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झारखंड: ‘विश्व आदिवासी दिवस’ पर ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का टोटका रहा प्रभावहीन

“यह दिवस कोई रंगीन उत्सव नहीं बल्कि आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों, वर्तमान की चुनौतियों और भविष्य की लड़ाइयों को दुनिया के सामने दृढ़ता से रखने का दिन है।”
World Indigenous Day

‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाने की धमक, आदिवासी बाहुल्य झारखंड प्रदेश में इस बार ‘दिशोम गुरु’ जी के निधन के कारण सामान्य सी ही रही। आदिवासी एवं अन्य वंचित समुदायों की आवाज़ तथा दशकों से झारखंड राज्य गठन आन्दोलन के सर्वमान्य अगुवा रहे शिबू सोरेन जी के निधन से पूरे प्रदेश में व्यापक शोक की लहर है। 

इस कारण ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के सभी कार्यक्रम उन्हीं को समर्पित कर किये गए। वैसे, राज्य सरकार ने इस दिवस पर आयोजित होने वाले सभी सरकारी कार्यक्रमों को पहले ही स्थगित करने की घोषणा कर दी थी।

अदिवासी-दिवस पर आयोजित कार्यक्रमों के माध्यम से आदिवासी समुदाय के अस्तित्व-अस्मिता पर बढ़ रहे चौतरफा दबावों और चुनौतियों के सवाल इस बार भी प्रमुखता के साथ उठाये गए। जिनमें ज़मीन बचाने के सवालों के अलावा झारखंडी समाज में फैलाये जा रहे “डिलिस्टिंग” जैसे विवाद के सांप्रदायिक विभाजनकारी सवाल भी रहे। विशेषकर हाल के समय में ‘आदिवासी-रूढ़ी’ का हवाला देकर उछाले जा रहे तथाकथित “धर्मांतरण” मुद्दे के जरिये सामाजिक विवाद को उन्माद का रूप देने की पुरज़ोर कोशिश के रूप में देखा जा सकता है।

इसे भाजपा समर्थित आदिवासी नेता-समूहों ने काफी तूल देने के लिए “आदिवासी रूढ़ी” का हवाला देकर “ईसाई धर्म अपनाए आदिवासियों’ को आदिवासी दर्जा व उसकी सुविधाएं नहीं देने का आह्वान करते हुए “सरना-आदिवासी टकराव” बनाने की हर चंद कवायद की मगर सफल नहीं हो सका।

‘विश्व आदिवासी दिवस’ पर राजधानी रांची से लेकर राज्य के विभिन्न इलाकों में पारम्पारिक आदिवासी वेश-भूषा के साथ नगाड़ा-मांदर बाजाते-नृत्य करते हुए जुलुस-पदयात्राएं निकाली गयीं। अनेक स्थानों पर जनसभाएं व सेमीनार-विमर्श कार्यक्रमों के माध्यम से आदिवासी समाज के ज्वलंत सवालों को उठाया गया। झारखंड में पेसा कानून समेत सीएनटी/एसपीटी इत्यादि कानूनों को प्रभावी ढंग क्रियान्वयन की मांग जोर-शोर से उठायी गयी। आदिवासी विरासत व परम्परा को बचाने के साथ साथ जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा और आदिवासी अस्तित्व-अस्मिता के लिए एकजुट संघर्ष का आह्वान किया गया। 

आदिवासी एक्टिविस्ट के बड़े समूह ने एकस्वर से कहा कि नरेंद्र मोदी-भाजपा सरकार घोषित “जनजातीय गौरव दिवस” हमारे लिए ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के आगे फीका है। क्योंकि इससे हम आदिवासियों की अपनी गहरी भावनाएं जुड़ी हुई हैं। 

सोशल मीडिया में भी विश्व आदिवासी दिवस की ऐतिहासिक विशेषताओं को रेखांकित करते हुए आदिवासी समाज के मौजूदा संकटों पर ध्यान दिलाने वाले पोस्ट लगाए गए। कई पोस्ट में तो यह भी सवाल उठाया गया कि- विश्व आदिवासी दिवस की शुभकामनाओं का क्या मतलब है, जब आदिवासियों की ज़मीनें धड़ल्ले लूटी जा रहीं हैं और विस्थापन-पलायन का संकट लगातार विकराल होता जा रहा है!

