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कटाक्ष: पूजने तो दो यारो!

मोदी जी का परिवार तो, भक्ति में विश्वास करता है। वे तो महापुरुषों की पूजा करने वाले लोग हैं। तभी तो गांधी और गोडसे की एक साथ पूजा करते हैं। अम्बेडकर और मनु की एक साथ पूजा कर लेते हैं। और फुले के साथ, ब्राह्मण संगठनों की।
PHULE
'फुले' फ़िल्म का पोस्टर

यह तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाना नहीं तो और क्या है? और कुछ नहीं मिला तो अभक्तों ने फुले की जीवनीपरक फिल्म पर सेंसर बोर्ड के यहां-वहां कैंची चलाने पर ही हंगामा कर रखा है। सेंसर बोर्ड वाले भी बेचारे क्या करते? फिल्म ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत जो कर रही थी। 

वैसे सच पूछिए तो कसूर फिल्म का भी नहीं था। जब फुले की जीवनी ही ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत करने वाली थी, फिल्म बनाने वाले बेचारे ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत होने से बचाते भी तो कहां तक बचाते। 

अव्वल तो फुले का होना यानी ब्राह्मणों की नजरों में पड़ना ही उनकी भावनाओं को आहत करने वाला था। उनकी जाति नीची जो थी। वर्ना उन्हें ब्राह्मण दोस्त की बारात में से अपमानित कर के क्यों भगाया जाता। नीची जाति में जन्म लेकर भी, लिखने-पढ़ने का काम यानी ब्राह्मणों का डबल-डबल अपमान! और उसके ऊपर से लड़कियों को और निचली जातियों के बच्चों को पढ़ाने की जिद यानी ब्राह्मणों के ऊंचे आसन को हिलाने की कोशिश। यानी ब्राह्मणों का घनघोर टाइप का अपमान ही नहीं उन पर घातक हमला। ब्राह्मणों का ट्रिपल-ट्रिपल अपमान। 

और इस सब के ऊपर ब्राह्मणों को अब अमृतकाल में इसकी याद दिलाकर चिढ़ाना कि कभी ऐसे-ऐसों ने भी उनका अपमान किया था, जबकि वे अपने अपमान की ऐसी सारी बातों को कब के भूल चुके हैं। यानी भावनाओं पर चौपल-चौपल आघात। 

विरोध तो होना ही था। विरोध होने पर सेंसर बोर्ड का अपनी कैंची पर हाथ जाना ही था; आखिर विरोध ब्राह्मणों का था, मुसलमानों या दलित-वलित का थोड़े ही था। फिर भी विरोध ब्राह्मणों का, फिल्म फुले की, कैंची सेंसर बोर्ड की और सेंसर की कैंची चलने के लिए ब्लेम मोदी जी सरकार पर! यह तो सरासर जुल्म है भाई।

और यह जुल्म भी तब है जबकि फुले की फिल्म पर सेंसर की कैंची चलना अपनी जगह, मोदी जी, फडनवीस जी आदि, आदि सारे जी लोग ने ज्योतिराव फुले की जयंती पर दिल खोलकर फूल बरसाए हैं। हैलीकोप्टर वाले न सही, हैलीकोप्टर वाले फूल कांवड़ियों और कुंभ स्नानार्थियों के लिए रिजर्व्ड सही, ट्विटर पर प्रशंसा के फूल तो बरसाए ही हैं। और यह पहली बार नहीं है जब मोदी जी के परिवार ने फुले पर शब्दों के फूल बरसाए हैं। चेक कर के देख लीजिए, पिछले बरस भी बरसाए होंगे, उससे पिछले बरस भी। मोदी परिवार जब से राज में आया है, किसी भी महापुरुष का बर्थ डे उसने, शब्दों के फूल बरसाए बिना नहीं निकलने दिया है। महापुरुषों वाले फूल बरसाए जाने की बस एक ही शर्त है, बंदा मुसलमान नहीं होना चाहिए। वर्ना शब्दों के फूलों के भी अंगार बन जाने का खतरा रहता है।

पर शब्दों के फूलों की बरसात में क्या कुछ व्यंग्य की ध्वनि नहीं आती है? फूल और वह भी सिर्फ शब्दों के! लेकिन, मोदी जी का परिवार तो, भक्ति में विश्वास करता है। वे तो महापुरुषों की पूजा करने वाले लोग हैं और पूजा के मामले में दिल में बड़ी उदारता रखते हैं। तभी तो गांधी और गोडसे की एक साथ पूजा करते हैं। ऐसे ही अम्बेडकर और मनु की एक साथ पूजा कर लेते हैं। और फुले के साथ, ब्राह्मण संगठनों की। एक बार पूजा करने का मन बना लेते हैं, फिर वे विरोधियों की एक नहीं सुनते हैं। जब मनु महाराज की पूजा करते हैं तो अम्बेडकर की नहीं सुनते हैं और जिस दिन अम्बेडकर की पूजा करते हैं, उस दिन मनु महाराज की बिल्कुल भी नहीं सुनते हैं। फुले के बर्थ डे पर फूल बरसाए तो क्या उनके खिलाफ ब्राह्मण संगठनों की शिकायतों का जरा सा भी असर पड़ने दिया? हर्गिज नहीं! 

