वैश्विक परिदृश्य: कुवैती प्रगतिशीलों का दृष्टिकोण

पूंजीवाद की बुनियादी प्रकृति
पूंजीवाद एक वर्गीय शोषण प्रणाली है जिसमें संपत्ति और संसाधन चंद बड़े पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित होते हैं, जबकि श्रमिक वर्ग और आम मेहनतकश – चाहे वे साम्राज्यवादी-पूंजीवादी केंद्रों में हों या पराधीन देशों में – शोषण, असमानता, अन्याय और आर्थिक-सामाजिक विभाजन के शिकार होते हैं।
पराधीन देशों में जनता साम्राज्यवादी प्रभुत्व और उनकी क्षमताओं, संसाधनों तथा भविष्य पर नियंत्रण के योजनाबद्ध लूट का सामना करती है।
पूंजीवाद का मूल अंतर्विरोध
पूंजीवादी व्यवस्था का केंद्रीय अंतर्विरोध पूंजी और श्रम – यानी पूंजीपति वर्ग बनाम श्रमिक वर्ग – के बीच होता है, विशेषकर साम्राज्यवाद के संदर्भ में। इसके साथ-साथ यह अंतर्विरोध तीन अन्य रूपों में भी उभरता है:
- साम्राज्यवादी पूंजीवाद बनाम पराधीन देशों की जनता
- साम्राज्यवादी पूंजीवाद बनाम समाजवादी झुकाव वाले देश जैसे चीन और क्यूबा
- राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की भूमिका
राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन साम्राज्यवादी पूंजीवाद के विरुद्ध जनसंघर्ष की एक केंद्रीय शक्ति हैं, जो साम्राज्यवादी नियंत्रण से मुक्ति, निर्भरता तोड़ने, राजनीतिक-सांस्कृतिक संप्रभुता पाने और स्वावलंबी, न्यायसंगत, स्वतंत्र विकास मार्ग चुनने के प्रयासों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
दरअसल, पराधीन देश उस शृंखला की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं, जिसे तोड़कर साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था पर हमला किया जा सकता है – जैसे 20वीं सदी की शुरुआत में रूस इस कड़ी में सबसे कमज़ोर हिस्सा था, जहां से समाजवादी क्रांति की शुरुआत हुई थी।
प्रगतिशीलों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को वैश्विक समाजवादी मुक्ति संघर्ष से जोड़ें।
पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था का संरचनात्मक संकट
आज की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी प्रणाली एक गहरे संरचनात्मक संकट से गुजर रही है। यह केवल आर्थिक चक्रों में आने वाले मंदी जैसे अस्थायी संकट नहीं हैं, बल्कि उत्पादन के ढांचे, वितरण की प्रणालियों, राज्य की भूमिका और संगठित हिंसा के औजारों तक फैला संकट है।
यह संकट उस वैश्वीकृत एकाधिकारवादी पूंजीवाद का तार्किक परिणाम है, जो इतनी केंद्रीकृत और ध्रुवीकृत हो चुकी है कि सामाजिक पुनरुत्पादन (social reproduction) बिना विनाशकारी परिणामों के संभव नहीं रह गया है।
यह संकट जिन पहलुओं से और तीव्र हो रहा है, वे हैं:
- प्रमुख साम्राज्यवादी शक्ति (अमेरिका) का सापेक्ष पतन और बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ता विश्व संतुलन
- युद्धोन्मुख प्रवृत्तियों में तेज़ी
- साम्राज्यवादी केंद्रों में "बुर्जुआ लोकतंत्र" का संकट: जनभागीदारी में भारी गिरावट, चुनावों से दूरी
- दक्षिणपंथी जनवाद (Right-Wing Populism) का प्रसार
- वर्गीय शोषण और सामाजिक अन्याय की वृद्धि
- महंगाई, वेतन कटौती, बेरोजगारी और पेंशन संकट से उपजा व्यापक निर्धनता और हताशा
- प्रवासियों और शरणार्थियों की आमद, जो साम्राज्यवादी केंद्रों की उपनिवेशी विरासत का नतीजा हैं
- स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण व बाज़ारीकरण से उपजा जनदु:ख
- भूख, जलवायु संकट, ऊर्जा संकट और जल संकट से मानव अस्तित्व को खतरा
वस्तुओं की अधिक उत्पादन की समस्या अब मुद्रा और हथियारों की अधिकता के संकट में बदल चुकी है – जिसे आसानी से खपाया नहीं जा सकता
- वास्तविक उत्पादन की जगह वित्तीय क्षेत्र और "कल्पित अर्थव्यवस्था" का वर्चस्व
- वैश्विक ऋण बोझ और कर्ज संकट की भयावहता
- संकट चक्रों के बीच की अवधि में लगातार कमी
साम्राज्यवादी संचय की यह तर्कबद्ध प्रक्रिया एक ऐसा वैश्विक ढांचा रचती है जिसमें:
एक ओर केंद्र देश हैं जो लाभ का संचय करते हैं, और दूसरी ओर वे परिधीय देश जो लगातार अधीनता और शोषण के चक्र में फंसे रहते हैं।
इस अधीनता की प्रक्रिया न केवल राजनीतिक सहमति का नतीजा है, बल्कि वैश्विक व्यवस्था की वह संरचना है जिसे सैन्य शक्ति, कर्ज और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से थोपा गया है।
पराधीन देशों में पूंजीवाद कोई राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग नहीं गढ़ता, बल्कि वह ‘कम्प्राडोर’ वर्ग पैदा करता है – यानी वे दलाल जो इस अधीनता की संरचना को बनाए रखने का काम करते हैं।
साम्राज्यवादी प्रभुत्व का पतन और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय
सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका द्वारा थोपी गई एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था अब स्पष्ट रूप से ढहती दिख रही है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद अब न तो भीतर और न ही बाहर अपने वर्चस्व को पहले जैसी ताक़त से लागू कर पा रहा है:
भीतर से:
- गहन वर्गीय विषमता
- संस्थागत जड़ता
- नस्लवाद का उभार
- नैतिक और सांस्कृतिक विघटन
बाहर से:
- चीन, रूस जैसे शक्तियों की चुनौती
- दुनिया के कई हिस्सों में साम्राज्यवादी वर्चस्व का प्रतिरोध करने वाले जनांदोलन और मुक्ति संघर्ष
इन सभी कारकों ने पश्चिमी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाली वैश्विक वित्तीय और व्यापारिक व्यवस्था की नींव को हिला दिया है और एक नई बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की मांग को बल दिया है।
लेकिन यह बहुध्रुवीयता स्वतः एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की ओर नहीं ले जाती।
यदि राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और जनपक्षधर ताकतें अपनी संप्रभुता आधारित, स्वावलंबी और सामाजिक न्याय से युक्त विकास की परियोजनाएं नहीं खड़ी करतीं, तो बहुध्रुवीयता भी महज़ शक्तियों के पुनर्वितरण तक सीमित रह जाएगी।
(लेखक उसामा अल-अब्दुलरहीम — कुवैती प्रगतिशील आंदोलन के महासचिव और तक़द्दुम (Taqadoom) मंच के चीफ़ ए़डिटर हैं।)
सौजन्य: People’s Dispatch
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं--
Global Situation: The Perspective of Kuwaiti Progressives
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