…क्योंकि शोक का समय है!

व्यंग्य बन नहीं रहा है, शोक का समय है। हाल ही में पुलवामा में केंद्रीय सशस्त्र सेना बल के करीब चालीस जवान आत्मघाती आतंकवादी हमले में मारे गए। इससे पहले उरी में हमला हुआ था और उसके पहले पठानकोट में। कुछ मित्र लोग, जो भक्त भी हैं, वाट्सएप करते हैं कि मोदी जी को वोट देना क्योंकि उनके काल में एक भी हमला नहीं हुआ। मैं सच्चाई देखूं या भक्त लोगों की मानूं। व्यंग्य बन नहीं रहा है, अफसोस का समय है।
खबरें हैं कि इस हमले के बारे में गुप्तचर विभागों ने पहले ही सूचना दे दी थी। अमरीकी गुप्तचर विभाग के अलावा हमारे देश के गुप्तचर विभाग ने भी इस बारे में सूचना दी थी। कहा जाता है कि इतनी तक सूचना दी गई थी कि सेना के सड़क के रास्ते जा रहे काफिले पर हमला होगा। सूचना है कि आठ फरवरी को सूचना दे दी गई थी और हमला चौदह फरवरी को हुआ। पर लगता है कि चौदह आठ से पहले आ गया। क्या मोदी जी की, सरकार की, उलटी गिनती शुरू हो गई है। उलटी गिनती में ही चौदह आठ से पहले आता है। पर व्यंग्य बन नहीं रहा है, अफसोस का समय है।
चालीस के लगभग सैनिक मारे गए। एक बहुत बडे़ काफिले में सैनिक जा रहे थे। किसी सिरफिरे ने आत्मघाती हमला किया। बिना लडे़ ही चालीस वीर शहीद हो गये। लड़ कर, दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर शहीद होते तो बात समझ में आती। पर सरकार की नाकामी से ऐसे ही शहीद हो गये। इस तरह से शहीद होने पर उनके परिवार वाले भी उनकी शहादत पर गर्व नहीं महसूस करते होंगे। पर व्यंग्य का नहीं, शोक का समय है।
मुझे ध्यान है, 2015 में नेपाल में भयंकर भूकंप आया था। बताया जाता है कि उस समय मोदी जी इतना सजग थे कि नेपाल के प्रधानमंत्री को भी मोदी जी ने ही बताया था कि आपके यहाँ भूकंप आया है। हर तरह के मीडिया में इसी तरह की चर्चा थी। पर इस बार न जाने क्या हुआ। पुलवामा में हमला हुआ और घंटों बाद तक भी प्रधानमंत्री महोदय जिम कॉर्बेट पार्क में पिकनिक मनाते रहे, डिस्कवरी चैनल की शूटिंग करते रहे, चुनावी अंदाज की सभा करते रहे, विरोधियों को लपेटते रहे। जैसे प्रधानमंत्री जी को पुलवामा की घटना का पता ही न चला हो। अगर पता चल गया था तो यह पिकनिक एक बड़ा अपराध है, और अगर पता नहीं चला था तो संचार क्रांति के इस युग में पता तक न चलना और भी बड़ा अपराध है। हो तो यह भी सकता है कि किसी की हिम्मत ही नहीं हुई हो कि साहेब के आराम में खलल डाले। उधर अमित शाह भी एक अन्य रैली को संबोधित करते रहे और कांग्रेस की ऐसी की तैसी करते रहे। पर मैं व्यंग्य नहीं कर सकता क्योंकि शोक का समय है।
उन वीर जवानों की, जिन्हें सरकार की अकर्मण्यता के कारण वीरता दिखाने का अवसर ही नहीं मिला, शवयात्रा भाजपाइयों ने कुछ इस तरह निकाली जैसे भाजपा की चुनावी रैली निकाली जा रही हो। शव वाहन पर मंत्री, सांसद और नेता इसी तरह से सवार थे। सैल्फी ले रहे थे, फोटो खिंचवा रहे थे, मुस्कुरा रहे थे, हँस रहे थे। विरोधी दलों के नेताओं का व्यवहार भी बहुत अलग नहीं था। पर व्यंग्य बन नहीं रहा है, शोक का समय है।
पुलवामा के हमले के बाद सबका खून खौल रहा है। कश्मीर हमारा है। जहाँ जिसको मौका मिल रहा है कश्मीरी छात्रों को पीट रहा है, कश्मीरी व्यापारियों का सामान लूट रहा है। क्योंकि कश्मीर हमारा है पर कश्मीरी हमारे नहीं हैं। लगता है, हम जमींदार बन गये हैं। हमें जमीन से प्यार है पर उस जमीन पर रहने वाले लोगों से नहीं। कुछ जमींदार कॉलेज वालों ने तो ऐलान भी कर दिया है कि वे कश्मीरी छात्रों को अपने कॉलेज में प्रवेश नहीं देंगे। व्यंग्य है तो पर लिख नहीं पा रहा हूँ, शोक का समय है।
पुलवामा की घटना के बाद पाकिस्तान से युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है। मंत्री से लेकर मीडिया तक सभी पाकिस्तान से लड़ाई के पैरोकार बन रहे हैं। न्यूज चैनलों के एंकर पाकिस्तान पर हमले की ऐसी पैरवी करने में लगे हैं जैसे वे ही सबसे बडे़ सैन्य विशेषज्ञ हैं। सोशल मीडिया पर भी युद्धोन्माद फैलाया जा रहा है। राजनेता इस माहौल से बहुत खुश हैं। भले ही दोनों तरफ के हजारों सैनिक शहीद हों जायें, हजारों महिलाएं विधवा हो जायें और हजारों बच्चे पिता-विहीन हो जायें पर देश को युद्ध में धकेल दिया जाये। क्योंकि वोट तो इसी युद्धोन्माद से मिलेंगे। शांति की बात करनेवाले देश द्रोही बन गये हैं। व्यंग्य है तो सही पर लिख नहीं पा रहा हूँ क्योंकि शोक का समय है।
न्यूज़क्लिक से : आप पिछले कुछ समय से प्रत्येक रविवार को मेरा व्यंग्य छापते हो। पर मुझे खेद है कि व्यंग्य तो बहुत है लेकिन इस रविवार मैं लिख नहीं पा रहा हूँ क्योंकि शोक का समय है।
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