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तिरछी नज़र: दोस्त के लिए तो देश भी हाज़िर है!

ट्रंप ने फोन किया—"दोस्त, ये मेरा आख़िरी टर्म है, मुझे शांति का नोबेल चाहिए।" सरकार जी बोले—"हमें भी चाहिए!" ट्रंप बोला—"यार, इस बार मुझे ले लेने दे। तू तो ऐसा टैलेंटेड है, तुझे तो कभी भी मिल जाएगा—फिज़िक्स में, केमिस्ट्री में, मेडिसिन में! किसी में भी"
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कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

सुबह-सुबह ही संपादक महोदय का फोन घनघनाया। बोले, "इस बार कुछ लिखा नहीं?"

हम बोले, "क्या लिखें? जब देश में युद्ध चल रहा हो तो व्यंग्य लिखना वैसा ही है जैसे शव यात्रा में बाजा 'आज मेरे यार की शादी है' की धुन बजाए। वैसे भी युद्ध अपने आप में सबसे बड़ा व्यंग्य है। सभी कहते हैं, युद्ध किसी समस्या का हल नहीं होता, लेकिन हल ढूंढते वहीं हैं—गोली, बम, और एयर रेड्स में। इस विरोधाभास से बड़ा कोई व्यंग्य हो सकता है क्या?"

अब देखिए, भारत और पाकिस्तान में युद्ध-विराम हो गया। लेकिन ज़रा ठहरिए... युद्ध शुरू ही कब हुआ था? न किसी ने युद्ध की घोषणा की, न ही संसद में कुछ बोला, न रेडियो पर रात को आठ बजे ‘मेरे प्यारे देशवासियों’ आया। बस उठे और बादलों के पीछे छुप कर बदला ले लिया। फिर पाकिस्तान ने बदले के बदले में बदला लिया। और फिर उस बदले का भी बदला। बस यही सिलसिला चल रहा था कि अचानक युद्ध-विराम। 

भारत ने 22 अप्रैल को पहलगाम की घटना का जवाब दिया—छह-सात मई की रात पाकिस्तान में आतंकवादियों के नौ अड्डों पर हमला कर दिया। उस दिन आकाश में बादल थे और भारत चौदह दिन तक बादलों का ही इंतज़ार करता रहा। पाकिस्तान बोला—"हम भी चुप नहीं बैठेंगे", और जवाब में हमारे गांवों पर बिना कोई इंतज़ार किये हमला कर दिया। और फिर ड्रोन भी भेजे। हमने भी कहा—"लो फिर!" और हमने भी ड्रोन भेज दिए। बस एक तरह का ‘पिंग-पोंग’ चलता रहा। और फिर अचानक ही ऐलान हुआ, युद्ध-विराम!

अब इस युद्ध-विराम का भी एक खास तमाशा रहा। न तो भारत ने कहा "हमने युद्ध बंद किया", न पाकिस्तान ने ही ऐसा कहा। बल्कि इस युद्ध विराम की घोषणा की किसी और ने। जैसे खेल रही हों कोई दो टीम और ट्रॉफी उठा ले जाये कोई तीसरा। और तीसरा कौन, सरकार जी का परम मित्र, वर्ल्ड लीडर, डोनाल्ड ट्रम्प। हम तो सोच रहे थे कि भारत-पाक युद्ध से इस बार हमें हमारे न्यूज चैनलों से ब्रेकिंग न्यूज़ मिलेगी, ‘अफगान सीमा तक हिन्दुस्तान’। पर इससे पहले ही ट्रम्प ने आकर चैनलों को ‘साइलेंट’ कर दिया।

न्यूज़ चैनलों का हाल देखिए—उनके नक्शों में लाहौर पहले ही भारत में शामिल हो चुका था, कराँची धुआं-धुआं हो रहा था, और पाकिस्तानी राष्ट्रपति बंकर में कैद था। युद्ध बस दो दिन और चलता तो ‘इस्लामाबाद में तिरंगा’ हेडलाइन भी रेडी थी। पर अफसोस! ट्रम्प ने युद्ध-विराम का झुनझुना पकड़ा दिया, और सारे एंकरों की राष्ट्रवादी तैयारी धरी की धरी रह गई। बच्चों के वीडिओ गेम्स से बनाई गई क्लिप्स, इधर उधर से उठाए गए वीडिओ, भड़काऊ हेडलाइन सब रखी रह गईं।

अब सरकार जी की दरियादिली देखिए। जो सरकार जी गड्ढे बनवाने, झील सुखवाने और नदी नाले पर पुल बनाने का क्रेडिट भी खुद लेना पसंद करते हैं, उन्होंने इस बार पूरा क्रेडिट दोस्त को दे दिया। क्यों? क्योंकि मामला दोस्ती का था! अब जो लोग कह रहे हैं कि सरकार जी ने देश से ज्यादा दोस्त को अहमियत दी, मैं उनसे कहूंगा—"भाइयो और बहनो, जान तो एक बार दी जा सकती है पर देश, बार-बार!" पहले टैरिफ के लिए दिया, अब युद्ध-विराम के लिए।

जिसे देश देने की आदत है, वह अपने देसी दोस्तों को निराश थोड़े ही करता है। कभी हवाई अड्डा दिया, कभी रेलवे स्टेशन। और पोर्ट्स भी सौंप दिए। कोयले की खानें भी उन्हीं की। अब लीथियम चाहिए तो कश्मीर भी हाज़िर। धारा 370 का ‘प्रॉपर्टी क्लॉज’ भी फाड़ फेंका। और बताया कि पूरी 370 हटा ही दी है। और क्या? अब वक्फ की प्रॉपर्टी पर भी दिल आ गया है? कोई बात नहीं, बोर्ड में सीट दे देते हैं। कि दोस्त, तू ले ले। और जनता? जनता तो धर्म में लगी है—नमाज, आरती, और बेकार की बहस में उलझी है।

पर असल कहानी क्या है, सुनिए। 

ट्रंप ने फोन किया—"दोस्त, ये मेरा आखिरी टर्म है, मुझे शांति का नोबेल चाहिए।"

सरकार जी बोले—"हमें भी चाहिए!"

ट्रंप बोला—"यार, इस बार मुझे ले लेने दे। तू तो ऐसा टैलेंटेड है, तुझे तो कभी भी मिल जाएगा—फिजिक्स में, केमिस्ट्री में, मेडिसिन में! किसी में भी"

सरकार जी मुस्कुराए, बोले—"ले ले नोबेल, यार! दोस्त के लिए तो देश भी हाज़िर है।"

और यूं युद्ध खत्म हुआ।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

 

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