कहां गए जनता के शायर: क्या शायर आज़ाद नहीं?

आख़िर क्या हो गया है शायरों को? उनकी शायरी आज़ाद क्यों नहीं है? क्यों अब उनकी शायरी में वो इनक़िलाबी जज़्बा नहीं मिलता जो उनकी धरोहर है? ऐसा तो नहीं है कि समाज से शायरी मिट चुकी है। हिंदी और उर्दू में आज भी सूफ़ियाना शायर हैं, छायावाद के मतवाले हैं, ग़म-ए-जानाँ से लेकर ग़म-ए-रोज़गार तक हर मौज़ू पर तबा-आज़्माई करने वाले, सुरीली आवाज़ों में साज़ छेड़ने वाले मौजूद हैं। फिर इनक़िलाबी शायरी का नाम-ओ-निशान क्यों नहीं मिलता?
ज़रूरी नहीं कि हर शायर इनक़िलाबी शायरी का हामिल हो। और ये भी ज़रूरी नहीं कि इनक़िलाब की परिभाषा हर शायर के लिए एक-सी हो। पर कम-से-कम एक समाज के कवियों में वो जज़्बा तो पाया जाना चाहिए जिसमें क्रांति के असारात दिखाई पड़ें। हमारे समाज में हर तरह के शायर हैं, पर क्रांतिकारी शायर हाशिए पर ही ढूँढने पड़ते हैं। जनता के शायर कम, बेहद कम हो गए हैं। मंचों पर उनकी जगह नहीं। उनके काम को यूँ तो नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है, मगर जब किसी सामाजिक मुद्दे पर कोई इश्तेहार बनाकर अपना सामान बेचना हो तो उनकी शायरी बिना इजाज़त के उठा ली जाती है। क्या किसी मक़बूल शायर के साथ कोई ऐसा करने की हिम्मत करेगा?
मेरी शिकायत हिंदी और उर्दू ज़बानों के शायरों से है। इसलिए कि ये दोनों ज़बानें मेरी मादरी ज़ुबान हैं। बल्कि इनकी व्याकरण इस हद तक एक है, कि सिवाए लफ़्ज़ियात की दीवारों के, ये दोनों ज़बानें मुझे एक ही दिखाई देती हैं। हम कब तक अपनी ज़बानों के पतन पर रोते रहेंगे? क्या उर्दू का जश्न मनाने के लिए रेख़्ता जैसा विशालकाय अदबी जलसा हर साल नहीं मनाया जाता? क्या हिंदवी के जलसे नहीं होते? क्या इनमें आए दिन लोगों की तादाद बढ़ती नहीं चली जा रही है? हम कब तक इन ज़बानों के मन-गणित पतन की कहानी सुन-सुनाकर रोते रहेंगे? दरअस्ल इनके पतन की वजह अगर कुछ है तो वो यही है कि हमने अपनी ज़बानों की इनक़िलाबी मीरास को संजो कर नहीं रखा। जिस ज़बान से सामाजिक कल्याण की भावना, हक़ की हिमायत और ख़ून से दी हुई गवाही लुप्त होने लगे, उस ज़बान में न हिज्र की तड़प का इज़हार हो सकता है और न प्यार के सोज़-ओ-गुदाज़ का।
दो साल से ज़्यादा बीत गए और फ़िलिस्तीनियों पर ज़ुल्म रुकता हुआ नज़र नहीं आता। सूडान, लेबनान, सीरिया जैसे कितने और मुल्कों की तबाही की ख़बरें हम देख चुके, लेकिन आज भी हमारी ज़बानों की मक़बूल शायरी में इन विषयों का, इन कल्पनाओं का कोई असर, कोई ज़िक्र नहीं दिखता? हिंदुस्तान की पूरी आबादी या तो इन मुल्कों से धार्मिक ताल्लुक रखती है या तो ऐतिहासिक नज़दीकियाँ रखती है। फिर भी, क्या आज कोई भी ताक़त ऐसी नहीं है जो हमारे अंदर की बुझी हुई शम्में जला सके?
