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ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव : योगी सरकार ने किया ‘लोकतंत्र का अपहरण’!

यह चुनाव इसकी एक बानगी ज़रूर है कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव कैसे लड़ेगी। उसका यह ड्रेस रिहर्सल है। चौतरफ़ा घिरी हुयी भाजपा के लिए खोई जमीन वापस पाने की लोकसभा चुनाव के पूर्व की यह सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई है। 
ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव : योगी सरकार ने किया ‘लोकतंत्र का अपहरण’!
भाजपा ने तमाम जिला पंचायत सदस्यों की घेरेबंदी कर रखी है। सीतापुर में अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने के न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार की ‘हत्या’ के प्रतिरोध में पंचायत सदस्य के समर्थक धरने पर बैठ गए।

26 जून को एक तरफ पूरा देश 46 साल पहले देश पर थोपे गए आपातकाल को याद कर रहा था, इनमें आज के भाजपायी, तब के जनसंघी भी थे; वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार लोकतंत्र का चीर-हरण कर रही थी। 

जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए नामांकन के बाद  राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा जारी सूची के अनुसार प्रदेश की लगभग एक चौथाई सीटों पर, 75 में से 18 जिलों में अध्यक्ष का निर्विरोध चुनाव हो गया, वैसे भाजपा का दावा है कि यह 25 जिलों अर्थात एक तिहाई सीटों पर होगा। जब प्रदेश में 6 महीने बाद विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तब सेमी फाइनल माने जा रहे इन चुनावों में एक चौथाई जिलों में निर्विरोध निर्वाचन किसी चमत्कार से कम नहीं है। विपक्ष के अनुसार सरकार ने उनके प्रत्याशियों को नामांकन नहीं करने दिया। गोरखपुर में कलेक्ट्रेट परिसर के गेट पर एक नेता की पिटाई का वीडियो वायरल हो रहा है। यह साफ है कि सरकार ने साम-दाम-दंड-भेद सबका इस्तेमाल कर यह सुनिश्चित किया कि जहां भी सम्भव हो विपक्ष को चुनाव-मैदान से ही बाहर कर दिया जाय-कहीं विपक्ष के घोषित प्रत्याशी को चुनाव लड़ने से पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया गया, कहीं प्रस्तावक को कलेक्ट्रेट पहुंचने नहीं दिया गया, कहीं विपक्षी उम्मीदवारों का पर्चा खारिज हो गया। 

इसे पढ़ें: यूपी: ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में बीजेपी पर धोखाधड़ी और धांधली के आरोप क्यों लग रहे हैं?

बागपत में तो विपक्ष के प्रत्याशी के भाजपा में शामिल होने की खबर आ गयी। बाद में उन्होंने कहा कि उन्हें जबरदस्ती भाजपा में शामिल कर लिया गया था, लेकिन अब वे अपने घर वापस आ गयी हैं। 

गोरखपुर जो मुख्यमंत्री का गृह-जनपद है, जाहिरा तौर पर वहां सीधे योगी जी की प्रतिष्ठा दांव पर थी। वहां पहले घोषित प्रत्याशी के यहां पुलिस पहुंची और उनके खिलाफ पुराने केस खुले, उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर  दबाव की शिकायत की, अंततः वे पीछे हट गए, उसके बाद घोषित प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव ' अज्ञात ' कारणों से नही पहुंचे, तब  आनन-फानन में जो तीसरे प्रत्याशी घोषित हुए, जब वे नामांकन के लिए चले तो रास्ते में पुलिस ने रोक दिया और केवल प्रस्तावक और जिलाध्यक्ष के साथ उन्हें जाने की इजाजत दी। जब वे कलेक्ट्रेट परिसर के गेट पर पहुंचे, वहां भाजपा प्रत्याशी के समर्थकों का हुजूम था, जहां इनके कार्यकर्ता से मारपीट हुई और ये लोग परिसर के अंदर ही प्रवेश नहीं कर पाए और नामांकन किये बिना इन्हें बैरंग वापस होना पड़ा।

