तिरछी नज़र: 'शोले' पर भी संसद में बहस हो जाये सरकार-जी!
'वंदे मातरम' पर संसद में दस घंटे की बहस हुई। 'वंदे मातरम' की एक सौ पचासवीं वर्षगांठ जो थी। साथ ही मैंने कहीं यह भी पढ़ा है कि राज्य सभा में कुछ और नारों के साथ वंदे मातरम का नारा लगाने पर भी रोक लगा दी गई है। लगता है राज्य सभा में अब बस एक ही नारा लगा सकते हैं और वह है "मोदी! मोदी!" उस पर शायद कहीं कोई रोक नहीं है!
हाँ तो वंदे मातरम पर दस घंटे बहस हुई। बहस यह हुई कि 'वंदे मातरम' गीत के मात्र पहले दो पैरा जिन लोगों ने राष्ट्रगीत के रूप में रखे वे लोग मुस्लिम परस्त थे, देशद्रोही थे। मुस्लिम तुष्टिकरण करना चाहते थे। क्योंकि वे लोग भाजपाई नहीं थे, आरएसएस के नहीं थे, हिन्दू महासभा के नहीं थे तो वे लोग देशद्रोही थे। जो काम भी बीजेपी, आरएसएस, हिन्दू महासभा या जनसंघ ने नहीं किया है, वह देशद्रोह है, ऐसा पिछले दस सालों से स्थापित किया जा रहा है।
चलो मान लेते हैं, आप जो कहते हैं, वह ठीक है। गुरुवर रविंद्र नाथ टैगोर ने, नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने, लौह पुरुष सरदार पटेल ने और जवाहर लाल नेहरू ने जो किया, ठीक नहीं किया। राष्ट्रगीत में वंदे मातरम के पहले दो पैराग्राफ ही रख कर ठीक नहीं किया। पूरे के पूरे छह छंद रखने चाहिए थे। ये सारे लोग देशद्रोही थे। देशभक्त तो सिर्फ भाजपाई हैं और उनके पूर्वज हैं।
यह जो संसद में वंदे मातरम पर बहस हुई, उसमें हमारे सदन अध्यक्ष को एक शर्त रखनी चाहिए थी। जो लोग वंदे मातरम में छह के छह छंद रखना चाहते हैं वे बिना पर्चियों के सहारे सारे छंद मुँह जुबानी सुनाएंगे। टेलीप्रोम्पटर वीर को भी बहस की शुरुआत वंदे मातरम के पूरे छह छंद सुना कर करनी चाहिए थी। दल के बाकी सदस्य भी पहले पूरा वंदे मातरम सुनाते और फिर अपनी बात रखते। मजा आ जाता सचमुच।
संसद के मौजूदा शीत सत्र में अभी पांच दिन बाकी हैं। कुछ बेकार की बहसें नहीं होंगी तो लोग बेरोजगारी पर बात करेंगे, महंगाई पर बात करेंगे, रुपये की गिरती कीमत पर बात करेंगे। इंडिगो संकट पर बात करेंगे, चीन के बढ़ते प्रभुत्व पर बात करेंगे और अमेरिकी टैरिफ पर बात करेंगे। दिल्ली के मौसम के मजे और प्रदूषण की बात करेंगे। काम की बातें न करके बेकार की बात करेंगे। और सांसद बेकार की बातों में न उलझें, उसके लिए जरूरी है कि संसद के हर सत्र में दो चार इसी तरह की बहस हों। ऐसी बहस हों कि पूरे देश का ध्यान उसकी ओर खिंच जाये।
एक बहस तो मैं सुझा सकता हूँ। मेरी गारंटी है लोग उसे ध्यान से सुनेंगे और अपने सारे दुख दर्द, जो सरकार जी के ग्यारहवें साल के शासन काल के बाद भी बाकी हैं, भुला देंगे। सरकार जी 'शोले' फ़िल्म पर बहस करवा दें। देख लेना, कितनी सफल होगी।
शोले फ़िल्म पर बहस हो इसकी कई वजह हैं। पहली तो इस वर्ष शोले फ़िल्म के रिलीज़ के पचास वर्ष पूरे हुए हैं। दूसरी, शोले एक कल्ट फ़िल्म है जिसने अपार सफलता प्राप्त की थी। लोगों को वंदे मातरम का सूजलाम सुफलाम याद हो या ना हो, शोले फ़िल्म के कई डायलॉग अभी तक याद हैं। और इस फ़िल्म के बहाने नेहरू और कांग्रेस, दोनों को घसीटा जा सकता है। आप कहेंगे कैसे, तो मैं समझाता हूँ।
पहली बात तो गब्बर सिंह का जन्म 1950 में हुआ था और शोले के निर्देशक रमेश सिप्पी जी का जन्म 1947 में। पर नेहरू ने शोले फ़िल्म को अपने जीवन काल में नहीं बनने दिया। इंदिरा गांधी ने भी शोले फ़िल्म को तब तक नहीं बनने दिया जब तक गब्बर सिंह पच्चीस साल का नहीं हो गया, उसने अपनी पत्नी को नहीं छोड़ दिया और परिवार छोड़, बीहड़ में जा कर रहने लगा। फिर भी इंदिरा गांधी ने गब्बर सिंह की कहानी को, सॉरी शोले की कहानी को कहीं का नहीं छोड़ा। असल कहानी में गब्बर सिंह ठाकुर, वीरू और जय, तीनों को मार कर अपने मोटे वाले साथी के साथ रामगढ़ पर राज करता है। पर इंदिरा गांधी ने ठाकुर और वीरू को जिन्दा रखा और गब्बर सिंह को साथियों सहित गिरफ्तार करवा दिया।
यूँ तो शोले फ़िल्म के बहुत से डायलॉग फेमस हैं… लोगों की जुबान पर अभी तक हैं। जैसे, 'तेरा क्या होगा कालिया', 'तेरा नाम क्या है बसंती', 'कुत्ते के आगे मत नाच बसंती', 'मैंने आपका नमक खाया है सरकार, तो अब गोली भी खा',और भी बहुत सारे। पर एक डायलॉग बहुत प्रसिद्ध हुआ था, जो गब्बर सिंह बोलता है, 'कितने आदमी थे'? उसका सही उत्तर गब्बर सिंह को अभी तक नहीं मिला। अब जब गब्बर सिंह जेल से बाहर आ गया है तो सरकार जी कितने आदमी थे का सही उत्तर जानने के लिए एसआईआर करवा रहे हैं। इसलिए भी जरूरी है कि संसद में शोले पर बहस हो।
संसद में वंदे मातरम पर, शोले फ़िल्म पर और इस तरह के तमाम विषयों पर एक उत्तेजक बहस हो, यह इसलिए जरूरी है जिससे कि चुनावी धांधली, रुपये का गिरना जैसे बेकार के सामयिक विषयों पर बहस न हो पाए और न ही महंगाई, बेरोजगारी, कानून व्यस्था, पर्यावरण जैसे शाश्वत विषयों पर। संसद का सारा समय और जनता का सारा पैसा बेकार के विषयों पर बर्बाद न हो जाये।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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