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कटाक्ष: जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें…

सच पूछिए तो मोदी जी को लाल किले से आरएसएस पर गर्व करने में, बारह साल इसीलिए लग गए कि वह पक्का काम करना चाहते थे। कहते हैं, सहज पके सो मीठा। संघ के लिए एक नया इतिहास पक कर तैयार होने के लिए, बारह साल इतने ज़्यादा भी तो नहीं हैं।
MODI BHAGWAT
(फ़ाइल फ़ोटो) तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए।

देखिए, देखिए, यह तो बिल्कुल भी ठीक बात नहीं है। माना कि यह लाल किले से मोदी जी का बारहवां भाषण था। इस बारहवें भाषण में ही मोदी जी को आरएसएस की महानता की याद आयी। यानी 2014 में मोदी जी के नयी आजादी लाने के बाद भी, आरएसएस को न ज्यादा न कम, पूरे बारह साल इंतजार करना पड़ा कि लाल किले से मोदी जी उसकी तारीफें करें, उसका गुणगान करें। उसकी देशभक्ति का बखान करें। अपने स्वयंसेवक होने का लाल किले पर चढक़र एलान करें।

जी हां! बारह साल लंबा इंतजार। उतना इंतजार, जितने इंतजार के बाद घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। लेकिन, सिर्फ इंतजार के  साल बारह होने से ही, यह अर्थ कोई कैसे निकाल सकता है कि मोदी जी की नजर में आरएसएस कोई घूरा है। और यह अर्थ तो हर्गिज नहीं निकाल सकते हैं कि मोदी जी ने आरएसएस के साथ घूरे वाला सलूक किया है। अपने राज में आरएसएस के दिन तब तक नहीं फिरने दिए, जब तक कि उनके घूरे तक के दिन नहीं फिर गए। जब सब के दिन फिर चुके--अडानी जी के, अंबानी जी के, हिंदुजा जी, टाटा जी वगैरह, वगैरह के; उसके बाद ही कहीं जाकर आरएसएस के दिन फिरने दिए।

ये सब संघ के परिवार में झगड़ा लगाने की बातें हैं। परिवार में कलह बढ़ाने की बातें हैं। क्या है कि बेचारों के परिवार में सब कुछ पहले ही ठीक नहीं चल रहा है। ऊपर-ऊपर से तो सब ठीक नजर आता है, पर भीतर-भीतर काफी खींच-तान है। बाकी तो छोड़िए, भगवा पार्टी के अध्यक्ष के  सलेक्शन पर झगड़ा शुरू हो गया तो समेटे में आने का नाम ही नहीं ले रहा है। करीब डेढ़ साल होने आए, नड्डा जी को एक्सटेंशन पर ही गुजारा करते। न गद्दी पर कोई दूसरा आता है और न पक्का दूसरा कार्यकाल मिलता है। ऐसे में मोदी जी ने जरूर अपनी तरफ से नागपुरिया आकाओं को खुश करने की कोशिश की है। माना कि खास मोदी स्टाइल में खुश करने की कोशिश की है—दे न बांट की भुसी, बातों से ही कर दे खुशी; पर खुश करने की कोशिश तो की है। विरोधी इसे घूरे के बारह साल से जोड़कर, नाहक बात और बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

यह बात भी समझने वाली है कि मोदी जी ने सिर्फ लाल किले से आरएसएस की तारीफ भर नहीं की है। मोदी जी की सरकार के पेट्रोलियम तथा गैस मंत्रालय ने बाकायदा एक पोस्टर जारी कर, सावरकर को गांधी, सुभाष, भगत सिंह, तीनों से ऊपर और तिरंगे से भी ऊपर बैठाने की जुगत भी भिड़ाई है। और असली बात यह कि यह तो इब्तदा -ए-इश्क है; आगे-आगे देखिए होता है क्या? 

