रहें, अमरीकी शिक्षा प्रणाली पर उल्टी पड़ने जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय छात्र, और अनुमान है कि ऐसे करीब 11 लाख छात्र इस समय अमेरिका में हैं, वहां आना ही बंद कर देंगे। इनमें से ज्यादातर फीस भरने वाले छात्र हैं, जिनसे मिलने वाले पैसे से ही बहुत हद तक अमेरिका में उच्च शिक्षा व्यवस्था वहनीय हो पायी है। अनेक विश्वविद्यालयों के लिए संघीय फंडिंग सूखती गयी है ( और यह फंडों के उस रोके जाने से बिल्कुल अलग है, जो ट्रंप प्रशासन ने तथाकथित ‘यहूदी-विरोधी’ तत्वों को पालने-पोसने के लिए सजा के तौर पर, कोलंबिया तथा हार्र्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों पर थोपा है) और यह, विदेशी छात्रों के न आने से जो राजस्व हानि होगी उसके साथ जुडक़र, अनेक अमेरिकी विश्वविद्यालयों को वित्तीय रूप से अवहनीय बना देने वाला है। और यह उस बहुत भारी बौद्धिक नुकसान के ऊपर से होगा, जो अंतर्राष्ट्रीय छात्रों की अनुपस्थिति से और इस अनुपस्थिति के साथ अनिवार्य रूप से जो जी-हुजूरी आएगी उससे, अमरीकी विश्वविद्यालयों का होने जा रहा है।

विकासशील दुनिया के लिए अवसर

यह विकासशील दुनिया या ग्लोबल साउथ के लिए इसका अवसर पैदा करता है कि अमेरिका की ओर ‘प्रतिभा पलायन’ को रोकें और अपनी शिक्षा प्रणाली का पुनरोद्धार करें ताकि अपनी बेहतरीन प्रतिभाओं को अपने यहां ही बनाए रख सकें। बेशक, हम मोदी सरकार से तो यह करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, बहरहाल मोदी के किसी भी जनतांत्रिक विकल्प को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। जब नाजी जर्मनी में सत्ता में आए थे, रवींद्रनाथ टैगोर ने, इसे पहचान कर कि उस देश से विद्वानों का और खासतौर पर यहूदी विद्वानों का पलायन होने जा रहा था, उनमें से कुछ को आकर्षित कर विश्व भारती में लाने की योजनाएं बनायी थीं। हमारे देश की जनतांत्रिक ताकतों को, आज पूंजीवादी संकट द्वारा मुहैया कराए जा रहे अवसरों के प्रति ऐसी ही जागरूकता का प्रदर्शन करना चाहिए। 

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित यह आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

US: Terror in Campuses Amid Crisis of Capitalism

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