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ख़बरों के आगे–पीछे: ईडी और चुनाव आयोग दोनों की विश्वसनीयता संकट में

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में बता रहे हैं कि चाहे वो ईडी हो या मुख्य चुनाव आयोग या राज्य चुनाव आयोग सब अपना भरोसा खोते जा रहे हैं और किस तरह अब बीजेपी के लिए एक राजनीतिक औजार बन गए हैं।
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तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : गूगल

ईडी की करतूतों का काला चिट्ठा

पिछले एक दशक के दौरान केंद्र सरकार का राजनीतिक औजार बने चुके प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के कामकाज को लेकर सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग हाई कोर्ट में अक्सर तल्ख टिप्पणियां सुनाई देती हैं। अब सरकार ने संसद में सवालों के जवाब में इसके कामकाज का जो ब्योरा दिया है वह भी कम दिलचस्प नहीं है। 

वित्त मंत्रालय की ओर से राज्यसभा को बताया गया है कि 2015 से 2025 तक यानी पिछले 10 साल में ईडी ने 5,892 मुकदमे दर्ज किए, जिनमें सिर्फ 15 लोगों को सजा हो पाई है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प आंकड़ा यह है कि इस अवधि में ईडी ने 49 मामलों में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की। सरकार ने बड़े गर्व से बताया है कि ईडी ने नया कानून बनने के बाद से लेकर मार्च 2014 तक सिर्फ 1883 मुकदमे दर्ज किए थे। यानी हर साल औसतन 200 मामले दर्ज हुए, जबकि उसके बाद के 10 साल में हर साल औसतन 500 से ज्यादा मामले दर्ज हुए। यह आंकड़ा पहले आया हुआ है कि जिन राजनीतिक लोगों के खिलाफ ईडी ने मुकदमे दर्ज किए उनमें 95 फीसदी विपक्षी पार्टियों के नेता हैं। 

सरकार ने यह नहीं बताया है कि जिन लोगों के मामलों में क्लोजर रिपोर्ट लगाई गई है वे कौन लोग हैं, लेकिन यह जगजाहिर तथ्य है कि उनमें ज्यादातर वे लोग हैं जो भाजपा में शामिल हो चुके हैं। बहरहाल ईडी की इसी कार्यप्रणाली पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने उसे कहा है, आप एक बदमाश की तरह काम नहीं कर सकते। आपको कानून के दायरे में रह कर काम करना होगा। 

महाराष्ट्र में फिर चुनाव फिक्सिंग का इरादा? 

लगता है कि चाहे वो मुख्य चुनाव आयोग हो या राज्य चुनाव आयोग सबने तय कर लिया है कि वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे उनकी छवि सुधरे और चुनाव में निष्पक्षता कायम रहे। इस समय मुख्य चुनाव आयोग पर भाजपा के साथ मैच फिक्सिंग के साथ ही वोट चोरी करने जैसे आरोप लग ही रहे हैं कि इस बीच महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनावों की तैयारी के बीच एक नया विवाद शुरू हो गया है। राज्य चुनाव कार्यालय की ओर से कहा जा रहा है कि स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान तो ईवीएम से होगा लेकिन ईवीएम के साथ वीवीपैट मशीनें नहीं लगाई जाएंगी। इसका मतलब है कि मतदान के बाद कोई पर्ची नहीं निकलेगी और मतदाता यह नहीं देख पाएंगे कि उनका वोट किसको गया। राज्य चुनाव आयोग का कहना है कि समय कम है और दूसरे कई पदों के लिए एक साथ वोटिंग होगी इसलिए वीवीपैट मशीनें नहीं लगाई जा सकती है। 

ये चुनाव सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हो रहे हैं, अन्यथा सरकार तो किसी न किसी बहाने चुनाव टाल ही रही थी। ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट ने वीवीपैट मशीनों को अनिवार्य बनाया है और रैडम मशीनों की पर्चियों का मिलान ईवीएम के साथ करने का आदेश भी दिया गया है। इसलिए समय की कमी या कोई और बहाना उचित प्रतीत नही होता है। चुनाव आयोग के इस फैसले के बाद विपक्षी नेताओं ने इस पर सवाल उठाया है। उन्होंने इसे मैच फिक्सिंग बताना शुरू कर दिया है। अगले कुछ दिन में इस पर विवाद बढ़ेगा। विपक्षी पार्टियां बिल्कुल नहीं चाहेंगी कि बिना वीवीपैट मशीन के चुनाव हो।

