तिरछी नज़र: …हम तो कपड़ों से ही पहचान लेते हैं!

पिछले कुछ दिन विदेश में गुजारे। बेटा और भांजी इंग्लैंड में हैं तो दो सप्ताह से कुछ अधिक समय वहाँ गुजरा। विदेश में रहो तो बड़ा सकून सा रहता है। यहाँ के सरकार जी क्या कर रहे हैं, किस पुल का फीता काट रहे हैं, पता ही नहीं चलता है और वहाँ के सरकार जी क्या कर रहे हैं, उससे हमें कोई लेना देना नहीं रहता है। वैसे कई ज्ञानी लोग देश में रहते हुए भी विदेश में रहने की निस्पृहता का यह मज़ा लिए रहते हैं। उनको कहीं के भी सरकार जी क्या कर रहे हैं, फर्क ही नहीं पड़ता है।
तो विदेश में थे। सोशल मीडिया पर भी उपस्थिति न के बराबर थी। छुट्टी हो तो छुट्टी पूरी तरह से हो। छुट्टी में सोशल मीडिया पर रहो, व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से पीएचडी करते रहो तो छुट्टी बेकार हो जाती है। जिस घर में ठहरे थे, अपनी भांजी के घर में, वह यंग लोगों का घर था तो घर में टीवी तो था पर चलता नहीं था। मतलब चलता तो था पर कोई चलाता ही नहीं था। नहीं, नहीं, ऐसा नहीं था कि जिनके यहाँ ठहरे थे वे दीन-दुनिया से बेखबर लोग थे पर उनके जानकारी पाने के तरीके अलग थे। उन्हें पूरी जानकारी थी और अपडेटेड थी। आप इस देश की, उस देश की, पूरी दुनिया की किसी भी बात पर उनसे सार्थक बहस कर सकते थे। वह भी बिना व्हाट्सप्प फारवर्ड के।
फिर आया लौटने का दिन, बाइस अप्रैल। बाइस अप्रैल की रात की उड़ान थी, हीथ्रो लंदन से। मेरी भांजी और बेटा हमें कार में घर से हवाई अड्डे के लिए ले कर चले। कार में बीबीसी चल रहा था और हम सब अपनी बातों में मशगूल थे। अचानक ही कान में सुनाई पड़ा, बीबीसी की समाचार वचिका ने हमारे सरकार जी का नाम लेकर कहा कि उन्होंने इस घटना की भर्त्सना की है। मैंने पूछा भी, किस चीज की भर्त्सना की। पर समाचार वचिका भी एकतरफा संवाद कर रही थी, बिल्कुल सरकार जी की तरह। और कार में सब अपनी बातों में मशगूल थे। मैंने भी सोचा, सरकार जी का क्या है, कर रहे होंगे नेहरू की भर्त्सना, कांग्रेस की भर्त्सना, विपक्ष की भर्त्सना। उनकी तो यह आदत ही है। सुना तो नहीं पर मन ही मन मान लिया, इन्हीं की भर्त्सना की होगी।
अगले दिन दोपहर तक दिल्ली पहुँचे और फिर घर। दिल्ली भी बिल्कुल वैसी ही थी जैसी छोड़ कर गए थे। वैसे भी इतने दिनों में कोई बदलता है भला। वही चिलचिलाती धूप और धक्कड़, वही ट्रैफिक और हॉर्न की चिल्लप पों, गाड़ियों में एक दुसरे से आगे बढ़ने की और आगे न बढ़ने देने की होड़। मतलब कुछ भी तो नहीं बदला था। देश में भी और प्रदेश में भी। थके थे, वहाँ घूमने से और इतनी लम्बी फ्लाइट से भी। तो खा पी कर सो गए। और अगले दिन देर से उठे।
अगली सुबह उठे तो एक हाथ में अख़बार था और दूसरे में चाय का प्याला। अख़बार से पता चला पहलगाम में आतंकवादी हमला हुआ है। सरकार जी ने उसी की भर्त्सना की थी। हमने भी उसकी भर्त्सना की और चाय का प्याला एक और रख शोक मनाने बैठ गए। लेकिन ठीक उसी तरह जैसे सरकार जी ने सोचा कि पहलगाम में जो हुआ सो हुआ, उसमें बिहार के चुनाव की क्या गलती है और चुनावी सभा में चले गए। ऐसे ही हमने भी सोचा कि इसमें चाय की क्या गलती है। तो चाय इतमिनान से खत्म की और शेष अख़बार पढ़ते पढ़ते दूसरा प्याला भी पी गए।
