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प्रस्तावना के बहाने संविधान के ख़िलाफ़ RSS-BJP का ‘युद्ध’ शुरू!

समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, अखण्डता…क्या ये सिर्फ़ शब्द हैं। नहीं यह संविधान की आत्मा हैं। और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट एक नहीं कई बार स्पष्ट कर चुका है। तो फिर बार-बार विवाद क्यों?
Controversy the preamble

पहले तिरंगे झंडे को नकारा, फिर संविधान को विदेशी कहा — अब उसी संविधान से उसकी आत्मा निकालने की कोशिश की जा रही है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को हटाने की बहस एक बार फिर तेज़ कर दी गई है। RSS इसकी शुरुआत करता है, बीजेपी के नेता-मंत्री इसे दोहराते हैं और उपराष्ट्रपति इसे आगे बढ़ाते हैं। इस तरह यह सरकार का विचार बन जाता है। 

आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा है– “समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान की मूल प्रस्तावना में नहीं थे, इन्हें हटाया जाना चाहिए।”

इसके तुरंत बाद  केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान आगे बढ़कर कहते हैं—“समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हमारे संस्कारों का हिस्सा नहीं हैं। इन पर पुनर्विचार हो।” 

असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा भी इसमें शामिल होते हुए कहते हैं कि संविधान की प्रस्तावना से इन शब्दों को हटाने का यही सही समय है। 

इसी बीच उपराष्ट्रपति भी बयान दे देते हैं। उपराष्ट्रपति भवन में एक कार्यक्रम के दौरान जगदीप धनखड़ कहते हैं–“आपातकाल के दौरान प्रास्तावना में जो शब्द जोड़े गए, वे नासूर हैं; सनातन की आत्मा के साथ किया गया एक अपवित्र अपमान है।”

“भारत की इस प्रस्तावना को 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत बदल दिया गया ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द जोड़ दिए गए।”

यानी एक बार फिर प्रस्तावना के बहाने सीधे संविधान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया गया है।

पहले जान लीजिए कि 1950 में लागू हमारे भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना में क्या लिखा है– 

“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: न्याय — सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक;

स्वतंत्रता — विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की;

समता — प्रतिष्ठा और अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिए;

तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

42वें संशोधन (1976) के बाद की प्रस्तावना:

हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए….

तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए…

अंतर क्या है?

42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा तीन शब्द जोड़े गए: समाजवादी (Socialist), पंथनिरपेक्ष (Secular) और अखंडता। 

(नोट- संविधान के हिंदी संस्करण में Secular के लिए पंथनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख है। इसे ही आम बोलचाल में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में बोला जाता है।) 

अब इन शब्दों में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन RSS-BJP को है। शुरू से है। 

यह RSS-BJP की दशकों पुरानी विचारधारा की नियोजित रणनीति का हिस्सा है, जिसका अंतिम लक्ष्य है — मनुस्मृति आधारित ‘हिंदू राष्ट्र’, जिसमें बराबरी, बहुलता, और सामाजिक न्याय के लिए कोई जगह नहीं।

2024 के आम चुनाव में मुहिम चलाई गई: अबकी बार–400 पार। कई नेताओं ने बयान दिए कि संविधान बदलने के लिए 400 सीटें ज़रूरी हैं। लेकिन विपक्षी इंडिया गठबंधन ख़ासकर राहुल गांधी ने इसे मुद्दा बनाया और संविधान हाथ में लेकर बीजेपी को सीधा ललकारा। बात नीचे आम जनता तक गई और बीजेपी अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी 400 पार तो क्या अकेले बहुमत लायक सीट भी नहीं पा सकी। और 240 पर अटक गई।  

बीजेपी को झटका लगा और संविधान बदलने की इस मुहिम पर कुछ ब्रेक लगा। हालांकि व्यवहारिकता में तो संविधान पर हर रोज़ ही हमला हो रहा है। किसी न किसी बहाने नागरिकों के मूल अधिकारों को कुचला जा रहा है। जनविरोधी नीतियां और क़ानून धड़ल्ले से लागू किए जा रहे हैं। लेकिन सीधे संविधान बदलने की बात पर ज़रूर कुछ रोक लगी। 

लेकिन मोदी-3.O का पहला साल बीतते बीतते, और आपातकाल की 50वीं बरसी के बहाने एक बार फिर संविधान की मूल भावना यानी प्रस्तावना बदलने की बात होने लगी। 

जब सरकार महंगाई, बेरोज़गारी, हादसों समेत आतंकी हमले और विदेश नीति के मोर्चे पर घिरी है और बिहार का चुनाव सामने है, अचानक आरएसएस का बयान आता है। दिलचस्प है कि इस बार हर बार की तरह आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत नहीं बोलते बल्कि सरकार्यवाह होसबोले बोलते हैं और फिर बीजेपी नेता-मंत्री शुरू हो जाते हैं। यह लेख छपते-छपते भी कई और नेताओं-मंत्रियों के बयान आ सकते हैं।

