कटाक्ष: अवार्ड तो लाने दो यारो!

भगवा भाइयों ने भी मोदी जी के विरोधियों को वो मुंह तोड़ जवाब दिया है कि पूछो ही मत। एक-एक गिनकर, साल-महीनावार पूरी लिस्ट बनाकर बता दिया है कि मोदी जी को परदेस में कब-कब, कहां-कहां और कौन-कौन से अवार्ड मिले हैं। और यह भी कि मोदी जी से पहले वाले प्रधानमंत्रियों को परदेस में कितने थोड़े अवार्ड मिले थे।
कोई तुलना ही नहीं है भाई साहब। परदेसी अवार्डों में पहले वाले, मोदी का पासंग भी नहीं बैठेंगे। जिन नेहरू जी का इतना शोर सुनते थे कि दुनिया पता नहीं उन्हें कितना मानती थी, कि दुनिया उन्हें गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पिताओं में गिनती थी, उन्हें दो, जी हां ठीक सुना फकत दो विदेशी अवार्ड मिले थे।
और जिन इंदिरा गांधी ने कहते हैं कि दक्षिण एशिया का नक्शा बदल दिया और अमरीका को अपने ठेंगे पर रखा, उन्हें भी ले-देकर सिर्फ दो विदेशी अवार्ड मिले थे।
और राजीव गांधी को तो एक भी विदेशी अवार्ड नहीं मिला, बोफोर्स की तोप की बदनामी और श्रीलंका में हमले के सिवा।
और अपने मोदी जी? सत्तर साल में भारत के सारे प्रधानमंत्रियों को मिलाकर भी जितने अवार्ड मिले होंगे, उससे कम से कम तीन गुना ज्यादा अवार्ड तो अब तक अपने मोदी जी की झोली में आ भी चुके हैं।
जी हां ठीक सुना, पूरे चौबीस-पच्चीस अवार्ड। और अवार्ड मिलने का सिलसिला न सिर्फ लगातार जारी है, बल्कि तेज से तेज ही होता जा रहा है। पांच देशों की आठ दिन की यात्रा पर निकले मोदी जी, घाना और ट्रिनिडाड-टोबैगो से, दो अवार्ड तो अब तक बटोर भी चुके हैं, जबकि तीन देशों का दौरा अभी बाकी ही है। फिर मोदी जी के तीसरे कार्यकाल का दूसरा साल तो अभी शुरू ही हुआ है। ग्यारह साल में पच्चीस यानी साल में सिर्फ सवा दो विदेशी अवार्ड का औसत रहे तब भी, तीसरे कार्यकाल के अंत तक मोदी जी, तीन दर्जन तक तो आंकड़ा पहुंचा ही देंगे।
उड़ती-उड़ती खबर तो यह भी सुनने को मिली है कि मोदी जी अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड बटोरने का विश्व रिकार्ड तो चालू विदेश यात्रा शुरू होने से बहुत पहले ही तोड़ चुके थे। सच पूछिए तो कोई कंपटीशन तो है ही नहीं। अब तो बस मोदी जी अपना रिकार्ड इतना बड़ा करने में लगे हुए हैं कि उसे बाद में कोई, कभी भी न तोड़ पाए।
अब इससे बढक़र इसका सबूत क्या होगा कि दुनिया भारत को विश्व गुरु और मोदी जी को विश्व सम्राट मान चुकी है। पर हमें पता है कि जलकुकड़े विरोधी अब भी नहीं मानेंगे। उल्टे वे तो मोदी जी के इतने सारे अवार्ड बटोरने का ही मजाक उड़ा रहे हैं। कह रहे हैं कि यह सम्मान पाना नहीं, यह तो अवार्ड वसूली है। मोदी जी छोटे-छोटे देशों को अपने दौरे के फायदे बताते हैं, फिर दौरे के लिए अवार्ड दिए जाने की शर्त लगाते हैं; इस तरह खोज-खोजकर ऐसे देशों से और ऐसे-ऐसे अवार्ड लाते हैं, जिनके नाम किसी ने सुने भी नहीं होते हैं।
लेकिन, यह सब झूठ है। चौबीस-पच्चीस अवार्ड की इस गिनती में मोदी जी ने कोटलर अवार्ड को तो गिना तक नहीं है। सुनते हैं कि पहला और आखिरी कोटलर अवार्ड किसी चालू हिंदुस्तानी ने ही मोदी जी को पकड़ा दिया था। मोदी जी की भी बात सही है, विदेशी नहीं, तो अवार्ड नहीं। वर्ना कौन सा देसी अवार्ड है जो खुद ब खुद मोदी जी के चरणों में आकर नहीं गिर गया होता। मोदी जी चाहते तो हर रोज अवार्ड लेते बल्कि दिन में तीन-तीन बार। दिन में जितनी पोशाकें, उतने अवार्ड। जो गिनती अब तक दर्जनों में ही पहुंची है, हजारों में पहुंच जाती।
