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हिरोशिमा-नागासाकी के 80 साल: परमाणु युद्ध की विरासत से अब भी जूझता अमेरिका

इतिहासकार बेन बेकर ने लिबरेशन न्यूज़ में लिखा है कि हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी को द्वितीय विश्व युद्ध के अंत की तरह नहीं, बल्कि एक नए युद्ध और एक नई ऐतिहासिक युग की शुरुआत की तरह समझा जाना चाहिए।
Atom bomb testing
अमेरिका के Trinity परीक्षण स्थल पर विस्फोट के कुछ ही क्षणों बाद उठता हुआ मशरूम के आकार का बादल

 

इस वर्ष हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी परमाणु हमलों की 80वीं बरसी है — इतिहास की वह एकमात्र घटना जब किसी युद्ध में परमाणु हथियारों का प्रयोग हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम चरण में जापान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के प्रयास में अमेरिका द्वारा किए गए इन हमलों ने भयावह तबाही मचाई। हिरोशिमा (6 अगस्त) और नागासाकी (9 अगस्त) पर गिराए गए बमों ने कम से कम 2,10,000 लोगों की जान ले ली और जापानी आबादी पर दीर्घकालिक स्वास्थ्य और आनुवंशिक प्रभाव छोड़े।

आज भी अमेरिका वह अकेला देश है जिसने युद्ध में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किया है।

इतिहासकार बेन बेकर ने लिबरेशन न्यूज़ में लिखा है कि हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी को द्वितीय विश्व युद्ध के अंत की तरह नहीं, बल्कि एक नए युद्ध और एक नई ऐतिहासिक युग की शुरुआत की तरह समझा जाना चाहिए। बेकर का तर्क है कि इन हमलों के बाद से अमेरिका ने अपने विशाल परमाणु जखीरे का उपयोग दुनिया के अन्य देशों को धमकाने के लिए किया है। वे लिखते हैं— “परमाणु हथियार, जब पहली बार गिराया गया था, तभी से अमेरिकी साम्राज्यवाद का सैन्य और राजनीतिक औज़ार बन चुका है।”

मैनहटन परियोजना और पहली परमाणु परीक्षा

हिरोशिमा-नागासाकी और पूरे जापान पर कहर बनकर टूटे इन परमाणु बमों का विकास अमेरिकी सरकार की अगुवाई में मैनहटन प्रोजेक्ट के तहत हुआ, जो 1942 से 1946 के बीच सक्रिय रहा।

इस परियोजना की शुरुआत मुख्यतः इस डर से हुई थी कि नाज़ी जर्मनी कहीं पहले परमाणु बम न बना ले। 1939 में वैज्ञानिक लियो स्ज़िलार्ड ने अपने साथी हंगेरियाई वैज्ञानिकों एडवर्ड टेलर और यूजीन विग्नर के साथ मिलकर अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट के लिए एक पत्र तैयार किया। इस पत्र पर अल्बर्ट आइंस्टीन ने हस्ताक्षर किए थे। यह पत्र चेतावनी देता था कि नाज़ी जर्मनी परमाणु हथियार बना सकता है और अमेरिका को भी अपनी परमाणु रिसर्च तुरंत शुरू करनी चाहिए।

16 जुलाई 1945 को अमेरिका के न्यू मैक्सिको राज्य में, “ट्रिनिटी साइट” नामक स्थान पर दुनिया का पहला परमाणु परीक्षण किया गया। यह विस्फोट मैनहटन प्रोजेक्ट का ही हिस्सा था। लेकिन इस परीक्षण से उस क्षेत्र के हज़ारों निवासियों को गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। तुलारोसा बेसिन डाउनविंडर्स कंसोर्टियम (TBDC) के मुताबिक उस क्षेत्र के लगभग 30,000 लोगों में कई असामान्य प्रकार के कैंसर देखे गए। ये लोग आज भी न्याय की मांग कर रहे हैं।

तात्कालिक प्रभाव और प्रारंभिक विरोध

जापान पर अमेरिकी हमलों और लाखों नागरिकों की मौत के बाद पूरी दुनिया में आक्रोश की लहर उठी — और इसमें वे वैज्ञानिक भी शामिल थे जिन्होंने मैनहटन प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया था।

लियो स्ज़िलार्ड ने, जो अंततः इस परियोजना में शामिल हो गए थे, 1945 की गर्मियों में एक याचिका तैयार की जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन से जापान पर बम गिराने से रोकने की अपील की गई थी। इस याचिका में कहा गया था — “हम, हस्ताक्षरकर्ता वैज्ञानिक, परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में कार्यरत रहे हैं। अब जबकि जर्मनी हार चुका है, परमाणु हमले का खतरा टल चुका है। ऐसे में अगर अमेरिका यह कदम उठाता है, तो उसे ऐसी तबाही की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।”

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1955 के रसेल-आइंस्टीन घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें "सर्वनाश के जोखिम" की चेतावनी दी गई थी।

इस घोषणापत्र में ब्रिटिश दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने पूछा — “अब आपके सामने यह भयानक और टालने लायक नहीं रहने वाला सवाल है: क्या हम मानव जाति का अंत कर देंगे, या फिर युद्ध को हमेशा के लिए छोड़ देंगे?”

परमाणु हथियारों की होड़

हिरोशिमा के बाद अमेरिका ने तेजी से अपने परमाणु हथियारों के भंडार को बढ़ाया। 1949 तक अमेरिका के पास इस तकनीक पर एकाधिकार था, लेकिन उसी साल सितंबर में सोवियत संघ ने भी अपना पहला परमाणु परीक्षण कर लिया।

इसके जवाब में अमेरिका ने हाइड्रोजन बम विकसित किया — एक ऐसा परमाणु हथियार जो हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए गए बमों से हज़ार गुना अधिक शक्तिशाली था।

1967 में अमेरिका के पास अपने चरम पर 31,255 परमाणु बम और हथियार थे। आज दुनिया के 9 देशों के पास परमाणु हथियार हैं: रूस, अमेरिका, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, पाकिस्तान, भारत, इज़राइल और उत्तर कोरिया। 

फेडरेशन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट्स की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार इन देशों के पास कुल 12,331 परमाणु वारहेड्स हैं, जिनमें से 9,600 से अधिक सैन्य स्टॉकपाइल में सक्रिय हैं।

स्रोत: पीपल्स डिस्पैच

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

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