क्या यह संयोग है, नहीं। बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। 

और जो लोग इस मंसूबे पर शक करते हैं, उन्हें ज़रूरत है कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को ध्यान से देखने की–

तिरंगे से नफ़रत 

आरएसएस ने 1947 में भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को खुलेआम नकारा था।

उस समय के प्रमुख आरएसएस विचारक एमएस गोलवलकर ने लिखा था: "तिरंगा हमें कभी प्रेरित नहीं कर सकता... यह भारत का झंडा नहीं हो सकता।"

(संदर्भ: गोलवलकर की पुस्तक “Bunch of Thoughts”, और “Organiser” का 14 अगस्त 1947 का संपादकीय) 

आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर आज़ादी के बाद से 52 बरस तक तिरंगा नहीं फहराया गया। 

भारतीय संविधान को बताया ‘ग़ैर-भारतीय’

1950 में जब संविधान लागू हुआ, आरएसएस ने उसका स्वागत नहीं किया।

गोलवलकर और सावरकर के अनुयायियों ने कहा कि: “यह संविधान भारतीय मूल्यों का नहीं, पश्चिमी विचारधाराओं का दस्तावेज़ है।”

आरएसएस के मुखपत्र ‘Organiser’ ने लिखा: “भारत के संविधान में प्राचीन भारतीय संस्कृति का कोई उल्लेख नहीं है।” 

यह वही लोग हैं, जो आज बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लेकर उन्हीं के बनाए संविधान की मूल आत्मा में काट-छांट की वकालत कर रहे हैं। 

अभी हम दुनिया में कई युद्ध देख रहे हैं तो उसी शब्दावली में कहूं तो RSS-BJP ने संविधान के ख़िलाफ़ एक के बाद एक मिसाइल दाग़नी शुरू कर दी हैं। 

जबकि यह विवाद सुप्रीम कोर्ट से एक बार नहीं कई बार तय हो चुका है। 

सुप्रीम कोर्ट का नज़रिया

1973: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 

1973 में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा– संविधान में संशोधन हो सकता है, पर “मूल संरचना” नहीं बदली जा सकती।

1994: एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ

1994 में एस.आर. बोम्मई केस ने स्पष्ट किया: “Secularism is part of the Constitution’s basic structure.”

2024: डॉ. बलराम सिंह व अन्य बनाम भारत संघ

2024 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन याचिकाएं खारिज करते हुए कहा– “समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप हैं। इन्हें हटाने की मांग अस्वीकार्य है।”

यह याचिका स्वतंत्र याचिकाकर्ता डॉ. बलराम सिंह के साथ, बीजेपी नेता  और पूर्व सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और बीजेपी से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की थी। 

तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना व जस्टिस P.V. संजय कुमार ने इन याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए कहा– “Article 368 के तहत संसद प्रस्तावना को संशोधित कर सकती है—और संशोधन की शक्ति संविधान के मूल ढांचे पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाती।” 

“पंथनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का अंग है”—Bommai केस का संदर्भ

“इतने वर्षों बाद चुनौती देने का कोई औचित्य नहीं”—44 साल पुराना संशोधन सहमति और स्वीकृति पर आधारित

25 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने तीनों याचिकाएं खारिज कर दीं और प्रस्तावना का वर्णन वैध ठहराया। 

तो देखिए यह बहुत पुरानी बात नहीं है। छह महीने ही बीते हैं कि एक बार फिर प्रस्तावना के नाम पर संविधान के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया गया है। 

असली एजेंडा: मनुस्मृति की वापसी?

क्या यह सिर्फ शब्दों का खेल है? नहीं। 

पूंजीवादी समर्थकों को ‘समाजवाद’ से हमेशा से नफ़रत रही है। 

हिंदुत्ववादियों को ‘धर्मनिरपेक्षता/पंथनिरपेक्षता’ से नफ़रत है। वे चाहते हैं कि इसे हटाया जाए — ताकि भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित करने का वैचारिक रास्ता साफ़ हो।

संविधान के इन शब्दों से दलित, मुसलमान, आदिवासी, स्त्री, किसान, मज़दूर — सबके हक जुड़े हैं। इन्हें हटाना सिर्फ संविधान से नहीं, जनता से न्याय छीनने की कोशिश है।

इसलिए यह महज़ एक शब्द विवाद नहीं है। यह उस लड़ाई का हिस्सा है जिसमें आरएसएस और बीजेपी बार-बार भारत की आत्मा को बदलने की कोशिश करते हैं — और जब-जब इनका सच सामने आता है, ये बाबा साहेब की आड़ में छिपने की कोशिश करते हैं। 

 

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