ख़बरों के आगे-पीछे: जारी है आपातकाल की 'शव परीक्षा'

विदेश मंत्री की यह कैसी भाषा?
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कुछ दिनों पहले यूरोप के देशों पर तंज करते हुए कहा था कि जब हम दुनिया की तरफ देखते हैं तो साझेदार ढूंढते हैं, उपदेश देने वाले नहीं। अब उन्होंने पड़ोसी देशों के लिए कहा है कि हमारे साथ रहोगे तो फायदा होगा वरना खामियाजा भुगतना होगा। जयशंकर विदेश मंत्री बनने से पहले भी लंबे समय तक विदेश सेवा में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं, लेकिन उनकी यह भाषा कूटनीतिक नहीं है बल्कि शुद्ध रूप से बदतमीजी और बड़बोलेपन की भाषा है, जो कि भाजपा के प्रवक्ता अक्सर इस्तेमाल करते हैं।
इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल अमेरिका पर हुए 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने किया था। अफगानिस्तान के खिलाफ हमले की तैयारी करते हुए जॉर्ज बुश ने कहा था कि दुनिया के जो देश अमेरिका के साथ नहीं हैं वे आतंकवादियों के साथ हैं। उन्होंने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था। वैसे समय में भी उनके इस बयान की आलोचना हुई थी। लेकिन अभी तो ऐसा कोई समय नहीं है लेकिन भारत के विदेश मंत्री ने कहा है कि जो पड़ोसी देश भारत से मिल कर नहीं रहेंगे उनको इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। विदेश मंत्री के हिसाब से सिर्फ एक पाकिस्तान है, जो भारत के साथ नहीं है। पता नहीं जयशंकर किस आधार पर बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, मालदीव, अफगानिस्तान आदि देशों को भारत के साथ मान रहे हैं? हकीकत यह है कि ये सारे देश भी चीन के असर में हैं और कम या ज्यादा भारत विरोधी रुख अख्तियार कर चुके हैं।
जस्टिस वर्मा पर एफआईआर क्यों नहीं हुई?
उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ बार-बार पूछ रहे हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से नोटों के बंडल मिलने के मामले में एफआईआर क्यों नहीं दर्ज हुई? पिछले दिनों कार्मिक, विधि और न्याय मंत्रालय की संसदीय समिति की बैठक में भी सदस्यों ने विधि सचिव से जानना चाहा कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं हुई? सवाल है कि क्या किसी को पता नहीं है कि एफआईआर क्यों नहीं हुई? या सबको पता है फिर भी मुद्दे को बनाए रखने के लिए बार-बार यह सवाल पूछा जा रहा है?
यह सामान्य ज्ञान की बात है कि 1991 में जस्टिस के. वीरास्वामी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यरत जजों को एफआईआर से संरक्षण देते हुए कहा था कि किसी कार्यरत जज के खिलाफ एफआईआर से पहले सुप्रीम कोर्ट की अनुमति लेनी होगी। इसका मकसद यह था कि जजों को भयमुक्त होकर काम करने का माहौल उपलब्ध कराया जाए। सामान्य ज्ञान की यह बात सबको पता होगी, इसीलिए जस्टिस वर्मा के मामले में जस्टिस वीरास्वामी फैसले की समीक्षा की भी बात कही जा रही है। पिछले दिनों जस्टिस वर्मा के खिलाफ बनी तीन सदस्यों की जांच समिति की रिपोर्ट सामने आई, जिसमें जजों की पूछताछ में पुलिस अधिकारियों ने बताया कि नकदी मिलने की खबर सबसे पहले गृह मंत्री अमित शाह को और उसके बाद चीफ जस्टिस को दी गई थी। सवाल है कि पुलिस को क्यों नहीं नियम के मुताबिक काम करने, नकदी जब्त करने और पंचनामा करने का आदेश दिया गया?
