क्या सुप्रीम कोर्ट कश्मीर पर राष्ट्रपति के आदेश को पलट सकता है? रिटायर्ड जस्टिस के. चंद्रू से बातचीत

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाने और जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों मे बाँटने के लिए अचानक से लिए गए फ़ैसले के बाद, न्यूज़क्लिक ने इस फ़ैसले के परिणाम जानने के लिए ईमेल के माध्यम से न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) के. चंद्रू का इंटरव्यू लिया। न्यायमूर्ति चंद्रू, मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं और कई महत्वपूर्ण निर्णय लिख चुके हैं, और प्रगतिशील विचार के एक पक्के अधिवक्ता हैं। वह क़ानूनी और सामाजिक मुद्दों पर एक बेहतरीन लेखक और टिप्पणीकार भी हैं।
जिस तरह से अनुच्छेद 370 के बड़े भाग को निरस्त कर दिया गया है, क्या उसकी कोई क़ानूनी मान्यता है? क्या इसे अदालतों द्वारा पलटा जा सकता है? क्या आप अनुच्छेद 370 के इतिहास के बारे में कुछ बता सकते हैं?
जब संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था, तो उसमें अनुच्छेद 370 को शामिल करने पर बहुत बहस हुई थी। कांग्रेस पार्टी इन सभी मामलों के बीच में थी और हालांकि उनमें आपस में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा देने पर कुछ मतभेद भी थे, फिर भी पार्टी मुख्य रूप से दो मुद्दों को क़ाबू कर पाई। पहला उन्हें पाकिस्तानी घुसपैठियों और संयुक्त राष्ट्र के संभावित हस्तक्षेप का ख़तरा था। इन मतभेदों को पंडित नेहरू ने दूर किया। हालाँकि हिंदू महासभा का इस पर कुछ विरोध था, लेकिन आरएसएस इस तस्वीर में कहीं भी मौजूद नहीं थी क्योंकि वे महात्मा गांधी की हत्या के बाद से एक अर्ध-क़ानूनी स्थिति में काम कर रहे थे।
विशेष दर्जा दिए बिना, कश्मीरी लोगों की समस्या का समाधान नहीं हो सकता था, क्योंकि देश में शामिल होने के दस्तावेज़ पर केवल महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर थे, जो लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। इसलिए, बहुसंख्यक आबादी को लोकतांत्रिक राजनीति में भाग लेने के लिए और भारतीय आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए, यह खास दर्जा आवश्यक था। हालांकि बाद में, व़क्त-वक़्त पर स्थानीय सरकारों को विभिन्न केंद्रीय सरकारों द्वारा ख़ारिज करने, कांग्रेस पार्टी द्वारा भारतीय संसद द्वारा बनाए गए क़ानूनों को वहां लागू करने के हेरफेर और सहमति प्राप्त करने में सक्षम हो गयी थी। कांग्रेस राज्य को कोई भी वास्तविक स्वायत्तता नहीं देना चाहती थी और ही वह राज्य में सरकार के राजनीतिक गठन में भारी हस्तक्षेप करती रही है।
अनुच्छेद 370 को एक अस्थायी प्रावधान नहीं माना जा सकता है क्योंकि उपखंड (3) के तहत राष्ट्रपति को अधिसूचना जारी करने के लिए कश्मीर की संविधान सभा की सिफ़ारिश लेनी आवश्यक है। अब चूंकि कोई संविधान सभा नहीं है तो इसकी जगह स्थानीय विधानसभा या राज्य का राज्यपाल नहीं ले सकता है। इस दृष्टिकोण से, यह एक क्षणिक प्रावधान नहीं है, बल्कि भारतीय संविधान की एक स्थायी विशेषता है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय के सामने भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 (1) के तहत जारी वर्तमान राष्ट्रपति के आदेश को पलट देने की गुंजाइश है।
भारत ने हमेशा से कश्मीर समस्या के समाधान में बाहरी हस्तक्षेप की मनाही की है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा पेश किसी भी समाधान का विरोध किया है। इसलिए, यह आवश्यक है कि राज्य को दी गई मुखौटा स्वायत्तता को जारी रखा जाए। दूसरी ओर, विवादित क्षेत्र पर उग्रवाद को नियंत्रित करने के नाम पर, बड़े पैमाने पर भारतीय सशस्त्र बल घाटी में तैनात हैं। आज भारतीय सेना और स्थानीय पुलिस का अनुपात 1:10 का है। यानी 10 कश्मीरियों पर एक सैनिक।
