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दुनिया भर में सैन्य ख़र्च में बढ़ोतरी के मायने

प्रभात पटनायक की कलम से: इन सैन्य ख़र्चों का वित्त पोषण कैसे होने जा रहा है? जहां राजकोषीय घाटे में कुछ न कुछ बढ़ोतरी होना तय है, कल्याणकारी ख़र्चों में कटौती किया जाना तय है।
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तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : गूगल

 

दुनिया भर में फ़ौजी ख़र्चों में उछाल आया हुआ है, जिसकी अगुआई यूरोप में आया उछाल कर रहा है। बेशक, फ़ौजी ख़र्चों के आकलन अलग-अलग हैं, जो इस पर निर्भर करते हैं कि किसी गिनती में क्या-क्या शामिल किया जा रहा है। बहरहाल, हम यहां अपने विश्लेषण के लिए स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI या सिपरी) के आंकड़ों को लेंगे।

सिपरी के अनुसार, वैसे तो लगातार पिछले दस साल से साल दर साल वास्तविक फ़ौजी ख़र्चों में बढ़ोतरी होती रही है, 2024 में ख़र्च में यह बढ़ोतरी, इससे एक साल के पहले के मुकाबले 9.4 फीसद रही थी, जो कि शीत युद्ध के खत्म होने के बाद से, इस ख़र्च में सबसे बड़ी सालाना बढ़ोतरी थी। 2024 में कुल वैश्विक फ़ौजी ख़र्च 27.18 खरब डालर रहा था।

ख़र्च वृद्धि के कारण

हम इस उछाल के पीछे के दो कारणों का अनुमान लगा सकते हैं। पहला तो यह कि अमरीका के नेतृत्व में उन्नत पूंजीवादी दुनिया के साम्राज्य को लगातर बढ़ती हुई चुनौती का और खासतौर पर अमरीका में आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद से नव-उदारवादी पूंजीवाद के संकट का सामना करना पड़ रहा है। दूसरा कारण इस तथ्य में निहित है कि अमरीका अब इस साम्राज्य को बरकरार रखने पर आने वाले सैन्य ख़र्चे के मुख्य हिस्से की भरपाई करने के लिए तैयार नहीं है बल्कि वह चाहता है कि उसके यूरोपीय साझीदार भी, इस बोझ का एक हिस्सा संभालें। इन कारणों से साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा सैन्य ख़र्चों में आक्रामक बढ़ोतरी किए जाने से, अन्य देशों पर भी इसके लिए दबाव पड़ रहा है कि वास्तविक मूल्य में अपने सैन्य ख़र्चों में बढ़ोतरी करें, ताकि साम्राज्यवादी विजय रथ कहीं उन्हें कुचल नहीं दे।

इन दोनों कारणों पर दो-दो शब्द कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। इस संकट के बाद से अनेक देशों ने, जो उक्त संकट से पहले अपने भुगतान संतुलन में किसी गंभीर चालू खाता घाटे का सामना नहीं कर रहे थे या जो घाटे में तो थे, लेकिन जिनके घाटों का वित्तीय प्रवाहों से वित्त पोषण किया जा सकता था, खुद को इस संकट के बाद से मुसीबत में फंसा पाया था। और महामारी के आने के बाद हालात उनके लिए बदतरीन हो गए। उनके निर्यात बाजार सिकुड़ने के साथ, उनके चालू खाता घाटे बढ़ गए। और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं से पैसा निकालने में मुश्किलें आने की आशंकाओं से, इन अर्थव्यवस्थाओं में वित्त का प्रवाह सूख गया। वे ऋण के संकट में फंस गए। ऐसा ही हश्र, महामारी के बाद और तेजी के साथ कई देशों के साथ हुआ।