जारी है आपातकाल की शव परीक्षा
इस साल आपातकाल के 50 साल पूरे हुए हैं। पहले आपातकाल की बरसी को लोकतंत्र के लिए काला दिन कहा जाता था। आपातकाल के दौरान हुई सरकारी ज्यादतियों की कहानियां दोहराई जाती थीं, लेकिन इस बार 'संविधान हत्या दिवस’ का जुमला ज्यादा सुनाई दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कई बार यह जुमला दोहराया। पहले सरकार का इरादा इस मौके पर संसद का विशेष सत्र बुलाने का था, लेकिन कांग्रेस ने उसको पहलगाम कांड और ऑपरेशन सिंदूर से जोड़ दिया तो सरकार पीछे हट गई। उसे लगा कि अगर विशेष सत्र बुलाया तो इन मुद्दों पर भी चर्चा की मांग उठेगी और अगर चर्चा नहीं होने दी तो आपातकाल का नैरेटिव प्रभावित होगा।
बहरहाल, सवाल है कि इस साल 'संविधान हत्या दिवस’ का जुमला क्यों बोला गया? इसका कारण कांग्रेस का संविधान बचाओ अभियान है। पिछले साल के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संविधान बचाओ अभियान शुरू किया। वे हर जगह अपने हाथ में संविधान लेकर जाते हैं और जनसभा करते हैं। इस अभियान को 'जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ का नाम दिया गया है। कांग्रेस व दूसरी विपक्षी पार्टियां दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों को इस नाम पर एकजुट कर रही हैं। विपक्ष के इस अभियान को पंक्चर करने के लिए 'संविधान हत्या दिवस’ का शोर मचाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने संविधान की हत्या की थी और अब वह संविधान बचाने का ड्रामा कर रही है। इससे कांग्रेस के साथ उन पार्टियों की साख पर भी सवाल उठाया जा रहा है, जो आपातकाल के समय कांग्रेस के खिलाफ थीं।
दिल्ली में गड्ढे भरने का हास्यास्पद रिकॉर्ड
दिल्ली की भाजपा सरकार ने एक दिन में सड़कों के 3,433 गड्ढे भरने का रिकॉर्ड बनाया! इस खबर को क्या कहेंगे? सरकार के पास विजन की कमी या राजधानी दिल्ली के लोगों को मूर्ख बनाने की सोच? ऐसा नहीं है कि सरकार ने चुपचाप गड्ढे भर दिए। इसका बड़ा शोरशराबा रहा। इसके लिए दिल्ली के लोकनिर्माण मंत्री प्रवेश वर्मा खुद फावड़ा आदि लेकर सड़क पर उतरे। गड्ढे भरे जाते समय पूजा-पाठ आदि भी हुआ जैसे किसी परियोजना का भूमि पूजन होता है। कई दिन पहले से दिल्ली के अखबारों में इसकी खबरें छपवाई गईं। 24 जून को जब गड्ढे भरने का यह अभियान चल रहा था तो दिल्ली में चारों तरफ इसे देखा जा सकता था। गली, मोहल्लों में भी ऐसे गड्ढे खोज-खोज कर भर दिए गए और रिकॉर्ड बनाने का ऐलान कर दिया गया। 27 साल बाद दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने के बाद पिछले चार महीने में यह संभवत: सबसे बड़ी उपलब्धि है। जो काम रुटीन में होता है और चुपचाप चलता रहता है उसको अगर सरकार उपलब्धि बता कर या गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल होने लायक रिकॉर्ड बता रही है तो अंदाजा लगाइए कि अगर उसने नई सड़क बनाई या फ्लाईओवर वगैरह बनाया तो क्या होगा?
यह पता नहीं चल सका कि किसी जीनियस के दिमाग में यह आइडिया आया था, किसी नेता ने यह सुझाव दिया या किसी अधिकारी ने मजे लेने और मजाक बनवाने के लिए यह आइडिया दिया, जिस दिल्ली सरकार ने गंभीरता से अमल किया?