कश्मीर की सुरक्षा के नाम पर साल-दर-साल भारी मात्रा में ख़र्च करना भारत सरकार के पक्ष में हो सकता है और एक तरह से उन्हें इस सब के ज़रिये भारत के अन्य हिस्सों में स्थानीय अशांति और राष्ट्रीय आपातकाल के नाम पर विभिन्न आपातकालीन क़ानूनों को जारी रखने का मौक़ा भी मिलता है। याद रखें कि पाकिस्तान के साथ दो बार किया गया युद्ध और पूर्वी पाकिस्तान की एकमुश्त मुक्ति का इस्तेमाल केंद्रीय सत्ताधारी दल यानी कांग्रेस को मज़बूत करने और विपक्ष को काले क़ानून लगा कर कुचलने के लिए किया गया था। जब संविधान सभा का इरादा उस राज्य को एक अलग दर्जा देने का था और जिसमें भारत संघ की न्यूनतम भूमिका रखते हुए उसे वास्तविक स्वायत्तता प्रदान करना था, जबकि व्यवहार में, कश्मीर को करदाताओं द्वारा दी जाने वाली बहुत सारी सब्सिडी से भारत द्वारा सैन्य शासन की अनूठी मिसाल मिलती है।
भाजपा और आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने दशकों से यह तर्क दिया है कि अनुच्छेद 370 और विशेष रूप से अनुच्छेद 35 (ए) का मतलब है कि कश्मीरी भारत के बाक़ी हिस्सों की तुलना में अलग क़ानूनों द्वारा शासित हैं। आप इस तर्क पर क्या प्रतिक्रिया देंगे?
विशेष दर्जे को लेकर आरएसएस और भाजपा अलगाववादी ताक़तों की मदद करने के लिए बार-बार इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ़, पूरे भारत में एक ही संविधान लागू होने के बावजूद, कई क्षेत्रों में अलग से कई प्रावधान किए हैं, जो उनके इतिहास और संस्कृति को ध्यान में रखकर किया गया है। ऐसे अनुसूचित क्षेत्र हैं जहाँ आदिवासी क़ानूनों को लागू किया जाता रहा है। आज भी कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों में सी.पी.सी. लागू नहीं है। न्यायपालिका और कार्यपालिका का अलगाव पूर्ण नहीं हुआ है। वास्तव में, जिला मजिस्ट्रेट (आयुक्त) भारतीय सशस्त्र बलों की मदद से प्रशासन चला रहे हैं। इसलिए, लोकतंत्र का मुखौटा केवल भारत के कुछ क्षेत्रों पर लागू होता है, जबकि कुछ क्षेत्रों को सशस्त्र बलों द्वारा सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम की मदद से शासित करने के लिए छोड़ दिया जाता है।
मात्र इस तथ्य के कि बाहरी लोग ज़मीन नहीं ख़रीद सकते हैं और महिलाओं के नाम अपने माता-पिता की ज़मीन नहीं हो सकती है, इस बदलाव का कोई कारण नहीं हो सकता है। भारत कई बेनामी ज़मीनों को संचालित करने के लिए जाना जाता है। यहां तक कि अनुच्छेद 35A भी सुप्रीम कोर्ट के सामने एक चुनौती है और संभावना है कि इसमें भी दख़ल दिया जा सकता है। लेकिन कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने की वर्तमान क़वायद वास्तविक नहीं है।
यदि केंद्र सरकार का निर्णय लोकतांत्रिक होता और इसे पूर्ण अनुमति के ज़रिये किया जाता, तो उन्हें कश्मीर में सेना की अतिरिक्त टुकड़ियों को भेजने की आवश्यकता नहीं होती, पर्यटकों को राज्य से बाहर जाने की सलाह नहीं दी जाती, न ही अमरनाथ की तीर्थयात्रा को बंद किया जाता और तो और सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं को गिरफ़्तार भी कर लिया गया। यह निश्चित रूप से एक सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है (जो कि पुलवामा के बाद तथाकथित घटी थी), लेकिन एक सिजेरियन जैसा गर्भपात, जहां लोकतंत्र को उसके भ्रूण के रूप में मार दिया गया है।
जम्मु कश्मीर को दो क्षेत्रों में विभाजित करने से इस क्षेत्र के लोगों के अधिकारों पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा?