हर ज़माने का अदब उस ज़माने का आईना होता है। विक्टोरियन साहित्य पढ़ के उस ज़माने का पता लगता है। विभाजन का साहित्य विभाजन की दहशत भूलने नहीं देता। आज़ादी की जंग के ज़माने का अदब उस ज़माने की फ़िज़ा को आंख के सामने ताज़ा कर देता है। क्या आज वो शायरी की जा रही है जो आज से एक सदी बाद हमारे बच्चों को इस ज़माने की ख़बर देगी? ख़बर तो ज़रूर मिलेगी—यही ख़बर कि हिंदी-उर्दू के शायर इक्कीसवीं सदी में भी वो बातें नहीं कह पाए जो उनसे पहले आए लोगों ने उनसे सख़्त मरहलों का सामना करके कहीं थीं।
यक़ीनन ये दौर सख़्त दौर है। पाबंदियों का दौर है। जेल में डाल देने का दौर है। यक़ीनन हर दौर में दुनियावी हालात यूं नहीं होते कि सच्चाई की इक-तरफ़ा जीत हो। ऐन मुमकिन है कि इन दो सालों में अगर कवियों का ज़मीर बेदार हो भी जाता तो भी फ़िलिस्तीन की तबाही में, न ही सूडान की ग़ुलामी में, न ही किसी और ज़ुल्म में कोई भी तब्दीली नज़र आती। मगर क्या ये भी नहीं हो सकता था कि इन मुल्कों के जद्द-ओ-जहद से हमारे दिल अपने घरों की लड़ाइयाँ लड़ने को मज़बूत हो जाते? क्या मौत के बीच जी रहे लोगों के जज़्बे से हमने कुछ भी नहीं सीखा? क्या हम ये मानते हैं कि इन सब से कुछ भी सीखने लायक नहीं है?
यक़ीनन ये ज़माना बरबरता के ज़ोर-ओ-शोर का ज़माना नज़र आता है। मगर क्या हालात उन दिनों से भी बुरे हैं जब हमारा देश अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था? क्या हालात 1857 की हार से भी बुरे हैं? क्या जंग-ए-आज़ादी से भी ज़्यादा हमारी कमर टूट चुकी है? क्या हालात फुले और आंबेडकर के संघर्ष से भी बुरे हैं? क्या हालात उस दिन से भी बुरे हैं जब गुरु गोबिंद सिंह के चार बेटे शहीद कर दिए गए थे? क्या हालात श्री राम और सीता जी के चौदह साला वनवास से भी ख़राब हैं? क्या ख़तरा मसीहा के सलीब से भी ज़्यादा वहशतनाक है? क्या हम पर चीज़ें कर्बला वालों से भी ज़्यादा सख़्त कर दी गई हैं?
उर्दू और हिंदी हाशिये की ज़बानें नहीं हैं। ये ज़बानें कई लोकभाषाओं के मिलन से वजूद में आई हैं और इनकी व्याकरण नफ़ीस है, और इनके बोलने और समझने वाले पढ़े-लिखों में शुमार होते हैं—यानी वो तबक़ा जिसे मोटे तौर पर सामाजिक एलीट्स कहा जा सकता है। इनमें लिखने वाले कई अदीब मक़बूलियत-याफ़्ता हैं। इन ज़बानों की ज़िम्मेदारी है कि उन आवाज़ों में अपनी आवाज़ मिलाएँ जो जन-साधारण से उठती हैं। हिंदुस्तान ख़ुद उस पड़ाव पर है जब चुप रहना अपने देश की बर्बादी देखने के बराबर है। अब ये किसी एक सरकार की बात नहीं रह गई है। हद तो ये है कि हमारे सामने अपने ही इलेक्शन कमीशन के द्वारा वोटों की चोरी की ख़बर खोली गई है और हमारा ख़ून खौल कर हमारी खालें चीरे नहीं दे रहा है। क्या हम एक पिछड़ा हुआ समाज बनकर रह जाएँगे? वो समाज जिसके लोगों को सिवाय अपने घर-परिवार और अपनी ज़ाती ज़िंदगी के किसी और की कोई परवाह नहीं है? वो समाज जो दूसरों पर हो रहे जब्र को नज़रअंदाज़ करता रहता है क्योंकि ये उसका ज़ाती मसला नहीं है? तब क्या होगा जब जब्र होने के लिए सिर्फ़ हम बचेंगे? क्या तब हमारे लिए कोई बोलने वाला बाक़ी रहेगा?
यक़ीनन उर्दू और हिंदी में बहुत से शायर हैं जो सामाजिक एलीट्स हैं। और यक़ीनन वो अपने काम में कोताही कर रहे हैं। क्या हम अपनी विरासत को भूल चुके हैं? क्या हमारे पास वो इस्तिआरे, वो इमेजरीज़, वो विषय बाक़ी नहीं हैं जिनसे सही को सही और ग़लत को ग़लत बोला जा सके? क्या इक़बाल ने ग़ज़ल ही के अंदर हर तरह के सियासी और फ़लसफ़ी पहलुओं को बाँध कर हमें नहीं दिखाया? क्या फ़ैज़ ने क्लासिकी फ़ारसी शायरों के इस्तिआरों को इनक़िलाबी इमेजरीज़ में बाँध कर हमारे सामने नहीं रखा? क्या दिनकर ने महाभारत अपने रंग में सुना कर हमारे विचारों को उड़ान नहीं बख़्शी? क्या बृज नारायण चकबस्त, जोश, मजरूह, अली जौहर, हसरत मोहानी, इस्मत चुगताई, महादेवी वर्मा, प्रेमचंद—सामाजिक हैसियत नहीं रखते थे? क्या इनके पास भी हमारी तरह खोने को लाखों चीज़ें नहीं थीं? क्या इन्होंने जनसाधारण की परेशानियों को अपनी आवाज़ से परवाज़ नहीं चढ़ाया?