चीन का हस्तक्षेप और सामराजी संकट

इन घटनाक्रमों ने उस नव-उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के प्रति मोहभंग पैदा किया, जिसे अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी ताकतों ने दुनिया पर थोपा था। इसी दौरान चीन ने, जिसने उल्लेखनीय रूप से ऊंची वृद्धि दरों का प्रदर्शन किया था, जो कम से कम शुरूआत में तो खुद महानगरीय पूंजी के ही तत्वावधान में, पूंजी के महानगरों से आर्थिक गतिविधियों के स्थानांतरण से उत्प्रेरित रहा था, और जिसके पास तगड़ी चालू खाता बचतें थीं, आगे बढ़कर ऐसे संकट के शिकार देशों को और कुछ इतने तात्कालिक रूप से संकट का सामना नहीं भी कर रहे देशों को भी कुछ राहत मुहैया करायी थी। इससे साम्राज्यवाद के प्रभुत्व के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है, जिसके खिलाफ साम्राज्यवाद सैन्य हस्तक्षेप की अपनी क्षमता को मजबूत करना चाहता है।

इसके साथ ही साथ अमरीका अपने सैन्य ख़र्च का कुछ हिस्सा, संकट की पृष्ठभूमि में अन्य साम्राज्यवादी देशों पर डालना चाहता है। यह उसी तरह है जैसे अमरीका ‘‘पड़ोसी जाएं भाड़ में’’ की नीति के जरिए, अपनी अर्थव्यवस्था पर संकट के प्रभावों को परे छिटकने के लिए, टैरिफों का सहारा ले रहा है। इस तरह उसका सैन्य ख़र्च का एक हिस्सा दूसरों के सिर पर डालना, समग्रता में साम्राज्यवादी दुनिया के सैन्य ख़र्च को बढ़ा रहा है क्योंकि यूरोप को, जो कम से कम आंशिक रूप से तो अमरीका की सैन्य छतरी के नीचे रहा ही था, अब अपने बूते पर कहीं ज्यादा सैनिक ख़र्चा करना पड़ रहा है।

रूसी ख़तरे का झूठा बहाना

यूरोपीय सरकारें, रूसी हमले के खतरे के नाम पर, अपने इस बढ़ते हुए सैनिक ख़र्च को सही ठहराने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन, यह दावा छानबीन में नहीं टिक पाता है। सचाई यह है कि सोवियत संघ के पराभव के समय, मिखाइल गोर्बाचोव से क्लिंटन प्रशासन द्वारा इसका वादा किए जाने के बावजूद कि पूर्व की ओर नाटो का विस्तार नहीं किया जाएगा, इस दौरान ऐन रूस की सीमाओं तक उसका विस्तार कर दिया गया है। और यूक्रेन में, विक्टर यानुकोविच की निर्वाचित सरकार के खिलाफ अमरीका द्वारा तख्तापलट कराया गया, जिसमें एक फासिस्टी निजाम को सत्ता में बैठा दिया गया, जिसमें युद्ध के दौर में नाजियों के सहयोगी रहे स्तेपान बंडेरा के अनुयाई शामिल थे। और इस निजाम ने रूसी-भाषी अल्पसंख्यकों के खिलाफ दमनचक्र छेड़ दिया और नाटो की सदस्यता की मांग शुरू कर दी। रूस को ही इस खतरे का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए, यूरोप के खिलाफ रूसी हमले की सारी बातें, शुद्ध साम्राज्यवादी प्रचार हैं।

यह उल्लेखनीय है कि 2024 में रूस का कुल सैन्य ख़र्च 149 अरब डालर था, जबकि नाटो के यूरोपीय सदस्यों का कुल सैन्य ख़र्चा 454 अरब डालर था यानी रूस के कुल ख़र्च से तीन गुने से भी ज्यादा। और यह तब था जबकि रूस इस समय वास्तव में युद्ध में लगा हुआ है। इसलिए, रूस से तीन गुना ज्यादा सैन्य ख़र्चा करने के लिए रूसी खतरे का बहाना बनाना, एक हास्यास्पद धोखाधड़ी है। यूरोपीय सैन्य ख़र्चे उसके अपने समीकरणों से संचालित हैं, जिनका संबंध सामराजी व्यवस्था के बनाए रखे जाने से है।