दरअसल, 2 मई को जिस दिन बंगाल चुनाव में भाजपा की भारी पराजय की खबर आई, उसी दिन यहां उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई। योगी सरकार के आपराधिक कुप्रबंधन के चलते कोरोना यहां कहर बरपा कर  रहा था, गंगा में बहते शव,  नदी किनारे कब्रें और श्मशान-कब्रिस्तान पर अनगिनत लाशें, रात-दिन जलती चिताएं पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोर रही थीं, उसी बीच मोदी-योगी के बीच तनाव की खबरें भी आने लगीं। इस सब से यह धारणा बड़ी तेजी से बनने लगी कि भाजपा 6 महीने बाद होने जा रहे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निश्चित पराजय की ओर बढ़ रही है। इस आंकलन में कोई अतिशयोक्ति नहीं थी, क्योंकि जिस पार्टी का विधानसभा की 75%  सीटों पर और महज 2 वर्ष पूर्व हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 80% सीटों पर कब्ज़ा हो, वह अगर जिला पंचायत की महज 20% सीटें जीत सके और दूसरे नम्बर की पार्टी बन जाय, तो इसके और क्या मायने हो सकते हैं ! 

आम-तौर भाजपा का भोंपू बने रहने वाले मीडिया में भी यह चर्चा का विषय बनने लगी।

Perception के खेल में विधानसभा चुनाव की शुरुआत में ही पिछड़ती भाजपा, स्वाभाविक है, इस धारणा को येनकेन प्रकारेण बदलने के लिए बेचैन थी। इसलिए जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में बढ़त हासिल करना उसके लिए जीवन मरण का प्रश्न बन गया। स्वयं मुख्यमंत्री ने कमान संभाली, मन्त्रियों की जिले-जिले ड्यूटी लगी, पुलिस-प्रशासन को सक्रिय किया गया और संघ-भाजपा की पूरी मशीनरी उतर पड़ी।

इस चुनाव में सतह के नीचे आकार ग्रहण करती भविष्य की चुनावी गोलबंदियों की भी एक झलक दिखी। बसपा ने गाज़ियाबाद जैसी जगहों पर भी जहां उसके सर्वाधिक सदस्य थे,अपने प्रत्याशी नहीं उतारे, स्वाभाविक रूप से इसका लाभ भाजपा को मिलता दिख रहा है। मायावती जी ने एलान किया कि उनकी पार्टी पंचायत अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ेगी क्योंकि वे निष्पक्ष नहीं हो रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से इसमें ऊर्जा लगाने की बजाय विधानसभा चुनाव पर ध्यान देने को कहा। फिर भी, यह देखना दिलचस्प होगा कि 3 जुलाई को उनके सदस्य किसे वोट देते हैं। पश्चिम में जहां सपा, रालोद, चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी का तालमेल दिखा, वहीं पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर ने भाजपा के खिलाफ सपा को समर्थन का एलान किया। कांग्रेस और AAP पार्टी के सदस्यों पर भी चुनाव के दिन लोगों की निगाह रहेगी।

भाजपा ने तमाम जिला पंचायत सदस्यों की घेरेबंदी कर रखी है। सीतापुर में भाकपा (माले) नेता अर्जुन लाल के घर पर कल से ही पुलिस बैठी है। किसी पुराने मुकदमे के नाम पर भाजपा को वोट न देने पर गिरफ्तारी की धमकी दी जा रही है, जबकि वे एक निर्दल प्रत्याशी के प्रस्तावक हैं। अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने के न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार की दिन-दहाड़े हत्या के प्रतिरोध में उतरते हुए अब उनके समर्थक भी वहीं धरने पर बैठ गए हैं।

वैसे तो इन चुनावों का राजनीतिक दृष्टि से कोई खास महत्व  नहीं है, अगर हम पिछले चुनावों का उदाहरण देखें तो 2010, 2015 के चुनावों में भी तत्कालीन सत्तारुढ़ पार्टियां इन्हें इसी तरह लड़ती और जीतती रही हैं और उनके बाद विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारती रही हैं। 

दरअसल, यह हमारे लोकतंत्र की भयावह त्रासदी है कि बीतते समय के साथ यह अधिकाधिक कॉरपोरेट घरानों तथा धनबल-बाहुबल की ताक़तों के हाथ बंधक होता गया है। जिस पंचायती राज व्यवस्था को यह समझा गया था कि यह ग्रासरूट तक लोकतंत्र को संस्थाबद्ध करने, जिला, ब्लाक और गांव के स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण की औजार बनेगी, विडम्बना है कि वह आज स्थानीय स्तर पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त ताकतवर power-groups के लूट का अड्डा बन कर रह गयी हैं। जिन पदों के लिए जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव की बजाय प्रतिनिधियों द्वारा अप्रत्यक्ष चुनाव होता है, वहां उन विचार, मूल्य, दल-विहीन प्रतिनिधियों को खरीदना, डराना, मनचाहे ढंग से इस्तेमाल करना पार्टियों और ताकतवर उम्मीदवारों के लिए और आसान हो जाता है। इसलिए, इन पदों पर सत्ता के बल पर भाजपा अगर कब्ज़ा कर भी लेती है तो उससे विधानसभा चुनाव में उसकी संभावनाओं पर शायद ही कोई उल्लेखनीय असर पड़े।

