कटाक्ष: मोदी जी और चुनाव आयोग–ये रिश्ता क्या कहलाता है!

राहुल गांधी ने चुनाव आयोग की पोल खोली। उसे काफी भला-बुरा कहा। और तो और ‘‘वोट चोर’’ तक कह दिया। पर चुनाव आयोग ने मुंह नहीं खोला। उसकी तरफ से बोले भी तो सिर्फ सूत्र बोले। बेशक, सूत्र थोड़ा नहीं खूब बोले। और तो और ‘‘वोट चोर’’ की गाली के जवाब में, उतने ही जोर से ‘‘माफी मांगो’’ भी बोले--शपथ पत्र दो, नहीं तो माफी मांगो! फिर भी, सूत्र तो सूत्र ही होते हैं। सूत्र तो जैसे अनदेखे प्रकट होते हैं, वैसे ही संदेश कारगर नहीं हो तो अनदेखे ही गायब भी हो जाते हैं।
सूत्रों से आने वाला जवाब तो कोई जवाब नहीं है, बच्चू। जवाब वह है जो, सवाल चुनाव आयोग से होता है, तो जवाब आता है किरण रिजजू और संबित पात्रा का यानी मोदी पार्टी का। देश जानना चाहता है कि ये रिश्ता क्या कहलाता है? वैसे ऐसा रिश्ता अक्सर मियां-बीवी का होता है, वह भी पुराने मियां-बीवी का। बीवी से सवाल पूछो तो मियां जी खुद ब खुद जवाब देने लग जाते हैं। और मियां से कुछ कह दो तो बीवी नाराज हो जाती है, गरियाने पर उतर आती है। तो क्या यह वही रिश्ता है? वैसे ऐसा मामला सहजीवन का भी हो सकता था, लेकिन वह मोदी पार्टी को मंजूर नहीं होगा। आखिरकार, संस्कारी पार्टी है। तो क्या यह रिश्ता बाकायदा जन्म-जन्मांतर वाला गठबंधन ही कहलाता है यानी साझा राज, साझा संपत्ति, साझा घर। होने को तो साझा सरनेम भी, मगर वह कंपल्सरी नहीं है बल्कि अब तो कुछ-कुछ आउट ऑफ फैशन सा हो चला है।
और इस रिश्ते में पब्लिक कहां आती है। बिहार की पब्लिक इस समय खासतौर पर परेशान है, चुनाव आयोग और अपने रिश्ते को लेकर। सिद्धांत यह कहता है कि गठबंधन वाला रिश्ता होना तो वास्तव में पब्लिक और चुनाव आयोग का चाहिए। वह भी परंपरागत गठबंधन वाला। यानी पब्लिक का आसन ऊंचा और चुनाव आयोग का आसन उससे ठीक-ठाक नीचे। पर यह सिर्फ सिद्धांत कहता है। विरोधियों की मानें तो मोदी पार्टी, पब्लिक और चुनाव आयोग के गठबंधन को तुड़वाकर, चुनाव आयोग को ले उड़ी है और सिर्फ ले ही नहीं उड़ी है, उसके साथ बाकायदा घर बसाकर भी बैठ गयी है।
बेशक, यह कोई यूं ही नहीं हो गया। इसके लिए मोदी पार्टी को काफी मेहनत भी करनी पड़ी है। बाकी चीजों के अलावा बाकायदा चुनाव आयोग का दिल जीतना पड़ा है। इसके लिए खासतौर पर चुनाव आयुक्तों के ही चयन का तरीका बदलना पड़ा है। बीच में सुप्रीम कोर्ट ने टांग अड़ा दी थी। उसका कहना था कि आयोग वही जो मोदी मन भाए, डैमोक्रेसी में नहीं चलेगा। ऐसा आयोग, पब्लिक और चुनाव आयोग के रिश्ते के लिए ठीक नहीं था। पर मोदी जी ने अपनी पार्टी और आयोग के रिश्ते के रास्ते की हरेक बाधा को ही मिटाने मन बना लिया था। कानून बनाकर, झटपट सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को अपने और चुनाव आयोग के बीच से हटा दिया। एक बार फिर इसका इंतजाम कर दिया कि चुनाव आयोग वही, जो मोदी मन भाए।