इतने अवार्ड हो जाते, इतने अवार्ड हो जाते कि मोदी जी के नये बनने वाले महल में भी सजाकर रखने के लिए जगह कम पड़ जाती। बहुत से अवार्ड तो महल के कोनों में, ताखों पर, आलों में, शैया के नीचे पड़े रहते। राष्ट्रीय संग्रहालय की सभी दीर्घाओं में सिर्फ मोदी जी के अवार्ड रहते।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि मोदी जी चाहते ही नहीं हैं कि ऐसा कुछ भी हो। परदेसी अवार्डों के साथ, देसी अवार्डों की मिलावट मोदी जी नहीं चाहते। देसी अवार्ड में चुनाव की जीत ही काफी है! चुनाव आयोग छठे-छमाहे तो मोदी जी को यह अवार्ड भी देता ही रहता है। अभी फरवरी में दिल्ली में दिया था। अब साल के आखिर में बिहार में देने की पूरी तैयारी है। इसके लिए करोड़ों वोटरों को चाहे ‘हैं’ से ‘थे’ करना पड़ जाए, चाहे मतदाता सूचियों में कितनी ही काट-छांट करनी पड़ जाए, पर जीत का अवार्ड मोदी जी को ही दिया जाएगा। आखिर, देश की इज्जत तो चुनाव आयोग के ही हाथ में है।
मोदी जी को अगर जीत का अवार्ड भी नहीं दिया, तो दुनिया क्या कहेगी? जिसे खुद भारत वाले गद्दी का अवार्ड देने में हिचक रहे हों, उसे बाकी दुनिया विश्व गुरु का पद कैसे देगी!
बेशक, मोदी जी के विरोधियों का परदेसी अवार्डों में छोटे-बड़े की बात करना, जान-बूझकर मोदी जी के नये भारत को बदनाम करना है। वर्ना यह तो मोदी जी की महानता है कि वह परदेस के मामले में एकदम समदर्शिता बरतते हैं। दूसरे देशों के बीच छोटा-बड़ा नहीं देखते हैं। और अपने सामने छोटा-बड़ा तो खैर बिल्कुल ही नहीं देखते हैं। छोटे से छोटे देशों के, दूसरे-तीसरे नंबर के अवार्डों से भी उतना ही प्रेम करते हैं, जितना कोई और बड़े देशों के नंबर एक के अवार्डों का करता होगा।
जैसे भगवान प्रेम के भूखे बताए जाते हैं, मोदी जी बस विदेशी अवार्ड के भूखे हैं। छोटा-बड़ा नहीं देखते हैं, न देने वाले देश में और न मिलने वाले अवार्ड में। और क्यों देखें छोटा-बड़ा? आखिर, तमगा सोने का हो, चांदी का हो, पीतल का हो, मोदी जी कुछ न कुछ तो भारत में ला ही रहे हैं। हम तो कहेंगे कि भारत के गौरव के विरोधी हैं जो मोदी जी के अवार्डों को देने वाले देश के आकार या अवार्ड के क्रमांक के हिसाब से नापने की कोशिश करते हैं। मोदी जी पक्के जनतंत्रवादी हैं, उनका नजरिया एकदम स्पष्ट है; जब चुनाव में सारा महत्व संख्या का होता है, तो क्या विश्व सम्राट के चुनाव में अवार्डों की संख्या का ही महत्व नहीं होगा?
और बाकी कुछ चाहे हो या नहीं हो, विदेशी अवार्ड के मामले में तो मोदी जी ने गांधी-नेहरू परिवार को जोरदार तरीके से पीट ही दिया है, नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक। साथ में वाजपेयी और मनमोहन सिंह भी लपेटे में आ गए हैं, तो यह इतिहास की क्रूरता है। मोदी जी का अगर कोई कसूर है तो सिर्फ इतना कि वह भर-भरकर विदेशी अवार्ड ला रहे हैं।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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