तिरछी नज़र: ‘कांवड़ ज़रूर लाइये और ज्ञान को दूर भगाइये’

ज्ञान का दीप जलाने की शिक्षा देने वाले डॉ. गंगवार (बाएं), मिर्ज़ापुर में कांवड़ियों ने CRPF जवान को पीटा (दाएं)
सावन चल रहा है। पुराना जमाने में कवि लिखते थे और लोग गाते थे, 'सावन के झूले पड़े। तुम चले आओ, तुम चले आओ'। आज के जमाने का कोई आधुनिक कवि होगा तो वह लिखेगा, 'सावन की कांवड़ चली। तुम कहीं ना जाओ, तुम बाहर ना जाओ'। यह बात पूरे देश के लिए भले ही ठीक ना हो, उत्तर भारत के कुछ हिस्सों के लिए तो ठीक ही है।
अगर आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा या दिल्ली एनसीआर के निवासी हैं और आपके घर के आसपास से, काम पर आने जाने के रास्ते से, कहीं से भी, कांवड़िये नहीं गुजर रहे हैं तो आप भाग्यवान हैं। कम से कम सावन के पहले पंद्रह दिन तो भाग्यवान हैं ही। बारिश के मौसम में कष्ट तो होता ही है पर आपके कष्ट उन लोगों के मुकाबले कम हैं जिनके घर के पास से, काम पर आने जाने के रास्ते से कांवड़िये गुजरते हैं।
देखो, बारिश के मौसम में बाढ़ आना, सड़कों पर पानी भर जाना तो पूरे विश्व में होता है पर हमारे यहां एक बार सड़क पर पानी भर जाये तो जल्दी नहीं निकलता है, पूरे सीजन भरा रहता है। सड़क और पानी में इतना प्यार है कि एक दूसरे को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा टाइप। जब अलग होते हैं तो वादा करते हैं, फिर मिलेंगे, अगले साल फिर मिलेंगे और इसी तरह हर साल प्यार से लम्बे समय तक एक साथ रहेंगे।
लेकिन बारिश के मौसम में ये जो पुल ढह जाना, सड़कें बह जाना वाली बात है ना, यह हमारे देश की ही खासियत है। जो पुल जितना नया हो उसके गिरने के चांस उतने ही ज्यादा होते हैं। पुराने पुल कम गिरते हैं। अभी गुजरात में चालीस साल पहले बना पुल गिरा तो चैन की सांस ली। नहीं तो हर समय यही समाचार आता है कि दो साल पहले बना पुल गिर गया, दो महीने पहले बना पुल गिर गया। नई तकनीक अपनाते हैं, ड्रोन से निरीक्षण करते हैं, पैसा भी खूब लगाते है और कमीशन भी भरपूर खाते हैं फिर भी पता नहीं क्यों टिकाऊ पुल नहीं बना पाते हैं।
यही बात सड़क के बारे में है। सड़क उतने बजट में बन रही हैं जितने में, अगर बनाना चाहें तो सोने की सड़क बन जाए। सड़क बनाने की कीमत बढ़ते बढ़ते एक हज़ार करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर तक पहुंच गई है। और फिर भी सड़क सोने चांदी की नहीं, वही तारकोल, रोड़ी और सीमेंट की बन रही हैं। पर बन इतनी नाजुक रही हैं कि जैसे सोने की बनी हो। सच में इतनी नाजुक कि पहली बारिश में ही बह जाती हैं। और लोगबाग उन पर गाड़ियां चला कर गड्ढे कर देते हैं। गलती लोगों की ही है। उन्हें पता ही नहीं है कि ये सड़कें गाड़ियां चलाने के लिए नहीं, सिर्फ आकड़ों के लिए बनी हैं।