इस संदर्भ में जर्मनी के सैन्य ख़र्च में बढ़ोतरी खासतौर पर चिंताजनक है। जर्मनी के इस ख़र्च में पिछले साल 28 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद की स्थिति से लेकर, जहां जर्मनी को दोबारा अपना शस्त्रीकरण करने की इजाजत ही नहीं थी, वर्तमान अवस्था तक जहां 2024 में वह यूरोप में सबसे बड़ा सैन्य ख़र्च करने वाला और दुनिया का चौथा सबसे बड़ा सैन्य ख़र्चा करने वाला देश बन गया, बहुत भारी बदलाव आ चुका है। जर्मनी के नाजी अतीत को देखते हुए, जिसके पुनरावर्तन के लक्षण दिखाई देने लगे हैं और उसके युद्धप्रियता के खासतौर पर बदनाम इतिहास को देखते हुए, यह एक ऐसा घटनाविकास है जो बहुत ही गंभीर दुष्परिणामों को समेटे हुए है।

कल्याणकारी ख़र्चों की कीमत पर

इससे जो महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है, इस प्रकार है: साम्राज्यवादी दुनिया में सैन्य ख़र्चों में इस बढ़ोतरी और इसे और भी बढ़ाने की इन देशों की घोषित प्रतिबद्धता को देखते हुए, इन सैन्य ख़र्चों का वित्त पोषण कैसे होने जा रहा है? जहां राजकोषीय घाटे में कुछ न कुछ बढ़ोतरी होना तय है, कल्याणकारी ख़र्चों में कटौती किया जाना तय है। ऐसा खासतौर पर इसलिए है कि इस समय के पूंजीवादी सरकारों के खयाल के हिसाब से, पूंजीपतियों को कर रियायतें देना ही, अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित करने का मुख्य उपाय है।

यह डोनाल्ड ट्रम्प के राजकोषीय एजेंडा पर एक नजर डालने से साफ हो जाता है। उनके इस एजेंडा को उनके कथित ‘‘बिग ब्यूटीफुल बिल’’ में सूत्रबद्ध किया गया है, जिसे हाल ही में अमरीकी कांग्रेस ने पारित कर दिया है और जिसके सीनेट द्वारा अनुमोदन का इंतजार है। इस विधेयक के अनुसार, जहां अगले दस साल में 37.6 खरब डालर की कर रियायतें दी जा रही होंगी, ख़र्चों में कुल 13 खरब डालर की कटौती की जा रही होगी, जिससे सरकार के सकल ऋण में 25 खरब डालर की बढ़ोतरी होगी (जिसमें ब्याज का हिस्सा शामिल नहीं है)। इस विधेयक के अंतर्गत कर रियायतें प्रकटत: तो आबादी के सभी तबकों को दी जा रही होंगी, लेकिन कर तथा व्यय प्रस्तावों को जोडक़र  देखा जाए तो उनके सबसे बड़े लाभार्थी अमीर ही होंगे, जबकि गरीबों की दशा में शुद्ध गिरावट आएगी। वास्तव में, सबसे ऊपर के पायदान पर आने वाली 10 फीसद आबादी के पारिवारिक संसाधनों में आने वाले वर्षों में शुद्ध बढ़ोतरी होगी, जबकि सबसे निचले पायदान पर आने वाली 10 फीसद आबादी के पारिवारिक संसाधनों में शुद्ध गिरावट आएगी। यह गिरावट मुख्य रूप से मेडिकेड तक उनकी पहुंच घटने और स्वास्थ्य बीमा के लिए वसूली बढ़ने के चलते आ रही होगी।