उत्तराखंड में भाजपा को झटका

उत्तराखंड में पांच साल पर सत्ता बदलने की परंपरा के उलट पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने लगातार दूसरी जीत हासिल कर इतिहास बनाया। लेकिन दूसरी बार जीतने के बाद से ही पार्टी की स्थिति कमजोर होती जा रही है, जो इस बार स्थानीय निकाय चुनावों में दिखी है। हालांकि कांग्रेस और भाजपा दोनों अपनी-अपनी जीत का दावा कर रही हैं। इसका कारण यह है कि बड़ी संख्या में निर्दलीय जीते हैं, जिन पर दोनों पार्टियां दावा कर रही हैं। लेकिन हकीकत यह है कि लगातार दूसरी बार सरकार बनने के बावजूद भाजपा को झटका लगा है। भाजपा परोक्ष रूप से जिला पंचायत की 358 में से 320 सीटों पर लड़ी थी, जिनमें से 120 से कम सीट जीत पाई। यही नहीं, उसके जितने भी दिग्गज हैं उनके परिवार के सदस्य भी चुनाव हार गए। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष महेंद्र भट्ट के जिले चमोली में कुल 26 जिला पंचायत सीटों में से भाजपा समर्थित उम्मीदवार सिर्फ चार जीत पाए। कांग्रेस समर्थित उम्मीदवारों को सात सीटें मिलीं। चमोली में भाजपा के पूर्व मंत्री राजेंद्र भंडारी की पत्नी और लैंसडाउन में भाजपा विधायक महंत दिलीप की पत्नी चुनाव हार गई। चमोली जिले में भाजपा के जिला अध्यक्ष गजपाल बर्थवाल चौथे स्थान पर रहे। सल्ट से भाजपा विधायक महेश जीना का बेटा और नैनीताल की भाजपा विधायक सरिता आर्य का बेटा भी चुनाव हार गया। नैनीताल की निवर्तमान जिला परिषद अध्यक्ष व भाजपा प्रत्याशी बेला तौलिया चुनाव हार गईं। लाखो फॉलोवर और सब्सक्राइबर वाली इन्फ्लुएंसर दीपा नेगी भी भाजपा से चुनाव लड़ी थीं, जिनको सिर्फ 256 वोट मिले।

तमिल नेताओं का बिहार विरोध

तमिलनाडु के नेताओं का बिहार विरोध समझ से परे है। उन्होंने प्रवासी मजदूरों को तमिलनाडु में मतदाता बनाने के खिलाफ चेन्नई से लेकर दिल्ली तक मोर्चा खोल रखा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और देश के वित्त व गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम ने इस मुद्दे पर विस्तार से सोशल मीडिया पोस्ट लिखा है। उन्होंने तमिलनाडु मे साढ़े छह लाख बिहारी मतदाता जोड़े जाने पर आपत्ति जताते हुए लिखा है कि प्रवासी मजदूरों को उनके कामकाज की जगह पर क्यों मतदाता बनाया जा रहा है। चिदंबरम चाहते हैं कि मजदूर वोट डालने अपने गांव जाएं। उन्होंने लिखा है कि छठ पर्व मनाने के लिए मजदूर बिहार जाएंगे, तो वे वहां वोट भी डाल दें। 

सवाल है कि अगर छठ के समय चुनाव नहीं हो तो मजदूर क्या करे और क्या छठ के समय सारे मजदूर बिहार चले जाते हैं? चिदंबरम ने अपने बिहार, हिंदी या उत्तर भारत के विरोध में यह भी नही देखा कि तमिलनाडु के कितने लोग तमिलनाडु के बाहर दूसरे राज्यों में मतदाता हैं। भले ही बिहार में नहीं हैं लेकिन दिल्ली में तो बड़ी संख्या में तमिल लोग मतदाता है। उनकी अपनी बस्ती है और वे वहीं वोट डालते है। इसी तरह मुंबई में भी तमिलों की बड़ी आबादी है, जो वहां मतदाता हैं। तो क्या यह कहा जाए कि दिल्ली, मुंबई के तमिल लोग वोट डालने अपने प्रदेश क्यों नहीं चले जाते? बिहार के चुनाव से पहले चिदंबरम जैसे नेता कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर रहे हैं।