इस अवसर पर कई सुचिंतित आदिवासी बौद्धिक समूहों के एक हिस्से ने भी  अपील जारी करते हुए आदिवासी-दिवस के विशेष महत्व को समझने व उसके अनुरूप कार्य करने की बात कही। 

वरिष्ठ आदिवासी चिन्तक वाल्टर कंडूलना जी के विचारों को कई युवा आदिवासी एक्टिविस्ट ने पुरज़ोर समर्थन दिया। उन्होंने लिखा कि- एक गहरी ग़लतफ़हमी फैलायी है जिसमें ‘विश्व आदिवासी दिवस’ को महज एक आदिवासी सांस्कृतिक उत्सव के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। गीत-संगीत, नृत्य-नाटक, पारम्परिक परिधान और झांकियों के पीछे असली मुद्दे- अधिकार, अस्मिता और अस्तित्व के संकटों को छिपाया जा रहा है।                                                 

वे इस बात की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि- यह दिवस कोई रंगीन उत्सव नहीं बल्कि आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों, वर्तमान की चुनौतियों और भविष्य की लड़ाइयों को दुनिया के सामने दृढ़ता से रखने का दिन है। 

यह वह दिन है जब हमें आदिवासियों के प्रति हुई ऐतिहासिक अन्याय की पड़ताल करनी चाहिए और उनके अधिकारों की अनुगूँज आंतर्राष्ट्रीय मंच तक पहुँचना चाहिए।                                                                        

इनके विमर्श-आह्वान को आगे बढ़ाते हुए चर्चित आदिवासी एक्टिविस्ट लक्षीनारायण सिंह मुंडा का कहना है कि- 2023 के आंकड़ों के अनुसार ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest right act 2006) के तहत लाखों दावे अभी भी लंबित हैं, जो उनकी भूमि और संसाधनों पर अधिकारों को लागू करने में बाधा उत्पन्न कर रहा है। आदिवासी समुदायों के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे क्षेत्रों में उनकी पहुँच सीमित है। शिशु-मृत्यु दर और कुपोषण राष्ट्रिय औसत से भी अधिक है।

मौजूदा सरकारों की नीतियाँ आदिवासी हितों के खिलाफ काम कर रहीं हैं। ‘वन संरक्षण संशोधन अधिनियम (2023) ने वनभूमि पर आदिवासियों के अधिकारों को कमज़ोर किया है। क्योंकि वर्तमान शासन कॉर्पोरेट हितों को ही प्राथमिकता दे रहा है। आज भी पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में पेसा कानून का प्रभावी कार्यान्वयन नहीं हो सका है। 

उस पर से भाजपा संरक्षित कूड़मी-कुरमी समुदाय द्वारा एसटी का दर्ज़ा पाने की मांग ने आदिवासी समूहों के बीच तनाव पैदा किया है। यह आन्दोलन विशेष रूप से झारखंड समेत ओडिशा और पश्चिम बंगाल के इलाकों में लगातार सक्रिय है। इससे कई मूल आदिवासी समूहों द्वारा उनके संवैधानिक अधिकारों, राजनितिक प्रतिनिधत्व-हिस्सेदारी, ज़मीन और नौकरी पर कब्जा करने के रूप में देखा जा रहा है। इस विवाद ने आदिवासी समुदायों के बीच डर-आशंकाओं को जन्म दिया है। इसलिए यह समय केवल शुभकामनाएं देने का नहीं बल्कि आदिवासियों के साथ खड़े होकर उनके अधिकारों के लिए लड़ने का है। 

निस्संदेह, उक्त चिंताए काफी विमर्शकारी हैं। जो इस बात की ओर तो ध्यान दिलातीं ही हैं कि आज का आदिवासी समुदाय जिन गहन संकटों-चुनौतियों के सामने खड़ा होकर अकेले जूझ रहा है, समय रहते उनका समुचित समाधान, समग्रता में एक संप्रभुता संपन्न लोकतान्त्रिक राष्ट्र की जिम्मेवारियों से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। वर्तमान के आदिवासी समुदायों को इसे लेकर विशेष रूप से अपने एकजुट प्रयास बढ़ने होंगे। 

आदिवासी चिन्तक वाल्टर कंडूलना जी कि चिंताएं बेवजह नहीं हैं, कि आज के आदिवासी समुदायों, विशेषकर इसकी युवा पीढ़ी को तो इसके लिए तत्पर होना ही होगा। तभी तो ज़ोर देकर कहते हैं कि यह विशेष दिवस तुमसे पूछता है कि- क्या तुम सिर्फ नाचोगे-गाओगे या सवाल भी उठाओगे? यह दिवस सिर्फ आदिवासी गौरव का नहीं, आदिवासी प्रतिरोध का प्रतीक है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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