अब बिहार में पब्लिक को पता चल रहा है, चुनाव आयोग से नाता टूटने का नतीजा। मोदी पार्टी की नयी-नयी वफादारी के चक्कर में आयोग ने पब्लिक के सिर पर सर की आफत डाल दी। 65 लाख पुराने वोटरों के नाम कट गए। और कटे भी ऐसे जैसे उनके नाम कभी लिस्ट में थे ही नहीं। अब जिसको नाम चाहिए, नये सिरे से वोटर के रूप में भर्ती के लिए पर्चा दाखिल करो, दस्तावेज लगाओ, तब अगर बड़े बाबू संतुष्ट हुए तो वोट का अधिकार मिल सकता है, वर्ना भूल जाओ! वोट देना कोई मौलिक अधिकार थोड़े ही है! और दूसरे करोड़ों के नाम दस्तावेज जमा न होने के चक्कर में अधर में अटक गए हैं। किस का वोट रहे और किस का कट जाए, कोई नहीं जानता। यह भी बड़े बाबू के रहमो-करम पर है, किस का क्या दस्तावेज जरूरी हो जाए और किस का क्या दस्तावेज काफी हो जाए, कोई नहीं जानता। और अब सुप्रीम कोर्ट के आगे चुनाव आयोग ने साफ कह दिया है, जिन पैंसठ लाख के नाम कट गए, उनकी कोई सूची नहीं दी जाएगी। पब्लिक को ऐसी सूची मांगने-पाने का हक ही नहीं है। पब्लिक को यह जानने का भी हक नहीं है कि किस का नाम किसलिए काटा गया है। पब्लिक का ना जानकारी का हक और चुनाव आयोग का नहीं बताने का हक ही, सबसे ऊपर हैं।
वैसे विपक्ष वाले नाहक चुनाव आयोग और मोदी पार्टी के रिश्ते को अवैध कहकर बदनाम करते हैं। इस रिश्ते का कम से कम यह मतलब नहीं है कि आयोग और विपक्षी पार्टियों का रिश्ता, दुश्मनी का ही रहेगा। राज करने वालों की जुगल-जोड़ी देखकर, विपक्ष का जलना भी तो कोई सही बात नहीं है। सच पूछिए तो चुनाव आयोग तो अब भी विपक्ष का भी उतना ही ख्याल रखता है, जितना किसी और का। विपक्ष वालों के मांगने पर, वे जिस मशीन से पढ़े जाने लायक रूप में वोटर लिस्ट चाहते हैं, उस रूप में अगर आयोग नहीं दे रहा है, तो क्यों? जाहिर है कि इसीलिए कि विपक्षी पार्टियों के लोग, जो चुनाव नतीजे आ चुके, उन पर माथाफोड़ी में अपना टैम और इनर्जी बर्बाद नहीं करें। बिहार में भी, मसौदा सूची मशीन से पढ़े जाने वाले रूप में मुहैया कराने के हफ्ते भर बाद ही चुनाव आयोग ने अपनी गलती को सुधार लिया और मसौदा सूची को भी मशीन से पढऩे का रास्ता बंद कर दिया? आखिर क्यों? मशीन के भरोसे विपक्षी तो विपक्षी, इक्का-दुक्का पत्रकार भी, इतने बड़े काम में तरह-तरह से खोट निकालने में अपनी एनर्जी बर्बाद कर रहे थे और कभी शून्य पते वाले वोटरों के बहाने, तो कभी एक-एक घर में दो-दो सौ वोटरों, एक-एक परिवार में चालीस-पचास सदस्यों के होने या मर चुके लोगों के नाम सूची में पहुंच जाने के बहाने, समाज में नेगेटिविटी फैला रहे थे। यह चुनाव आयोग से देखा नहीं गया। और जो विपक्ष के कहने पर मतदान के खास समय की वीडियो रिकार्डिंग नहीं देने बल्कि नष्ट करने की चुनाव आयोग ने ठान रखी है, तो आयोग के पिछले मुखिया राजीव कुमार पहले ही बता चुके थे, इस फुटेज को देखने में तो किसी को भी 273 साल लग जाएंगे। आयोग नहीं चाहता है कि पब्लिक का समय बेकार में ऐसी चीजों में बर्बाद हो। पब्लिक से चुनाव आयोग का रिश्ता भले ही एक्स यानी पूर्व का कहलाता हो, आयोग को अब भी पब्लिक की परवाह है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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