चुनाव से पहले मोदी की बिहार यात्राएं
चुनाव आयोग 15 सितंबर के बाद किसी भी समय बिहार विधानसभा के चुनाव की घोषणा कर सकता है। बताया जा रहा है कि उससे पहले यानी अगले ढाई महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 9 या 10 बार बिहार का दौरा करेंगे। बिहार के हर डिवीजन यानी संभाग में प्रधानमंत्री की एक सभा होगी। गौरतलब है कि बिहार में नौ संभाग हैं। हर दौरे में प्रधानमंत्री हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन करेंगे और उनकी जनसभा होगी। पिछली यात्रा में सीवान में कई परियोजनाओ का उद्घाटन और शिलान्यास किया। उससे पहले बिहार दौरे में उन्होंने पटना हवाईअड्डे के नए टर्मिनल का उद्घाटन किया और बिक्रमगंज में जनसभा की थी। बताया जा रहा है कि अगस्त में किसी दौरे में पटना मेट्रो के पहले चरण का उद्घाटन होगा। भाजपा के सूत्रों का कहना है कि भाजपा ने बिहार चुनाव को प्रधानमंत्री के चेहरे पर लड़ने का फैसला किया है।
गौरतलब है कि भाजपा ने साफ कर दिया है कि इस बार नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव तो लड़ा जाएगा लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया जाएगा। मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव के बाद होगा। यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री के आगे के सभी दौरों के लिए केंद्रीय मंत्री और जनता दल (यू) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को समन्वयक बनाया गया है। वैसे भी प्रधानमंत्री की पिछली सभाओं में भी भीड़ जुटाने का काम जनता दल (यू) के नेताओं ने ही किया है और आगे भी वे ही करेंगे।
फिर साथ आ सकते हैं भाजपा-अकाली
पंजाब की लुधियाना वेस्ट सीट पर हुए उपचुनाव का नतीजा भाजपा और अकाली दल की राजनीति को बदलने वाला साबित हो सकता है। इस सीट पर उपचुनाव बहुत अहम था क्योंकि आम आदमी पार्टी ने राज्यसभा सांसद संजीव अरोड़ा को उम्मीदवार बनाया था। अरोड़ा को 35 हजार से कुछ ज्यादा वोट मिले। उन्हें चुनौती दे रहे कांग्रेस के पूर्व मंत्री भारत भूषण आशु को 24 हजार से कुछ ज्यादा वोट मिले। भाजपा तीसरे स्थान पर रही। उसके उम्मीदवार जीवन गुप्ता को 20 हजार 323 वोट मिले। चौथे स्थान पर रहे अकाली दल के परूपकार सिंह घूमन को 8200 वोट मिले। अगर भाजपा और अकाली दल साथ मिल कर लड़ते तो संभव था कि उनका उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहता और उसकी हार महज सात हजार वोट से होती। इसीलिए इस नतीजे के बाद एक बार फिर भाजपा और अकाली दल के साथ आने की चर्चा शुरू हो गई है। अड़चन सिर्फ यह है कि भाजपा अब अपने को तीसरे नंबर की पार्टी के तौर पर देख रही है और अकाली दल के साथ बराबरी का समझौता चाहती है। अभी तक अकाली दल की भूमिका बड़े भाई की होती थी।
बहरहाल, दोनों पार्टियां अगर आपस में तालमेल का कोई फॉर्मूला बनाती हैं तो अगले चुनाव में त्रिकोणात्मक मुकाबला बन सकता है और तब किसी भी पार्टी की लॉटरी खुल सकती है। क्योंकि अकाली और भाजपा के साथ आने पर उनकी ताकत आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बराबर हो जाएगी।
सहकारिता में अजित पवार की धमाकेदार वापसी
महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार की ताकत दिन ब दिन बढ़ रही है। वे 40 साल के बाद सहकारिता की राजनीति में लौटे हैं। उन्होंने आखिरी बार 1984 में बारामती में सहकारिता का चुनाव लड़ा था। उसके बाद अब वे मालेगांव सहकारी चीनी मिल संगठन के अध्यक्ष का चुनाव लड़े और सभी 21 पदों के लिए उनका पैनल चुनाव लड़ा। उनका पैनल 20 पदों पर जीता है। वे अध्यक्ष पद का चुनाव लगभग 90 फीसदी वोट लेकर जीते। उनके चाचा शरद पवार ने अध्यक्ष पद के लिए तो उम्मीदवार नहीं उतारा था लेकिन बाकी पदों पर उनकी ओर से उम्मीदवार दिए गए थे। उनके पोते और पिछली बार अजित पवार के खिलाफ चुनाव लड़े युगेंद्र पवार को शरद पवार ने इस चुनाव में लगाया था। लेकिन उनका एक भी उम्मीदवार नहीं जीत पाया। एकमात्र उम्मीदवार जो अजित पवार के पैनल से बाहर का जीता है वह भाजपा का है। महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार को हाशिए पर पहुंचाने के बाद अजित पवार ने सहकारिता की राजनीति में भी चाचा को मात दी है।
हालांकि कई जानकार मान रहे हैं कि शरद पवार ने जोर नहीं लगाया। लेकिन सवाल है कि क्या वे अब जोर लगाने की स्थिति में रह गए है? उनकी शारीरिक और राजनीतिक दोनों सेहत काफी कमजोर हो गई है। सो, उन्होंने भले ही अभी अपनी पार्टी के विलय को रोक रखा है लेकिन देर सबेर उनकी पार्टी का विलय अजित पवार की पार्टी या कांग्रेस में होना ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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