प्रभात पटनायक की क़लम से: मैकार्थीवाद की वापसी

ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका में स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर जिस तरह का दमनचक्र छेड़ा है, डरावने तरीके से 1950 के दशक की याद दिला देता है, जब सीनेटर जोसफ मैकार्थी के नेतृत्व में संदिग्धों की खोज के नाम पर उत्पीड़न या विच हंट छेड़ा गया था। इसके तहत न सिर्फ कम्युनिस्ट होने के आरोप में कलाकारों तथा बुद्धिजीवियों की एक पूरी पीढ़ी को निशाना बनाया गया था बल्कि इसने आने वाले कई दशकों के लिए देश के सर्जनात्मक जीवन पर एक गहरी नकारात्मक छाप भी छोड़ी थी।
इस विच हंट के शिकार लोगों में बेशुमार असाधारण हस्तियां शामिल थीं। इनमें दशिएल हम्मेत, डेल्टन ट्रम्बो, बर्टोल्ट ब्रेख्त तथा चार्ली चैपलिन जैसे कलाकारों तथा लेखकों से लेकर लारेंस क्लेइन, रिचर्ड गुडविन, ईएच नार्मन, डेनियन थार्नर, मोज़ेज फिनले तथा ओवन लेट्टमोर जैसे विद्वान भी शामिल थे। यहां तक कि अमेरिका के एटम बम के निर्माण की परियोजना, मैनहट्टन प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने वाले जे रॉबर्ट ओपनहाइमर और यूके के जेएम केन्स के साथ ब्रेटन वुड्स सिस्टम की स्थापना करने वाले हैरी डैक्स्टर व्हाइट तक को नहीं छोड़ा गया था। उन्हें भी अमेरिका में कम्युनिज्म की जांच करने के लिए गठित की गयी किसी न किसी कमेटी के सामने पेश होने के आदेश दिए गए थे। इस विच हंट से अमेरिका का बहुत भारी नुकसान हुआ था। कुछ लोगों ने तो यह तक कहा है कि अमेरिका, वियतनाम युद्ध में अगर फंस गया था, तो इसीलिए कि वहां पर पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के संबंध में जितना भी ज्ञान था, उसे मैकार्थीवाद ने पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। अगर अमेरिका को यह ज्ञान उपलब्ध रहा होता, तो ऐन मुमकिन है कि अमेरिका इससे लाभान्वित हुआ होता और उसने खुद को दलदल में फंसने से बचा लिया होता।
बाहर वालों के बाद अगला नंबर?
मैकार्थीवादी परिघटना और ट्रंप द्वारा शुरू किए गए कदमों के बीच समानता की बात महसूस तो बहुत से लोग करते हैं। बहरहाल, कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, ब्रूस हिग्गिन्स ने (एमआर ऑनलाइन, 21 मार्च में) इसे खुलकर कह दिया है। पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि इस तरह की समानता खोजना बहुत भारी अतिरंजना का मामला है। आखिरकार, अब तक तो गिरफ्तारी तथा प्रत्यार्पण के मुट्ठीभर मामले ही सामने आए हैं। तब हमें इतना उत्तेजित होने की और मैकार्थीवादी विच हंट के साथ समानताएं देखने की क्या जरूरत है?
इसी प्रकार, यह दलील भी दी जा सकती है कि अब तक तो निशाना अमेरिकी गैर-नागरिकों को ही बनाया गया है, जो वहां वीज़ा पर या ग्रीन कार्ड के आधार पर रह रहे थे। बेशक, यह मैकार्थीवादी दौर से भिन्न है, जब विच हंट का शिकार अमेरिकी नागरिकों को बनाया गया था, न कि सिर्फ ‘‘बाहर वालों’’ को।
लेकिन, इस तरह के ख्यालों से हम शायद ही कोई तसल्ली हासिल कर सकते हैं। ट्रंप ने यह साफ कर दिया है कि महमूद खलील जैसे मामलों से तो सिर्फ शुरुआत हो रही है। इसी तरह के और हजारों मामलों में कार्रवाई की जाने वाली है। याद रहे कि महमूद खलील कोलंबिया का छात्र था, जो ग्रीनकार्ड धारक था और जिसने एक अमेरिकी नागरिक से विवाह किया था, जो संयोग से आठ महीने की गर्भवती है। खलील को ‘‘आतंकियों’’ के साथ संपर्कों के आरोप में गिरफ्तार किया गया है और उसका प्रत्यार्पण प्रतीक्षित है। उस पर यह आरोप लगाया गया है, ग़ज़ा के नरसंहार के खिलाफ कोलंबिया में छात्रों के प्रदर्शनों की अगुआई करने का।
