तिरछी नज़र: हमारा स्ट्रॉन्ग पासपोर्ट और हमारी इंग्लैंड यात्रा

छुट्टियों के बहाने हमने भी सोचा चलो कुछ दिन अपने इस विकासशील देश की बजाय किसी 'विकसित' देश की हवा खा ली जाए। छोटा बेटा और भांजी इंग्लैंड में हैं तो सपत्नी इंग्लैंड जाने की ठान ली। अब भला जब हमारे पास भारत का 'मजबूत' पासपोर्ट है, तो यात्रा में क्या ही दिक्कत हो सकती है! यह सोचकर ही छाती तीन इंच और चौड़ी हो गई थी। छत्तीस से उनचालीस इंच की हो गई। छप्पन इंच की फिर भी नहीं हो पाई। वैसे भी छप्पन इंच की छाती तो मानव की नहीं, ‘महामानव’ की हो सकती है और हम ठहरे निरे मानव।
नहीं, नहीं, भाई! वीसा मिलने में कोई समस्या नहीं हुई। सरकार जी की अर्थव्यवस्था सुधार योजनाओं, नोटबंदी, जीएसटी और दर्जनों बार बदले गए नियमों, के बावजूद बैंक बैलेंस इतना तो बचा ही था कि हम दूतावास को यकीन दिला सकें कि हम तो वापस लौट ही आएँगे। पुरानी यात्रा हिस्ट्री भी काम आ गई। वाकई, भारत का पासपोर्ट इतना मजबूत है कि देखने से ही वीसा मिल जाता है, बशर्ते बैंक बैलेंस अच्छा हो और हम वीसा देने वालों को विश्वास दिला सकें कि हमारी वहाँ बसने की कोई योजना नहीं है। और हाँ, भगवान भी साथ दें।
टिकट सस्ती मिल जाए, इसके लिए हमने स्मार्टता दिखाते हुए स्विस एयरलाइन से टिकट बुक की, जिसमें जाते हुए म्युनिख और लौटते हुए फ्रैंकफर्ट में स्टॉप था। सोचा “दो घंटे का ही तो स्टॉप है, पलक झपकते ही कट जायेगा” लेकिन जब आंख असलियत में खुली तो पता चला कि जर्मनी की धरती पर पैर रखने के लिए भी हम जैसे 'स्ट्रॉन्ग पासपोर्ट' वाले लोगों को ट्रांसिट वीसा भी चाहिए।
ऑनलाइन चेक-इन के वक्त सिस्टम ने बार-बार पूछा – "क्या आपके पास जर्मनी का वीसा है?" हमने सिस्टम को समझाने की कोशिश की कि “भाई, ट्रांजिट ही तो है, हम बस विमान बदलेंगे, देश नहीं!” मगर सिस्टम बड़ा निष्ठावान था। बात न बनी तो हेल्पलाइन पर कॉल किया।
एक मृदुभाषी महिला ने फोन उठाया। अंग्रेजी ऐसी गिटपिट कि समझ ही न आये। स्पीकर ऑन किया और पत्नी जी को बुलाया, क्योंकि जब बात समझ न आए, तो घर के सबसे समझदार सदस्य को ही आगे करना चाहिए। जब हमने अपने पासपोर्ट के स्ट्रॉन्ग होने की बात की ती उस फोन वाली महिला ने साफ साफ कहा, "आपका पासपोर्ट आपकी और आपकी सरकार की निगाह में स्ट्रॉन्ग हो सकता है, लेकिन हमारे सिस्टम में तो वह ‘सस्पेक्टेड’ श्रेणी में ही आता है।”
हमने सोचा कि कुछ ले-दे कर ही मामला सुलझा लें। हमारा पासपोर्ट स्ट्रॉन्ग हो ना हो, हम भारतीय इस मामले में बहुत स्ट्रॉन्ग हैं। लेकिन यहाँ तो इस लेने देने की गुंजाइश ही नहीं थी। वहाँ का सिस्टम और स्विस एयरलाइन, दोनों ही अभी इतने आधुनिक नहीं हुए थे कि काम करवाने के इस तरीके को मान्यता दें।
गूगल महोदय से पूछा तो उन्होंने बताया कि हम जैसे स्ट्रॉन्ग पासपोर्ट धारकों के साथ साथ अफगानिस्तान, सीरिया, कांगो जैसे लगभग पंद्रह देशों के नागरिकों को भी जर्मनी में कदम रखने से पहले अनुमति लेनी होती है, वीसा चाहिए। यानी पासपोर्ट हमारी निगाह में तो स्ट्रॉन्ग है, पर दूसरों की नजर में यह स्ट्रॉन्ग नहीं, “सस्पेक्टेड” है।
अब या तो ट्रांसिट वीसा लो जो दो हफ्ते में आएगा, या फिर नई टिकट लो। हमने दूसरा चुना। बैंक बैलेंस की मजबूती को कुछ और कमजोर किया और नई एयरलाइन से डायरेक्ट फ्लाइट का टिकट लेकर इंग्लैंड पहुँच गए।
इस पूरी घटना से हमें पता चल गया कि भारतीय पासपोर्ट कितना स्ट्रॉन्ग है। पता चल गया कि यह सिर्फ सरकार जी के लिए ही स्ट्रॉन्ग है और वह भी तब तक स्ट्रॉन्ग है जब तक वे सरकार जी हैं। सरकार जी भी जब सरकार जी नहीं रह जायेंगे, उनके लिए भी भारतीय पासपोर्ट उतना ही स्ट्रॉन्ग रह जायेगा जितना हम आम भारतीयों के लिए है।
चलिए, अभी यह तो गनीमत है। अभी इतना स्ट्रॉन्ग तो है कि किसी देश में हवाई जहाज बदलने पर ही वीसा लेना पड़ता है। अगर सरकार जी हमारा पासपोर्ट इतना ही स्ट्रॉन्ग बनाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम भारतीयों को किसी देश की हवाई क्षेत्र के ऊपर से गुजरने के लिए भी वीसा लेना पड़ेगा। सरकार जी ने देश की स्थिति इतनी अच्छी बना दी है कि अमूमन हर भारतीय 'येन केन प्रकारेण' विदेश में बसने का इच्छुक है। क्या पता कब कोई भारतीय ऊपर उड़ते हवाई जहाज से ही छलांग लगा दे और जहाँ गिरे वहीं बस जाये और हमारे लिए बिना वीसा लिए किसी देश के एयर स्पेस से गुजरने पर भी प्रतिबंध लग जाये।
अब इंग्लैंड पहुँच गए हैं। लेकिन यात्रा की बाकी व्यंग्यात्मक श्रृंखला अभी बाकी है। अगली कभी अगली कड़ी में।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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