दिल्ली सरकार को राज्य में सिर्फ 32 मैला ढ़ोने वाले मिले

लम्बे समय तक देश की राजधानी में मैला ढ़ोने की प्रथा के न होने की बात करने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने आखिरकार सोमवार को मैला ढ़ोने वालों की एक सूची निकाली। लेकिन इस सूची में यह बताया गया कि राजधानी में ये काम करने वाले केवल 32 लोग हैं।
इस सूची से पता चलता है कि इस प्रथा का राजधानी में न होने का नगर निकाय का दावा गलत है। इस सर्वे को करने का निर्णय साल की शुरूआत में लिया गया , जब रिपोर्टों से पता चला कि राजधानी में पिछले 7 सालों में 31 मज़दूरों की मौतें हुई हैं। लेकिन इस सर्वे को एक बहुत प्रभावी कदम की तरह नहीं देखा जा सकता क्योंकि आँकड़ों में मज़दूरों की संख्या को कम करके दिखाया गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2015 के आँकड़े भी बताते हैं किमैला ढ़ोने के काम में किसी की मौत नहीं हुई। इसके साथ ही सरकारी रिकॉर्ड भी किसी ठेकेदार के ज़रिये गटर साफ़ करने वाले मज़दूरों का कोई आँकड़ा नहीं पेश करते।
इस साल जनवरी में स्वच्छ भारत मिशन के तहत केंद्र सरकार ने मैला ढ़ोने वालों पर एक राष्ट्रीय सर्वे शुरू किया। इसके पहले चरण में पाँच राज्यों के 164 ज़िलों के उन लोगों की गणना की जानी थी जो बाल्टियों या गड्ढ़ों को साफ़ करते हैं जिनमें रात- रात भर मैला इकट्ठा होता हैं है और जो सूखे शौचालय साफ़ करते हैं। 31 जुलाई को सामाजिक न्याय और अधिकारिकता मंत्रालय ने लोक सभा में बताया कि उन्होंने 30 जून 2018 तक 13 राज्यों में यह काम करने वाले 13,657 लोगों की पहचान की। लेकिन दिल्ली को इस सूची में शामिल नहीं किया गया।
आम आदमी पार्टी के हाल में किये गए सर्वे में दिल्ली के राजस्व ज़िलों में 11 ज़िला मजिस्ट्रेटों से जानकारी ली गयी। पूर्वी,उत्तर-पूर्वी दिल्ली और दूसरे ज़िलों ने अपने इलाकों में किसी भी मैला ढ़ोने वाले के होने से इंकार किया। लेकिन हमें यह समझना होगा कि इस सर्वे के तरीकों में कई खामियाँ थीं, जिस वजह से इस तरह के परिणाम सामने आये। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सफाई कर्मचारी आंदोलन के बेज़वाडा विल्सन ने समझाया "कई सालों तक सरकार ने मैला ढ़ोने वालों को मज़दूर मानने से भी इनकार किया और अब जब माना गया तो सर्वे के परिणाम बेहद निराशा जनक हैं और यथार्थ से काफी दूर हैं। "
जब सरकार गिनती करती है तोज़िला कलेक्टरों को एक कैंप लगाना होता है जहाँ मैला ढ़ोने वालों को खुद को पंजीकृत कराना करवाना होता है। यह बहुत बार देखा गया है कि ज़िला कलेक्टर अपने गाँवों का रिकॉर्ड बेहतर दिखाने के लिए मैला ढ़ोने वालों के होने से इंकार करते हैं। बहुत बार जब बड़े ज़िलों में कैंप होते हैं तो यह मज़दूर वहाँ तक पहुँच नहीं पाते क्योंकि उनके पास वहाँ तक जाने के लिए पैसा नहीं होता। इसमें लिंग के एक बड़े मुद्दे को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। कई रिपोर्टों ने बताया है कि इस काम को करने वालों में 90 %महिलाएँ हैं। इस काम के जातिवादी और लैंगिक स्वरुप के चलते महिलाओं को ठेकेदारों और इस काम को करने वाले मर्दों का शोषण झेलना पड़ता है। कई बार यह महिलाएँ पंजीकरण कैम्पों तक नहीं पहुँच पातीं। अकसर सर्वे करने वाले बाहर से आते हैं और ज़मीनी हकीकत को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। विल्सन ने कहा "इस काम को बहुत ख़राब माना जाता है यह भी एक वजह है कि लोग इन कैम्पों में नहीं जाते। कोई और विकल्प न होने की वजह से उन्हें यह डर रहता है कि कहीं अपनी रोज़ी रोटी न छोड़नी पड़े।"
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने यह माना है कि इस सर्वे ने शायद समस्या को ठीक से नहीं दर्शाया है। लेकिन इन मुद्दे को ढंग से समझने के लिए सरकार को आँकड़ों से परे इसे स्वास्थ्य और साफ़-सफाई की समस्या की तरह नहीं बल्कि सामाजिक बहिष्कार के रूप में देखना चाहिए। इस मुद्दे पर बात करते हुए दिल्ली विश्विद्यालय के एन सुकुमार ने कहा "भारत तभी सही मायनों में साफ़ होगा जब भारत का प्रधान मंत्री खुद का शौचालय साफ़ करेगा। मुद्दा यह है कि हम चाहते हैं कि कोई और हमारी गन्दगी साफ़ करे क्योंकि हमें पता है कि कोई न कोई यह काम करेगा। "
जातिवाद में मैला ढ़ोने वाली इस प्रथा की जड़ें पायी जाती हैं। 1993 में इस पर पाबन्दी लगा दी गयी थी लेकिन मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम में जाकर लागू किया गया ।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।