बात हम कांवड़ की कर रहे थे और बात करने लगे पुल और सड़कों की। इसी को मतिभ्रम कहते हैं। यह मुझ में ही नहीं, पूरे देश में फैला हुआ है और बहुतायत में फैला हुआ है। अब एक मास्साब, मतलब वही स्कूल के टीचर, उन्हें मतिभ्रम हो गया। स्कूल में बच्चों को कविता सुनाने लगे, 'कांवड़ लेने मत जाना, तुम ज्ञान का दीप जलाना; मानवता की सेवा करके तुम सच्चे मानव बन जाना'। इस काल में ऐसी बात कहो तो मतिभ्रम ही तो कहा जायेगा ना। कितनी गलत बात सिखा रहे थे। ठीक ही उन पर एफआईआर हो गई।
यह कोई सिखाने की बात है। कांवड़ लेने मत जाना। अरे भाई, कांवड़ लेने नहीं जायेंगे तो हुड़दंग करना कैसे सीखेंगे। गाड़ियों के शीशे तोडना कैसे सीखेंगे। रोड ब्लॉक करना कैसे सीखेंगे। एक वीडियो देखा, कांवड़ियों ने मिलकर एक एसयूवी को ही पलट दिया। शक्ति, अनुशासन और एकता का प्रतीक था वह काम। अगर कांवड़ लेने नहीं जायेंगे तो यह सब कैसे सीखेंगे, कहाँ से सीखेंगे। और जब ये सब काम नहीं करेंगे तो धर्म आगे कैसे बढ़ेगा। देश आगे कैसे बढ़ेगा।
कांवड़ लेने जाने से व्यक्ति एक और बात सीखता है। मुफ्त में खाना कैसे खाएं। जब कुछ रोजगार नहीं होगा, जेब भी खाली होगी तो पेट कैसे भरें, यह कांवड़ यात्रा सिखाती है। बहुत आसान है यह काम। आप किसी ढाबे पर जाओ। खाओ-पीओ और जब बिल देने की बारी आये तो कुछ प्याज़, अंडा, मीट निकाल दो। कुछ और नहीं तो कुक, वेटर या मालिक की आइडेंटिटी चेक करने लगो। वह आधार या किसी और डॉक्यूमेंट से चेक नहीं होती है। आइडेंटिटी तो कठमुल्ले किसी भी धर्म के हों, बस कपड़े उतार कर ही चेक करते हैं। सरकार जी बेकार में ही आधार के इतना पीछे पड़े रहे। आधार इससे लिंक करवाओ, आधार उससे लिंक करवाओ। आधार बस आइडेंटिटी से लिंक नहीं करा पाए।
मास्साब जी ने कहा, 'ज्ञान का दीप जलाना'। क्यों मास्साब, ज्ञान क्या स्कूल में ही मिलता है। सरकार तो स्कूल घटा रही है। कांवड़ को बढ़ा रही है और स्कूल को बंद कर रही है। अब कांवड़ की वजह से बहुत सारे जिलों में स्कूल हफ्ते भर के लिए बंद हैं। लेकिन आप समझ लो। ढंग से समझ लो। सरकार ज्ञान विरोधी नहीं है। व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से ज्ञान बढ़ा रही है। और आज के काल में बकवास को भी ज्ञान बना दिया गया है।
उन मास्साब ने अपनी कविता में यह भी कहा कि कांवड़ ढो कर कोई वक़ील, डीएम, एसपी नहीं बना है। भाई, आजतक नहीं बना है पर आगे तो बन सकता है ना। हो सकता है, कांवड़ ढोने के नंबर भी मिलने लगें। आईएएस, पीसीएस के साक्षात्कार में पूछा जाने लगे कि आप कांवड़ लेने गए थे या नहीं। जाने के भी नंबर मिलने लगें और न जाने पर कटने लगें। सरकार जी हैं, तो मुमकिन है। कुछ भी मुमकिन है। यह भी मुमकिन है।
तो होना तो यह चाहिए, मास्साब। और आप यही गाइये और अपने छात्रों को यही सुनाइए, 'कांवड़ जरूर लाइये और ज्ञान को दूर भगाइये'। फिर कोई आलोचना नहीं होगी। कोई एफआईआर दर्ज नहीं होगी।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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