शायरी अपने आप में इनक़िलाब नहीं ला सकती, ये सच है। समाज को भी इतना ज़िंदा और मज़बूत होना पड़ेगा। और समाज बनता-बिगड़ता रहता है, और इसी बनने-बिगड़ने के बीच धीरे-धीरे और ऊँची बौद्धिक सतहों पर अपने घर बनाता रहता है। और ये शायद तब तक होता रहेगा जब तक एक आख़िरी इनक़िलाब नहीं आ जाता। मगर कम-से-कम आर्टिस्टों को तो हर दौर में क़दम ऊपर बढ़ाते रहना चाहिए, ताकि जब ज़माना बेदार हो, और उसके दिल हक़ की आवाज़ बुलंद करने के लिए मज़बूत हों, तो उसके पास शायरी का वो ज़खीरा मौजूद हो जिससे वो अपनी आवाज़ और अपने नारों में दम भर सके। समाज को वो ज़खीरा माज़ी के खंडहरों में तलाश न करना पड़े।
मैं फिर कहता हूँ कि हर शायर का इनक़िलाबी होना ज़रूरी नहीं है। शायरी किसी एजेंडे के तहत नहीं की जा सकती। मगर एक मुकम्मल समाज के लिए ज़रूरी है कि उसमें हर तरह की शायरी हो। हमारी धरोहर बड़ी है, पर हम उससे दूर—बहुत दूर होते चले जा रहे हैं, जबकि हमें सिर्फ़ उसकी कमियों से दूर और उसकी खूबियों के क़रीब होना चाहिए। हमारी शायरी मुकम्मल नहीं है। बाक़ी रहने के लिए इसे मुकम्मल होना पड़ेगा। अपनी आँखें खोलनी पड़ेंगी।
हमें डर-डर के ही सही, वो शायरी न सिर्फ़ करनी होगी, बल्कि सुनानी होगी, जिसमें उस ज़िंदगी का असल दर्द हो, जो ज़िंदगी दुनिया में लोग जी रहे हैं। यक़ीनन एक शायर का दिल इससे अछूता नहीं रहता, बल्कि वो जान-बूझकर अपनी आँखें बंद करता है। क्या हम अपने देश की ज़मीनें बर्बाद होते हुए नहीं देख रहे? कितने दशक बीत गए कि आदिवासियों की ज़मीनों पर सरकारी बाहुबलियों का क़ब्ज़ा होता रहा। पवित्र नदियाँ नालों से भी गंदी हो गईं। अब बारी देश के मुसलमानों की है। जब उनकी ज़मीनें नहीं बचेंगी तो शायद सिखों की बारी आए, फिर किसी और की, फिर आख़िर में देश के हिंदुओं की। जब मादा-परस्ती इस क़दर हमें बर्बाद कर चुकी होगी, तब भी क्या हमारे पास दम बचेगा कि हम सूफ़ीवाद, भक्ति के गीत रचें और गायें? जब हमारे जंगल, हमारी नदियाँ, हमारे पहाड़ तहस-नहस हो चुके होंगे, तब भी क्या हम छायावादी कविताएँ लिख पाएँगे? जज़्बा-ए-इनक़िलाब वो चीज़ है जिससे हर दूसरी चीज़ की बक़ा है। लोग ज़मीनों पर वो लड़ाई लड़ रहे हैं और अपनी भाषाओं में अपने गीत लिख रहे हैं।
हमारा भी फ़र्ज़ है कि इस लड़ाई में भागीदार हों। हमारे पास मंच हैं, मौक़े हैं, हमें सुनने वाले कई हैं। हमारा फ़र्ज़ है कि हम बोलें। यक़ीनन वो इनक़िलाब ज़िंदा रहे हैं जिनमें हर तबक़े की क़ुर्बानी शामिल रही हो। कई आर्टिस्ट और शायर ये क़ुर्बानियाँ दे रहे हैं, उन्हें कोई फ़िलहाल जाने या न जाने। मगर कई और क़ुर्बानियाँ बाक़ी हैं।
(लेखक पेशे से डाटा विश्लेषक और रुचि से साहित्य के विद्यार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। आपसे इस ई-मेल पर संपर्क किया जा सकता है– alyasa.abbas@gmail.com
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