घटना वास्तव में ही बहुत ह्रदय विदारक थी और कड़ी निंदा के लायक थी। पहलगाम में आतंकवादियों ने छब्बीस लोगों को बेरहमी से मार दिया था। इससे बुरा कुछ हो ही नहीं सकता था। उन्होंने लोगों की पहचान कपड़े उतार कर की। मुझे समझ यह नहीं आया कि जब हम इतने उन्नत हो गए हैं कि कपड़े देख कर ही पहचान सकते हैं तो कपड़े उतारने वाली बेशर्मी करने की जरूरत ही क्या थी। पर फिर समझ आया कि वजह क्या थी। आतंकवादी पूरा कन्फर्म करना चाहते थे।
असलियत में आतंकवादी निश्चिंत थे। उन्हें पता था दूर दूर तक ना कोई फौज है और ना ही कोई पुलिस या सिक्योरिटी। बस कोई हैं तो सैलानी ही सैलानी हैं। नहीं तो आतंकवादी इतने इत्मीनान से काम नहीं करते। उन्होंने धर्म की पहचान करने के लिए कपड़े उतरवाये, कलमा पढ़वाया और पहचान पक्की की। कहीं बाद में यह न कहना पड़ जाये, 'च, मिस्टेक हो गया'।
जो हुआ, जो किया गया, वह बहुत ही दुखद और निंदनीय है। आतंक फैलाने का यह रास्ता न तो इंसानियत का है, न ही किसी धर्म का। झटके में 25 निर्दोष हिन्दुओं और एक मुस्लिम घोड़े वाले की हत्या कर दी गई, जबकि जिन सिद्धांतों की दुहाई दी जाती है, उनमें तो यह सब खुद मना है।
ऐ आतंकवादियो, ऐ दहशतगर्दो, तुम्हारे आका कौन हैं, हमें सब पता है। एक बार हम अपनी पर आ गए ना, तो तुम्हें और तुम्हारे आकाओं को ऐसा सबक सिखाएंगे कि तुम सब हमारे सामने पानी भरते नज़र आओगे। पीने के लिए पानी मांगोगे, पानी। पर मिलेगा बिल्कुल भी नहीं।
सरकार जी ने एक्शन लिया है, स्ट्रिक्ट एक्शन। तुम्हारा पानी ही बंद कर दिया है। अब हमारे पास इतना पानी होगा कि हम तुम्हें पानी पी पी कर कोसेंगे और तुम्हारे पास इतना भी पानी नहीं बचेगा कि तुम चुल्लू भर पानी में डूब कर मर भी सको। हाँ, हम सच बता रहे हैं, हम तुम्हें दो बूँद पानी भी नहीं देंगे। सारा पानी, पूरा सौ प्रतिशत पानी अपने यहाँ, पहाड़ों में ही रोक लेंगे चाहे फिर चाहे हमारे यहाँ बाढ़ आये या पहाड़ गिरें। पूरा पानी तो हम भी इस्तेमाल कर ही नहीं सकते हैं।
सरकार जी ने और भी एक्शन लिया है, और भी रोक लगाई हैं। अपने सैन्य अधिकारी इस्लामाबाद से वापस बुला लिए हैं (यह कैसी रोक है भाई)। वाघा बॉर्डर पर रोज होने वाला राष्ट्रवादी कार्यक्रम भी रद्द कर दिया है। और हाँ, पाकिस्तान के लोगों का वीज़ा बंद कर दिया है। अब आतंकवादी न तो वीज़ा लेकर भारत आ पाएंगे और न ही वाघा बॉर्डर से हाथ हिलाते आ पाएंगे। कुछ और महत्वपूर्ण रोक भी लगाई हैं। और सबसे बड़ा काम तो यह किया है कि पाकिस्तानी सरकार का 'एक्स' हैंडल हिंदुस्तान में बैन कर दिया है।
भइया, हमने भी कुछ सोच लिया है। जब सरकार जी इतने स्ट्रॉन्ग एक्शन ले रहे हैं तो हमने भी कुछ एक्शन लिया है। मैंने सोचा है कि मैं इस घटना से इमोशनल नहीं होऊंगा और ना ही किसी और को इमोशनल करूँगा। ना तो हिन्दू मुसलमान करूँगा और ना ही भारत पाकिस्तान करूँगा। बस एक संयम भरा व्यवहार करूंगा।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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