भाजपा को ईसाई मतदाताओं की फ़िक़्र

केरल में अगले साल अप्रैल-मई में विधानसभा का चुनाव होने वाला है और भाजपा को उम्मीद है कि इस बार उसका प्रदर्शन ऐतिहासिक हो सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा था। पार्टी का खाता भी खुला था और दो सीटों पर उसने कांटे की लड़ाई बना दी थी। अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद में भाजपा राज्य के ईसाई मतदाताओं को पटाने में लगी है। लेकिन इस बीच मामला बिगड़ गया छत्तीसगढ़ में, जहां दो ईसाई महिलाओं को धर्मांतरण कराने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों ननों के साथ तीन आदिवासी महिलाएं किसी कार्यक्रम में जा रही थीं, उसी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना को लेकर बड़ा विवाद हुआ। वाम दलों के साथ कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों ने इसे मुद्दा बनाया तो भाजपा की ओर से ऐसे मीम्स और कार्टून बने, जिनमें सोनिया और राहुल गांधी को चर्च के आगे नतमस्तक दिखाया गया। लेकिन जल्दी ही केरल भाजपा ने मुद्दा अपने हाथ में ले लिया क्योंकि दोनों नन केरल की रहने वाली थीं। 

केरल के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने न्यायिक प्रक्रिया में लगभग दखल देते हुए पहले ही ऐलान कर दिया कि जल्दी ही दोनों ननों को जमानत मिलेगी। कांग्रेस के खिलाफ दुष्प्रचार भी थम गया। फिर दोनों ननों को जमानत भी मिल गई। सबसे दिलचस्प तस्वीर यह थी कि केरल के भाजपा अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर खुद छत्तीसगढ़ पहुंचे थे दोनों ननों का स्वागत करने। दोनों ननों का स्वागत कर उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि भाजपा ने उनकी जमानत कराई है।

सत्येंद्र जैन को इस राहत का क्या मतलब?

ऐसा नहीं है कि अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार में मंत्री रहे सत्येंद्र जैन को भ्रष्टाचार से जुड़े हर मामले में राहत मिल गई है। उनके खिलाफ दर्ज कई मामलों में से एक मामले में क्लोजर रिपोर्ट लगाई गई है। यह मामला गलत तरीके से नियुक्ति और दूसरे विभाग का पैसा खर्च करने से जुड़ा था। उनके खिलाफ असली मामला शराब घोटाले का है, हवाला के जरिए लेन देन का है, अस्पतालों के निर्माण से जुड़ा है। इस बीच साढ़े छह सौ करोड़ रुपए के एक और कथित घोटाले का मामला उनके पर दर्ज हो गया है। इसलिए उनकी जान सांसत में रहने वाली है। फिर भी सवाल है कि एक मामले में भी उनको राहत कैसे मिली और इसका क्या मतलब है? आमतौर पर भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच में किसी विपक्षी पार्टी के नेता को राहत तभी मिलती है, जब वह भाजपा में शामिल हो जाता है। लेकिन सत्येंद्र जैन भाजपा में शामिल नहीं हुए हैं और न भाजपा के समर्थन में बयान दे रहे हैं। फिर भी भ्रष्टाचार के एक मामले में सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट लगाई है तो यह बहुत बड़ी बात है। यह एकमात्र मामला नहीं है, जिसमें सीबीआई को सबूत नहीं मिले। हैरानी की बात है कि चार साल में ही सीबीआई थक गई और कह दिया कि सबूत नहीं है, जबकि उसके कई मामले बीसों साल से चल रहे हैं। इसलिए कुछ न कुछ तो बात है, जिसकी वजह से सत्येंद्र जैन को राहत मिली है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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