और अम्बेडकर भक्ति तो इतनी प्रचंड है कि ग्यारह साल में खोज-खोजकर अम्बेडकर के स्मारक बनवाए हैं; देश में ही नहीं, विदेश में भी; दिल्ली-मुंबई में ही नहीं लंदन में भी। बस वे सिर्फ इतनी अर्ज करते हैं कि उनसे पुजाते रहने के लिए फुले हों या अम्बेडकर, बस मूर्ति बने रहें। उनके और अपनी पूजा के बीच, अपने विचारों वगैरह को नहीं आने दें। स्पेशली जाति के सवाल को। वर्ना? वर्ना क्या उन्हें मंदिर का घंटा और जोर-जोर से बजाना पड़ेगा। ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है, तो इसके लिए संघी भक्त जिम्मेदार नहीं होंगे।

जैसे महापुरुषों के विचारों को पूजा के बीच में नहीं आने दिया जा सकता है, वैसे ही महापुरुषों की जीवनियों को उनके लिए भक्ति के बीच में नहीं आने दिया जा सकता है। जीवनियां कौन सी पत्थर की लकीर होती हैं, उन्हें आसानी से बदला भी जा सकता है। पूरा भी क्यों बदलना, यहां-वहां से कतरना काफी होना चाहिए। जीवनी अगर सेल्युलाइड पर लिखी गयी हो, तब तो उसमें ऐसी काट-छांट और भी जरूरी हो जाती है। कागद की लिखी और छपी को अब पढ़ते ही कितने लोग हैं। पर सेल्युलाइड पर लिखी जीवनी, देखते-देखते लोगों को दिल-दिमाग में घुस जाती है और इससे ताकत वालों के सचमुच आहत होने का खतरा रहता है। इसीलिए तो अब तक किताबों के लिए बाकायदा सेंसर बोर्ड नहीं बनाया  गया है, बस लेखकों से लेकर प्रकाशकों तक तो, डराने-धमकाने से ही काम चलाया जा रहा है। पर फिल्मों के लिए बाकायदा सेंसर बोर्ड है। सेंसर बोर्ड है, तो उसके हाथ में कैंची है। और कैंची का तो धर्म ही है काटना। जीवनी फुले की हो या किसी और की, कैंची तो अपने धर्म का ही पालन करेगी। कैंची ने अपने धर्म का पालन किया और फुले की जीवनी को जगह-जगह से कतर दिया।

लेकिन, इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि कैंची हरदम चलती ही रहती है। कैंची कई बार काटते-काटते थक भी जाती है या चलना भूलकर मुग्ध भाव से सिर्फ देखते ही रह जाती है, जैसे छावा  फिल्म में। जीवनी वह भी थी, मगर कैंची नहीं चली तो नहीं ही चली। बस इतना जोड़ना काफी हुआ कि कहानी कल्पनिक है। वैसे मोदी जी का परिवार सिर्फ सेंसर बोर्ड की कैंची के आसरे भी नहीं है। मलयालम फिल्म एम्पूरन के साथ क्या हुआ? सेंसर की कैंची नहीं चली, तो मोदी जी के परिवार की लाठी चली। फिल्म बनाने वालों को खुद ही अपनी सेंसर की कैंची से बच निकली फिल्म पर, कैंची चलानी पड़ी। मोदी जी के परिवार ने यहां भी आत्मनिर्भरता करा ही दी; अपनी फिल्म, अपनी कैंची, कितना भी काटो।

रही जाति की बात, तो वह तो मुसलमानों की फैलायी अफवाह थी। इसका अंगरेजों ने दमदारी से खंडन किया होता, तो करणी सेना को आज तलवारें लेकर रक्त स्वाभिमान यात्रा नहीं निकालनी पड़ती। खैर, अब डबल इंजन के राज में दमदारी से खंडन होगा और हमें फुले का एक नया रूप दिखाई देगा, एक ऐसे योद्धा का रूप, जिसको किसी से कभी लड़ना ही नहीं पड़ा। और अगर लड़ने का बहुत ही शौक हो तो करणी सेना, ब्राह्मण सेना आदि अब भी तैयार खड़ी हैं। 

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकलहर के संपादक हैं)

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