राज्य के विभाजन ने वास्तव में शासकों को हंसी का पात्र बना दिया है। 1920 के दशक की शुरुआत में, मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधार और भारत सरकार अधिनियम, 1919 को लागू करने में स्थानीय लोगों को सरकार में कुछ ज़िम्मेदारी दी गई थी। भारतीय संविधान के 70 वर्षों के बाद यह पहली बार है जब हमारे पास एक विधानसभा के बिना एक केंद्र शासित प्रदेश होगा। विधेयक इस बात का कोई कारण नहीं बताता है कि लेह क्षेत्र के स्थानीय लोगों को अपना प्रतिनिधित्व चुनने से वंचित क्यों किया गया है।
यह पहली बार हुआ है कि केवल इस कार्रवाई से हम भारत के एक क्षेत्र में ऐसी एकात्मक प्रकार की सरकार बनाएंगे, जहां सभी राज्यपाल शक्तिशाली गृह मंत्री की धुन पर नाचेंगे। इसी तरह, एक पूर्ण विधानसभा को केंद्रशासित प्रदेश में परिवर्तित करने के लिए कोई कारण नहीं दिया गया और वह भी पुडुचेरी प्रकार की सरकार। जैसा कि हम देख रहे हैं कि उपराज्यपाल किरण बेदी (पूर्व पुलिस अधिकारी) और पुडुचेरी में कांग्रेस के निर्वाचित मुख्यमंत्री के बीच टकराव चल रहा है। हालांकि, पहली क़ानूनी लड़ाई में, मद्रास उच्च न्यायालय के सामने बेदी अपना मत हार गई हैं, लेकिन मामला अभी भी लंबित है। यह भी चौंकाने वाली बात है कि अरविंद केजरीवाल (आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री), दिल्ली विधायिका के वर्चस्व को स्थापित करने की अपनी लड़ाई के बावजूद, कश्मीर के टुकड़े करने के प्रस्ताव को समर्थन देने में कोई समय नहीं गंवाया। यह तय है कि लेह के बिना विधायिका के प्रस्ताव को अदालत पलट देगी।
दक्षिणपंथ इस क़दम को जनसांख्यिकीय परियोजना के हिस्से के रूप में भी देखता है। अनुच्छेद 35 (ए) को निरस्त करने के बाद, आप किस तरह के बदलावों की उम्मीद करते हैं?
भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी समूहों के लिए, कश्मीर एक क्रूसिबल है जहां वे विभिन्न प्रयोग कर सकते हैं। उस संबंध में, वे कांग्रेस से पीछे नहीं हैं, जो बीमार और ख़राब कश्मीर नीति के मुख्य अपराधी है। हो सकता है कि अनुच्छेद 35A अदालतों की जांच के दायरे में न हो, लेकिन संविधान में किसी विशेष राज्य को उसके इतिहास और भूगोल को ध्यान में रखकर विशेष अधिकार प्रदान करने में कुछ भी ग़लत नहीं है।
सरकार के इस क़दम से भारत के संघीय ढांचे पर क्या असर पड़ेगा?
भारतीय संविधान में कोई संघीय ढांचा नहीं है, ख़ासकर जब अनुच्छेद 246 के तहत एक तीसरी सूची मौजूद है यानी जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है, जिसके तहत संसद भी क़ानून बना सकती है। इसके अलावा, संसद के पास क़ानून बनाने की व्यापक शक्ति है और पिछले सात दशकों में धीरे-धीरे संविधान ने ऐसी ताक़तों के संचालन को देखा जिसके द्वारा केंद्र सरकार ने सभी शक्तियों को अपने अधीन कर लिया है। ताज़ा उदाहरण यह है कि राज्य सरकारें प्राथमिक शिक्षा को चलाने के लिए मात्र डाकघर बन कर रह गई हैं।
इस नए क़दम से, केंद्र सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हम सरकार के ऐसे एकात्मक रूप में पहुँच गए हैं, जहाँ सशस्त्र बलों की ताक़त के बल पर, केंद्रीय सत्ता पक्ष अपनी उपस्थिति हर जगह दर्ज कर रहा है। बहुमतवाद के नाम पर संवैधानिक नैतिकता को प्रमुखता दी जा रही है और, वे (सत्तारूढ़ पार्टी) अल्पसंख्यकों पर हमला तेज़ करेंगे फिर चाहे वे भाषाई हो या धार्मिक ही क्यों न हो।
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