इसी प्रकार, एक बार जब वीज़ा तथा ग्रीनकार्ड धारकों का प्रत्यार्पण हो जाता है, ग़ज़ा जैसे नरसंहारों के खिलाफ और इस तरह के प्रत्यार्पणों के खिलाफ भी विरोध कार्रवाइयों में हिस्सा लेने वाले अमेरिकी नागरिक भी, दंडात्मक कार्रवाइयों से बचे नहीं रह पाएंगे। विदेशी ‘‘आतंकी’’ गतिविधियों का समर्थन करने के लिए, उन्हें भी शिकार बनाया जाएगा।
संक्षेप में यह कि एक बार जब अपने विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए आबादी के किसी एक हिस्से को शिकार बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, यह तसल्ली कर पाना असंभव है कि यह सिलसिला आबादी के उस खास हिस्से तक ही सीमित रहेगा और बाकी आबादी इसके दायरे में नहीं आएगी। इस तरह, हमारा यह महसूस करना गलत नहीं है कि हम मैकार्थीवादी विच हंट की शुरूआत देख रहे हैं।
मैकार्थीवादी हमले से भी बदतर
वास्तव में जो विच हंट सिर पर मंडरा रहा है, अनेक मायनों में सीनेटर जो मैकार्थी द्वारा छेड़े गये विच हंट से भी बदतर है। पहली बात तो यह है कि महमूद खलील के प्रत्यार्पण का आदेश 1952 के अमरीकी इमीग्रेशन एंड नेशनेलिटी एक्ट के एक प्रावधान के अंतर्गत जारी किया जाता है, जो यह कहता है कि कोई, ‘बाहरी, विदेश सचिव के पास अगर यह मानने के लिए पर्याप्त आधार हों कि अमेरिका में मौजूदगी या गतिविधियों के लिए अमेरिका के लिए गंभीर रूप से प्रतिकूल विदेश नीतिगत परिणाम हो सकते हैं, प्रत्यार्पित किया जा सकता है।’
इस धारा का सहारा लिए जाने का व्यवहार में अर्थ यह है कि कोई भी विदेशी, वह चाहे वीज़ाधारक हो या ग्रीन कार्डधारक, अमेरिका की विदेश नीति की आलोचना नहीं कर सकता है। मिसाल के तौर पर खलील के मामले में, उसके खिलाफ एक ‘‘आतंकी’’ संगठन, हमास के नजदीक होने के आरोप के अलावा, जिसके लिए कोई साक्ष्य नहीं दिया गया है, ‘‘यहूदीविरोधी’’ होने का आरोप है, जो कि ऐसा रुझान है जिसका अमेरिकी विदेश नीति दुनिया भर में मुकाबला करने का प्रयास करने का दावा करती है। ग़ज़ा पर इज़रायल द्वारा किए जा रहे नरसंहार के उनके विरोध को ‘‘यहूदीविरोध’’ और इसलिए, अमेरिका की विरोध नीति के प्रतिकूल प्रभाव वाला करार दे दिया गया है। लेकिन, इस तरह का आरोप तो किसी भी ‘‘बाहरी’’ के खिलाफ लगाया जा सकता है, जो अमरीकी विदेश नीति के किसी भी पहलू की आलोचना करता हो। और यहां तक कि ऐसे अमेरिकी नागरिकों पर भी कार्रवाई की जा सकती है, जो अमेरिकी विदेशी नीति के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल होकर, इस तरह के ‘‘बाहरियों’’ की ‘‘मदद’’ करते हों। अमेरिकी विदेश नीति, शेष दुनिया भर में साम्राज्यवादी करतूतों का ही दूसरा नाम है।
दूसरे शब्दों में वर्तमान विच हंट का दायरा, सीनेटर जो मैकार्थी के विच हंट से भी बड़ा है। इसका निशाना आबादी के एक हिस्से पर ही नहीं है, जैसे मैकार्थीवाद का कम्युनिस्टों तथा उनके हमदर्दों पर था। इसके बजाय, इसके निशाने पर हरेक वह शख्स आ जाता है, जो अमेरिकी विदेश नीति की आलोचना करता है और सबसे बढक़र आक्रामक तथा विस्तारवादी, इज़रायली सैटलर उपनिवेशवाद के जरिए पश्चिम एशिया पर नियंत्रण करने की अमेरिकी नीति का विरोध करता है।
शीत युद्ध से भिन्न संदर्भ
दूसरे, मैकार्थीवाद को तो शीत युद्ध के संदर्भ में छेड़ा गया था। शीत युद्ध खुद उस प्रतिष्ठा तथा आकर्षण के खिलाफ साम्राज्यवाद की लड़ाई का हिस्सा था, जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने हासिल कर ली थी। साम्राज्यवाद ने सोवियत हमले का एक झूठा हौवा खड़ा कर दिया था, जबकि युद्ध से ध्वस्त सोवियत संघ के कोई हमलावर इरादे थे ही नहीं।