पर यह चुनाव इसकी एक बानगी जरूर है कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव कैसे लड़ेगी। उसका यह ड्रेस रिहर्सल है। चौतरफा घिरी हुयी भाजपा के लिए खोई जमीन वापस पाने की लोकसभा चुनाव के पूर्व की यह सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई है,  desperate मोदी-शाह-योगी तिकड़ी के लिए यह चुनाव do or die battle है, यह केवल उत्तरप्रदेश का चुनाव नहीं है, वरन 2024 के लिए दिल्ली की तकदीर तय करने वाला है। यूपी में stakes बंगाल से भी हाई हैं। भाजपा ने जिस तरह बंगाल का चुनाव लड़ा ( जहां राज्य सरकार पर उसका नियंत्रण नहीं था ) और अब उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्षों का लड़ रही है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि 6 महीने बाद होने जा रहे विधानसभा चुनाव में ( जब केंद्र व राज्य दोनों सरकारों की कमान उसके हाथ होगी ) कैसे लोकतंत्र और कानून के राज की धज्जियां उड़ाई जाएंगी और फासिस्ट तरीकों से लोकतंत्र को हाईजैक करने की हर कोशिश की जाएगी।

इस पूरे घटनाक्रम की जिस बात ने सबसे ज्यादा लोगों को चौंकाया है,  वह भाजपा द्वारा खुले आम लोकतंत्र के अपहरण पर विपक्ष की passivity है।  भाजपा के जो मंसूबे और तैयारी है, विपक्ष उसके सामने बिखरा हुआ, रणनीति-विहीन, unprepared, लड़ने और प्रतिरोध की इच्छाशक्ति से रहित दिखा। 

मुख्य विपक्षी दल ने अपने 11 जिलाध्यक्षों के ख़िलाफ़ कार्रवाई किया। जाहिर है, यह wake up कॉल है। विपक्ष को निचले स्तर पर तो अपने कील-कांटे दुरुस्त करने ही होंगे और संगठन को चुस्त दुरुस्त करना ही होगा। पर यह सब प्रतिरोध से मुंह चुराने की नेतृत्व की कमजोरी का कोई विकल्प नहीं हो सकता है। फासिस्ट सत्ता अपने से टूट कर किसी की झोली में गिरने वाली नहीं!

लेकिन, जनता बदलाव के मूड में है। किसान 6 महीने से सड़क पर हैं, वे प्रदेश में " भाजपा हराओ" अभियान चलाने जा रहे हैं, छात्र-युवा रोजगार के लिए लगातार आंदोलित हैं, पहले कोरोना और आर्थिक तबाही की मार, अब ऊपर से कमरतोड़ महंगाई-आम आदमी, मध्यवर्ग, कर्मचारी,कामगार सब बेहाल हैं, सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर छले गए हाशिये के सामाजिक तबके  भाजपा से नाराज हैं।

सच तो यह है कि योगी सरकार के पास केंद्र सरकार की चंद populist योजनाओं के क्रियान्वयन से इतर गिनाने के लिए अपनी कोई उपलब्धि नहीं है।  हाल ही में Indian Express के e-अड्डा पर योगी जी ने अपने लंबे साक्षात्कार में कहा कि वह प्रदेश में अपनी सरकार द्वारा बनाये गए कथित सुरक्षा के माहौल को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं और सुरक्षा तथा समृद्धि के नाम पर वोट मांगेंगे। 

समृद्धि के उनके दावे को तो स्वयं उन्हीं की सरकार के नीति आयोग ने खारिज कर दिया जब  उसने अपने Sustainable Development Goal ( SDG ) Index में योगी के राज में उत्तर प्रदेश को देश के 5 सबसे फिसड्डी राज्यों में बता दिया,  और यह नोट किया कि उत्तर प्रदेश का रिकार्ड खास तौर से गरीबी, भूख, आय की असमानता जैसे पैमानों पर बेहद खराब रहा।

