तिरछी नज़र: उस नहीं, इस इमरजेंसी का भी विरोध है

मन कर रहा है इस बार इमरजेंसी पर कुछ लिखूं। आप कहेंगे, इमरजेंसी को गुजरे तो पचास साल बीत गए। अभी 25 जून को उसकी 50वीं वर्षगांठ मनाई गई थी। उस समय लिखते तो मौजूं रहता। पर मैं ना, लिखने के मामले में जरा दिव्यांग हूँ, दिक्कत होती है। अटक जाता हूं।
ऐसा व्यक्ति जरा देर में बोलता है। बोलता देर में है पर उसका नोटिस लिया जाता है। जब मैं छोटा बच्चा था, बड़ी शरारत करता था। नहीं, नहीं, मैं कोई अपनी और मगरमच्छ टाइप की कहानी सुनाने नहीं जा रहा हूँ। मैं तो स्कूल की बात बताना चाहता हूँ। हाँ, मैं तब स्कूल जाता था। चौथी कक्षा के बाद की ही बात है। उस समय मैं शायद पाँचवी में पढ़ता था। या फिर छठी में। मेरी कक्षा में एक बच्चा था जो अटक अटक कर बोलता था। वह पहले अक्षर पर अटक जाता था और बाकी का पूरा शब्द सब के बाद बोलता था। जब सुबह सवेरे क्लास टीचर कक्षा में प्रवेश करती थीं तो सभी बच्चे समवेत स्वर में बोलते थे, 'गुडमॉर्निंग मेम'। उसकी महीन आवाज सबसे बाद, सबसे अलग निकलती थी, 'मॉर्निंग मेम'। मैडम, किसी और के बारे में पूछें या ना पूछें, पर अगर वह अलग आवाज नहीं आती थी तो जरूर पूछती थीं, उसका नाम ले कर पूछती थीं, 'नरेंदर नहीं आया आज'! उसका नाम शायद यही था। हो सकता है कुछ और भी रहा हो। 'मेम, वह विदेश गया है'। वह विदेश बहुत जाता था। उसके पापा बहुत अमीर थे।
तो मैं आज इमरजेंसी पर लिख रहा हूँ। जिन्होंने इमरजेंसी पर लिखना था, लिख लिया। पच्चीस जून से उनतीस जून तक लिख लिया। पर मैं आज लिख रहा हूँ। लिख रहा हूँ, ताकि सनद रहे। ताकि मेरा भी विरोध दर्ज हो। सिर्फ उस इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं, इस वाली, आज वाली इमरजेंसी के खिलाफ भी दर्ज हो।
पचास साल पहले इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी। इमरजेंसी लगाई थी। 25 जून, 1975 को।1975 की घोषित इमरजेंसी। ये वो इमरजेंसी थी, जिसमें कम से कम इमरजेंसी का एलान तो हुआ था। एलान हुआ, प्रेस की गर्दन पकड़ी गई, नेताओं को जेल में डाला गया, नागरिक अधिकारों को बक्से में बंद किया गया और लोकतंत्र जैसे किसी और जमाने की वस्तु बन गई।
फिर इंदिरा जी ने 19 महीने बाद कहा, "ठीक है भई, बहुत हो गया। अब इमरजेंसी हटा देते हैं, चुनाव करा देते हैं।" और जनता ने भी कहा, "हाँ, बहुत हुआ, अब आप बैठ जाइए।" यह सब एक कायदे-कानून के भीतर हुआ था। संविधान के अनुसार हुआ था। यह आधिकारिक इमरजेंसी थी और हमने अभी हाल में ही इस घटना की पचासवीं वर्षगांठ मनाई है।
वर्षगांठ मनाई थी कि हमें याद रहे कि इतिहास में ऐसा कार्य भी हुआ था और हमें उसे दोबारा नहीं करना है। लेकिन वह इतिहास ही क्या जो अपने को दोहराये नहीं। इसीलिए तो कहावत है, 'इतिहास अपने को दोहराता है'। जब इतिहास अपने को दोहराता ही है तो फिर हम वर्षगांठ मनाते ही क्यों हैं। क्या यह याद रखने के लिए कि यह गलती हुई थी, इसे दोहराना नहीं है। नहीं, हम वर्षगांठ इसलिए नहीं मनाते हैं।
हम वर्षगांठ इसलिए मानते हैं कि हम इतिहास को दोहरायेंगे, लेकिन कुछ सबक ले कर दोहरायेंगे। पिछली बार हुई गलतियों से सबक लेकर दोहरायेंगे। और जब सबक मिले तो सीखना चाहिए भी। सीख तो जानवर भी जाते हैं, हम तो फिर भी मानव हैं और हममें से कुछ तो महामानव भी हैं। अब देखो, इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई, उन्नीस महीने के लिए लगाई। घोषित कर लगाई। फिर घोषणा कर हटा भी ली। इस बात से हमें क्या सबक मिला।
सबक मिला कि इमरजेंसी तो लगाओ। इमरजेंसी लगाओ पर उसकी घोषणा मत करो। बिना घोषणा के इमरजेंसी लगाओगे तो हटानी भी नहीं पड़ेगी। अरे भाई, जब लगाई ही नहीं तो हटाएं क्यों। और जब हटानी नहीं पड़ेगी तो बस चलती रहेगी। चलती ही रहेगी। दो साल, चार साल, आठ साल, दस साल, ग्यारह साल के बाद बारहवें साल भी, बस चलती ही रहेगी। जनता को पता भी नहीं चलेगा पर वह इमरजेंसी में ही रहेगी। इमरजेंसी में ही सोयेगी, इमरजेंसी में ही उठेगी। इमरजेंसी में ही खायेगी और इमरजेंसी में ही पीयेगी। इमरजेंसी ही भोगेगी। उसे तो इमरजेंसी की बस आदत ही पड़ जाएगी।
सरकार जी आये। आज वाले सरकार जी आये। उस इमरजेंसी से सबक ले कर आये। इमरजेंसी लगाई पर घोषणा नहीं की। अघोषित है तो चल रही है और लगातार चले ही जा रही है। उस इमरजेंसी में प्रेस थोड़े दिनों के लिए घुटनों पर थी पर आज पेट के बल रेंग रही है। उस समय जिन्हें जेल हुई, वे सब उन्नीस महीने बाद रिहा हो गए थे। जेल में खूब खाये पिये थे। जेल से निकल कर सरकार बनाए थे। उनमें से बहुत से आज भी उस समय जेल जाने की पेंशन पा रहे हैं। पर आज जो जेल में बंद हैं वे बस बंद ही हैं। उनके लिए जेल रूल है और बेल एक्सेप्शन। कब केस चलेगा, कब रिहा होंगे, किसी को पता नहीं है। कोई 2016 से जेल में है तो कोई 2018 से। किसी को जेल में पांच साल बीत गए हैं तो किसी को छह। वह इमरजेंसी तो खत्म भी हुई थी पर यह इमरजेंसी न जाने कब खत्म होगी। उस इमरजेंसी से बहुत अधिक खतरनाक है यह इमरजेंसी।
अब क्या करें? बस इंतज़ार करें
इस बार कोई घोषणा नहीं होगी – बस कभी अचानक सही से चुनाव होंगे और पता चलेगा कि सरकार बदल गई। तब हम भी कहेंगे – "अरे! आज तो इमरजेंसी खत्म हो गई!"
और फिर अगले साल से हम इस अघोषित इमरजेंसी की भी घोषित वर्षगांठ मनाएंगे।
याद रखने के लिए नहीं…
बल्कि याद दिलाने के लिए,
कि इस देश में लोकतंत्र अब भी कायम है।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।