संक्षेप में यह कि मैकार्थीवाद, एक खास संदर्भ में, एक बहुत ही खास साम्राज्यवादी रणनीति का हिस्सा था। लेकिन, ट्रंप का वर्तमान हमला ऐसे हालात में आ रहा है, जहां साम्राज्यवाद अपने लिए किसी खास शक्ति से, किसी खास खतरे का बहाना भी नहीं बना सकता है। इसका मकसद तो सिर्फ एक ऐसी दुनिया में साम्राज्यवाद की आक्रामकता की पर्दापोशी करना है, जहां किसी खास ताकत को खतरे की तरह पेश किया ही नहीं जा सकता है बल्कि जहां ऐसे देशों की विशाल संख्या है, जिन्हें नव-उदारवादी व्यवस्था द्वारा थोपे गए संकट ने दीवार से लगा दिया है और अपने ऊपर थोपी गयी आर्थिक व्यवस्थाओं से किसी तरह की राहत चाहते हैं। ट्रंप के हमले का संदर्भ, साम्राज्यवाद के नैतिक दीवालियापन का है, न कि किसी खास गैर-साम्राज्यवादी शक्ति के बढ़े हुए नैतिक कद का।
तीसरे, स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर ट्रंप के हमले का निशाना मैकार्थीवाद से कहीं व्यापक होने के तथ्य की पुष्टि उस घोर असंवैधानिक तथा बाध्यकारी तरीके से होती है, जिसमें उनका प्रशासन अमेरिकी विश्वविद्यालयों पर इस फैसले को थोप रहा है कि वे अपने मामलों का कैसे संचालन करें और ऐतराज करने पर उनके लिए संघीय फंड रोक रहा है। इस तरह, कोलंबिया विश्वविद्यालय का 45 करोड़ डालर का संघीय फंड रोक लिया गया है, जो तभी जारी किया जाएगा जब वह ट्रंप प्रशासन की इस मांग को मंजूर कर लेगा कि अपने काम-काज में कई बदलाव करे। और विश्वविद्यालय ने अब इन मांगों को मान लिया बताते हैं, जिससे उसकी अकादमिक स्वतंत्रता में भारी कटौती होने जा रही है। यूनिवर्सिटियों की संघीय फंड तक पहुंच के लिए, उनके सरकार की मर्जी के हिसाब से चलने की शर्त लगाना, जितना विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का उल्लंघन है, उतना ही उनके अकादमिक माहौल का भी उल्लंघन है। यह विश्वविद्यालयों को, सर्जनात्मक तथा आलोचनात्मक सोच-विचार की जगह रहने के बजाय, सरकार के अवयव बनने के लिए मजबूर करता है। यह मैकार्थीवाद के मुकाबले में, एक पूरी तरह से नयी खोज है।
दमनकारी सैन्यवाद के दौर में
दूसरे शब्दों में आज हम विचारों पर एक नव-फासीवादी हमला देख रहे हैं, जो अपने दायरे में 1950 के दशक के मैकार्थीवादी हमले से भी ज्यादा व्यापक है। बेशक, शेष साम्राज्यवादी देशों में भी, जहां नव-फासीवादी निजाम सत्ता में नहीं हैं, आलोचनात्मक सोच और स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर हमला हो रहा है। मिसाल के तौर पर यूरोप में न सिर्फ रूसी विस्तारवाद का एक पूरी तरह से निराधार हौवा खड़ा किया जा रहा है, जबकि सचाई यह है कि नाटो का विस्तारवाद उसे सीधे रूस की सीमाओं तक ले आया है और लिथुआनिया में जर्मन सेनाएं तक तैनात कर दी गयी हैं, इसके साथ ही ग़ज़ा में इज़रायली कार्रवाई को पूरा-पूरा समर्थन दिया जा रहा है। वास्तव में इज़रायली कार्रवाई की हरेक आलोचना को, यहूदी विरोध करार दिया जा रहा है और ग़ज़ा में नरसंहार पर चर्चा करने के लिए बैठकों को जर्मनी में सरकारी आदेशों पर निरस्त किया गया है।
इस तरह साम्राज्यवादी देश, चाहे नव-फासीवादी निजामों से शासित हों या उदारवादी पूंजीवादी निजामों से, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सख्ती से कुचल रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा दमनकारी होते जा रहे हैं। बेशक, नव-फासीवादी निजाम और भी ज्यादा दमनकारी हैं, लेकिन उदारवादी पूंजीवादी निजाम भी ज्यादा पीछे नहीं हैं। पुन: यह तब हो रहा है जब साम्राज्यवादी देश अपने सैन्य खर्चे भी बढ़ा रहे हैं। जर्मनी ने हाल ही में एक संविधान संशोधन पारित कर, अपने राजकोषीय घाटे पर लगी सीमा को हटाया है, जिससे वह अपने को सशस्त्र करने पर और ज्यादा खर्चा कर सके। फ्रांस और यूके भी, अपने जीडीपी के अनुपात के रूप में, अपने सैन्य खर्चों को बढ़ा रहे हैं। संक्षेप में यह कि महानगरीय पूंजीवाद दमनकारी सैन्यवाद के ऐसे दौर मेें प्रवेश कर रहा है, जैसा दौर दूसरे विश्व युद्ध के बाद से देखने को नहीं मिला था। यह विश्व जनगण के लिए एक अशुभ संकेत है।
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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