सावरकर पर गांधी की हत्या के  षडयंत्र के लिए मुकद्दमा चलाया गया था। उस सावरकर को अगर बारह साल होने पर सबसे ऊपर, गांधी से भी ऊपर बैठाया जा सकता है, तो कल को उस गोडसे को मोदी सरकार के पोस्टरों में आने से कौन रोक सकता है, जिसने गांधी का ‘वध’ कर के फांसी के फंदे को चूमा था। फिर यह तो शुरुआत है। प्लीज अब कोई ये मत कहने लगना कि सरकारी पोस्टर में सावरकर के सबसे ऊपर आने से ही क्या होता है? असली मुद्दा तो यह है कि गोलवलकर जी ऐसे पोस्टरों में कब आएंगे! आएंगे, गोलवलकर जी भी आएंगे। हेडगेवार जी भी आएंगे। भागवत जी भी आएंगे। सारे के सारे जी लोग ही आएंगे। जल्द ही आएंगे। बाकी सब को हटाएंगे, बस ‘जी’ लोग ही रह जाएंगे। बस थोड़ा धीरज चाहिए। सब होगा, बस मोदी राज को जरा सा टैम और मिल जाए। बस संघ पिचहत्तर साल की उम्र में मोदी जी को मार्गदर्शक मंडल में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की संगत में बैठाने की जिद न पकड़ कर बैठ जाए।

सच पूछिए तो मोदी जी को लाल किले से आरएसएस पर गर्व करने में, बारह साल इसीलिए लग गए कि वह पक्का काम करना चाहते थे। कहते हैं, सहज पके सो मीठा। संघ के  लिए एक नया इतिहास पक कर तैयार होने के लिए, बारह साल इतने ज्यादा भी तो नहीं हैं। आखिर, आरएसएस को राष्ट्रद्रोही से, राष्ट्रवादी साबित करना था। उसने जिस आजादी की लड़ाई के खिलाफ काम किया, उसका अगुआ बनाना था। उसके सिर पर जिन अंगरेजों ने हमेशा अपना हाथ रखा, उसे उनका पक्का विरोधी साबित करना था। आजादी की लड़ाई में उनकी हिस्सेदारी की लकीर, जो कहीं थी ही नहीं, उसे सबसे लंबा करना था। मुगलों-वुगलों को ही नहीं, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, भगतसिंह, सब को उनके ऊंचे आसनों से नीचे उतारना था। कांग्रेस को देश के विभाजन का दोषी और आरएसएस को देश की एकता झंडाबरदार साबित करना था। सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद साबित करना था। सांप्रदायिकता के लिए आजादी के बाद तीन-तीन बार  लगी पाबंदियों को, आरएसएस के साथ हिंदू-विरोधियों का अन्याय साबित करना था। 

जाहिर है कि यह काम जल्दी में नहीं हो सकता था। यह काम जल्दी में अच्छा और पक्का नहीं हो सकता था। मोदी जी ने जरूर बारह साल लंबा रास्ता लिया, पर काम पक्का किया। एनसीईआरटी का स्कूली बच्चों के लिए नया पाठ है— विभाजन के तीन दोषी—जिन्ना, कांग्रेस और माउंटबेटन। इस सिलसिले में आरएसएस का जिक्र सिलेबस के बाहर है।

और मोदी जी ने सिर्फ जुबानी जमा-खर्च थोड़े ही किया है। उन्होंने सिर्फ आरएसएस की तारीफ करके ही नहीं छोड़ दिया है। उन्होंने आरएसएस के एजेंडा को जोर-शोर से आगे बढ़ाने का एलान भी तो किया है। सुना नहीं कैसे उन्होंने पहली बार लाल किले से एलान किया कि आबादी के बदलाव से हिंदू खतरे में पड़ रहा है। परायों की घुसपैठ से देश के लिए खतरा बढ़ रहा है। सीमावर्ती इलाकों में ऐसी घुसपैठ से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है। इसीलिए, तो बिहार मार्का एसआइआर जरूरी है, अकेले बिहार में ही नहीं, देश भर में। पहले, घुसपैठिए वोटर लिस्ट से बाहर किए जाएंगे, फिर समाज और देश से। नहीं तो, लव जेहाद से बहन-बेटियों पर खतरा आ जाएगा बल्कि आ गया है। वे जमीन जिहाद कर के हमारे लोगों की जमीनें छीन रहे हैं। रोटी-रोजगार जिहाद कर के नौजवानों के रोटी-रोजगार को हड़प कर रहे हैं। मोदी जी ऐसा होने नहीं दे सकते हैं।

पर पता नहीं हिंदुओं के कैसे दिन फिर रहे हैं कि मोदी जी जैसे-जैसे खुले मैदान में उतरकर हिंदुओं को बचाने के लिए तलवार चलाते हैं, वैसे-वैसे हिंदू ज्यादा खतरे में आते जाते हैं। कौन जाने ज्यादा खतरे में आना भी दिन फिरना हो। कम से कम मोदी परिवार के दिन फिरना तो जरूर है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

 

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