सुरक्षा के सवाल पर मुख्यमंत्री के जोर से यह स्पष्ट है कि  उनकी सरकार ने प्रदेश में जो पुलिस-राज कायम किया है, मुस्लिम-विरोधी मुहिम जिसका अभिन्न अंग है, उसे ही वे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि और USP मानते हैं। तथा इसी नाम पर वे चुनाव में उतरने वाले हैं।

सच्चाई यह है कि पिछले साढ़े चार साल से इसके नाम पर प्रदेश में सारी लोकतांत्रिक गतिविधियां ठप कर दी गईं, विपक्षी राजनीतिक दलों तक की  सामान्य धरना-प्रदर्शन जैसी कार्यवाहियां, यहां तक कि हाल के अंदर बैठक-सम्मेलन तक पर व्यवहारतः रोक लग गयी, तमाम लोकतांत्रिक ताकतों तथा सचेत नागरिक समाज के लिए तो पूरा प्रदेश जेलखाने में ही तब्दील हो गया था। समय-समय पर आंदोलन में उतरे छात्र-युवाओं, प्रतियोगी छात्रों, किसानों, कर्मचारियों, श्रमिकों सबको बर्बर पुलिसिया दमन का शिकार बनाया गया। 

ऐंटी-रोमियो स्क्वैड के नाम पर तमाम युवक-युवतियों को अपमानित किया गया, लव-जिहाद का हौवा खड़ा करके अनेक लोगों को प्रताड़ित किया गया और साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बनाने का प्रयास किया गया, गोकशी रोकने के नाम पर अनेक मासूम mob-lynching के शिकार हुए, पुलिस-इंस्पेक्टर सुबोध सिंह तक को घेर कर मारा गया।

योगी जी की ठोंक दो नीति के तहत अपराधियों के उन्मूलन के नाम पर खुले आम कानून के राज की धज्जियां उड़ाई गईं , फ़र्ज़ी एनकाउंटर हुए और अनेक मासूम भी इसके शिकार हुए, जिनमे अधिकांश अल्पसंख्यक और समाज के कमजोर तबकों से आते थे। कमजोर तबके दलित-आदिवासी-महिलाएं योगी सरकार के पुलिस-माफिया राज के लगातार निशाने पर रहे। हाथरस में बलात्कार पीड़िता मृत दलित बेटी के न्याय के रास्ते मे दबंगों के साथ स्वयं प्रदेश के आला अधिकारी ही खड़े हो गए। रिपोर्टिंग के लिए जा रहे केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को तमाम फ़र्ज़ी धाराओं में जेल में डाल दिया गया। 

प्रदेश में पुलिस-राज का नंगा नाच इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि  राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA ) के तहत गिरफ्तारियों के 54 मामलों को हाईकोर्ट ने फ़र्ज़ी माना और उन्हें खारिज कर दिया। यह सवाल जब Indian Express, e-अड्डा के साक्षात्कार में पूछा गया तो योगी जी की स्थिति बेहद असहज हो गयी।

आज जरूरत इस बात की है विपक्ष की ताकतों की व्यापक भाजपा विरोधी मोर्चेबन्दी हो जिसमें प्रदेश की तमाम लड़ाकू जनांदोलन की ताकतें, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, अंबेडकरवादी,  जनवादी-धर्मनिरपेक्ष ताकतें शामिल हों और  सबके लिए आजीविका-रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, किसानों को फसल की उचित कीमत और श्रमिकों को उचित वेतन, सबके लिए इंसाफ, कानून के राज, सुसंगत सामाजिक न्याय के जनपक्षीय साझा राजनैतिक कार्यक्रम को लेकर भाजपा सरकार के खिलाफ जुझारू जन-अभियान में उतरें। 

वैकल्पिक नीतियों और जनांदोलन के आधार पर बनी भाजपा विरोधी यह राजनीतिक गोलबंदी ही सरकार के खिलाफ व्यापक जनता के आक्रोश और नए बदलाव की आकांक्षा को एक सूत्र में पिरोकर ऐसे प्रबल जनप्रतिरोध का निर्माण कर शक्ति है जिसके आगे फासिस्ट वाहिनी का टिकना असम्भव हो जाएगा और लोकतंत्र के अपहरण की उनकी सारी साजिशें चकनाचूर हो जाएंगी।

लड़ाकू जनता को सक्रिय करके ही राजसत्ता, कॉरपोरेट, हिंदुत्व की फासिस्ट गोलबंदी का मुकाबला  किया जा सकता है और 2022 में उत्तर प्रदेश में उसे शिकस्त दी जा सकती है तथा  2024 में उसके लिए दिल्ली की राह मुश्किल की जा सकती है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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