जहां अमरीकी कांग्रेस ने महज एक वोट के बहुमत से उक्त विधेयक को पारित किया है और जहां सीनेट में क्या होगा यह अभी स्पष्ट नहीं है, वहीं वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी किस हद तक इस विधेयक को मंजूर करेगी, यह एक पूरी तरह से अलग ही मामला है और अभी भी स्पष्ट नहीं है। ब्रिटेन में लिज ट्रस की सरकार ने पूंजीपतियों को कर रियायतें देने के लिए, राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया था, लेकिन राजकोषीय घाटे में यह बढ़ोतरी तक वित्तीय पूंजी को मंजूर नहीं हुई थी। नतीजा यह हुआ कि वित्तीय पूंजी के देश से पलायन के चलते, विदेशी मुद्रा बाजार में ब्रिटिश पाउंड लुढ़क गया और लिज ट्रस को इस्तीफा देना पड़ गया। इस प्रक्रिया में वह ब्रिटिश इतिहास की सबसे कम समय तक पद पर रहने वाली प्रधानमंत्री बन गयीं। अगर वित्तीय पूंजी को ट्रंप का विधेयक मंजूर नहीं होता है, तो घाटे में और ज्यादा कटौती करनी होगी और इसके लिए कल्याणकारी ख़र्चों में और भारी कटौतियां करनी होंगी, जिनकी मेहतनकश जनता पर और भी कड़ी मार पड़ेगी।

महानगरीय पूंजीवाद की प्रकृति में पूर्ण बदलाव

इस तरह हम महानगरीय या विकसित दुनिया के पूंजीवाद की प्रकृति में एक पूर्ण बदलाव को देख रहे हैं। युद्धोत्तर वर्षों में पूंजीवाद को निरुपनिवेशीकरण को और घरेलू स्तर पर लगभग पूर्ण रोजगार की स्थिति को मंजूर करने के अलावा, कल्याणकारी ख़र्चों में बढ़ोतरी को स्वीकार करना पड़ा था। और यह युद्ध के बाद, उसके सामने उपस्थित अस्तित्वगत संकट का नतीजा था। इसके बाद उदारवादी विचार द्वारा महानगरीय पूंजी से छीनी गयी इन रियायतों को, पूंजीवाद की प्रकृति में एक मौलिक तथा स्थायी बदलाव के रूप में पेश किया गया। कहा जा रहा था कि पहले की लुटेरी व्यवस्था से, वह कल्याणकारी पूंजीवाद में बदल गया था। दलील दी जा रही थी कि इसके बाद, समाजवाद में संक्रमण की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती थी।

बहरहाल, इस दावे को साठ के दशक के आखिर तथा सत्तर के दशक आरंभ के मुद्रास्फीतिकारी उछाल ने नकार दिया, जो हर जगह नव-उदारवादी निजाम ले आया और जिसने महानगरीय अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी के स्तरों को ऊपर चढ़ा दिया। नव-उदारवादी पूंजीवाद के संकट ने साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए एक चुनौती पैदा की है, जो कल्याणकारी ख़र्चों से, सैन्य ख़र्चों की दिशा में और ज्यादा बदलाव ला रही है। घरेलू मोर्चे तक पर महानगरीय पूंजीवाद एक खतरनाक तरीके से लुटेरा तथा आक्रामक रूप ले रहा है, जैसा रूप दशकों से नहीं देखा गया था।

भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा सैन्य ख़र्च करने वाला देश है, जिसका नंबर अमरीका, चीन, रूस तथा जर्मनी के बाद आता है। 2024 में भारत का सैन्य ख़र्चा 86.1 अरब डालर रहा था। हमारे देश का फासिस्टी निजाम, मनरेगा जैसे कार्यक्रमों को फंड के लिए तरसाने के साथ, सैन्य ख़र्चों में बढ़ोतरी करने की हर-मुमकिन कोशिश करेगा। इस तरह वह, वही कर रहा होगा जो ट्रंप के नेतृत्व में महानगरीय पूंजीवाद करने की कोशिश कर रहा है। हमें इसके खिलाफ लड़ना होगा। 

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

Who Will Finance Recent Upsurge in Military Spending?

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