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झुग्गी-बस्तियों में टूटती ज़िंदगियां और नागरिकता पर सवाल

सवाल उठता है- आख़िर ये बस्तियों में रहने वाले लोग हैं कौन? कहां से आए हैं? क्या करते हैं? क्यों इन्हें ‘अतिक्रमणकारी’ कहकर इनके घर उजाड़े जा रहे हैं?
delhi buldozar
झुग्गी पर बुलडोज़र। तस्वीर साभार गूगल

 

“जहां झुग्गी–वहां मकान” ये प्रधानमंत्री मोदी के दो शब्द और 2022 तक सभी के सिर पर छत देने का वादा, उन लाखों लोगों के लिए एक आशा की किरण की तरह था जो वर्षों से सिर पर छत होने का सपना देखते रहे हैं। लेकिन आज जब हम 2022 के पार आ चुके हैं, तो देखते हैं कि लोगों को छत तो नहीं मिल पाई, बल्कि जो लोग गांवों से रोजगार की तलाश में शहरों की बस्तियों में अपना छोटा सा आशियाना बना पाए थे, वे भी अब बेघर होते जा रहे हैं।

दिल्ली से लेकर गुजरात, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तक के शहरों में बुलडोजर चलाकर झुग्गी-बस्तियों को तोड़ा जा रहा है। और दुखद यह है कि इस प्रक्रिया में ’न्यायपालिका’ की भी भूमिका दिखाई देती है। सवाल उठता है- आखिर ये बस्तियों में रहने वाले लोग हैं कौन? कहां से आए हैं? क्या करते हैं? क्यों इन्हें ‘अतिक्रमणकारी’ कहकर इनके घर उजाड़े जा रहे हैं? और सर्वोच्च न्यायालय भी जब इनके अधिकारों की बात करने की बजाय उन्हें इस शब्द से परिभाषित करने लगे, तो यह न केवल संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि जनतंत्र के मूल आदर्शों से भी गहरा विचलन है।

दिल्ली की बस्तियों की बात करें तो, 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 1,67,87,941 थी। इसमें से लगभग 25 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है, जबकि ये बस्तियाँ दिल्ली के कुल क्षेत्रफल के मात्र आधे प्रतिशत में फैली हैं। दिल्ली शहर कुल 1,48,400 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड (डीयूएसआईबी) के अनुसार, 2013 में दिल्ली में 700 हेक्टेयर भूमि पर कुल 685 झुग्गी-बस्तियाँ थीं इन बस्तियों में लगभग 4,18,282 झुग्गियाँ थीं, जो की दिल्ली के क्षेत्रफल के मात्र आधे प्रतिशत क्षेत्रफल में थी। 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की कुल जनसंख्या 4,25,78,150 है, जिनमें से दिल्ली में रहने वाली आबादी लगभग 20,29,755 है (हालांकि वास्तविक संख्या 40 लाख से अधिक मानी जाती है)। वर्ष 2020-22 तक ‘नोटिफ़ाईड’ बस्तियों की संख्या घटकर 675 रह गई है, जिनमें अब 3,06,521 झुग्गियाँ रह गई हैं। सिर्फ दो महीनों में लगभग 2000 झुग्गियों को तोड़ा जा चुका है।

दिल्ली की बस्तियाँ लगातार कम क्षेत्रफल में सिमटती जा रही हैं। कभी ये झुग्गी-बस्तियाँ शहर के 2 से 3 प्रतिशत हिस्से में फैली होती थीं, लेकिन आज इन्हें हटाकर यमुना किनारे खेल गांव, अक्षरधाम मंदिर जैसी परियोजनाएँ खड़ी की गई हैं। बस्तियों में रहने वाले कुछ लोगों को बवाना, नरेला और मदनपुर खादर जैसे दूर-दराज के इलाकों में भेजा गया, क्योंकि वहां औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की आवश्यकता थी।

झुग्गी-बस्तियों को बसाना और फिर उजाड़ देना यह सरकार की एक दीर्घकालिक रणनीति होती है, जो अमीरों और पूंजीपतियों की जरूरतों के अनुसार चलती है। इस बात को खुद दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने भूमिहीन कैंप की सुनवाई के दौरान स्वीकार किया था- उन्होंने कहा कि पुनर्वास का अधिकार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह मौजूदा नीति पर आधारित एक प्रशासनिक अधिकार है।

हमें यह समझना होगा कि एक समय पर बस्तियाँ क्यों बसाई गईं, और अब उन्हें किस कारण उजाड़ा जा रहा है और क्यों केवल गिने-चुने लोगों को ही पुनर्वास मिल पा रहा है।

झुग्गी-बस्ती कहां से आईं?

सत्तर के दशक के बाद दिल्ली ने एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में तेजी से विकास किया। 1980 के बाद उच्च तकनीक वाले उद्योगों का भी विस्तार हुआ जैसे इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी और कंप्यूटर के क्षेत्र में दिल्ली एक बड़ा बाजार बन गया। अब यहाँ सेवा क्षेत्र का विकास हो रहा है। धीरे-धीरे दिल्ली के उद्योगों को हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल जैसे राज्यों में स्थानांतरित किया जाने लगा। 

जब 2005 में पाँचवीं औद्योगिक गणना हुई, तो दिल्ली में 7,57,743 औद्योगिक इकाइयाँ दर्ज की गईं, जिनमें 35,56,837 मजदूर पंजीकृत थे। लेकिन 2013 की छठी गणना में देखा गया कि इकाइयों की संख्या बढ़कर 8,75,000 हो गई, पर मजदूरों की संख्या घटकर 30,19,781 रह गई। यानी उद्योग बढ़े, लेकिन मजदूरों की जगह मशीनों ने ले ली, और रोजगार के अवसर घटते चले गए। जनसंख्या के संदर्भ में देखें तो 2001 में दिल्ली की जनसंख्या 1,38,50,507 थी, जो 2011 में बढ़कर 1,67,87,941 हो गई। इससे स्पष्ट होता है की दिल्ली का बड़ा मेहनतकश आबादी औद्योगिक मजदूरों की जगह दूसरे तरह की मजदूरी-रोजगार में लगा है।

ग्रामीण भारत में विकास के नाम पर खेती, लघु उद्योग और हस्तशिल्प को नष्ट किया जा रहा है। किसानों और आदिवासियों की ज़मीनें छीनकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सेज़, औद्योगिक कॉरिडोर और खनन परियोजनाओं के लिए दी जा रही हैं। इसका नतीजा है कि गांव से पलायन बढ़ा है और भारत की लगभग 35 प्रतिशत आबादी शहरों की ओर जा चुकी है जिसे भारत के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम 80 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात करते थे।

जब ओखला औद्योगिक क्षेत्र बन रहा था, तब वहाँ काम करने वाले मजदूरों के लिए ‘संजय कैंप’ और ‘इंदिरा कैंप’ जैसी बस्तियाँ बसाई गईं। धीरे-धीरे फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर वहीं आकर बसते गए और बस्तियाँ फैलती चली गईं। इसी तरह, साउथ दिल्ली में जब एपीजे स्कूल, पंचशील एन्क्लेव, स्वामी एन्क्लेव और शेख सराय जैसे इलाकों में कोठियों और फ्लैटों का निर्माण हो रहा था, तब पास ही जगदम्बा कैंप, लाल गुंबद और स्वामी नगर जे.जे. कैंप जैसी झुग्गियाँ बसाई गईं। रोहिणी सेक्टर 18-19 के निर्माण के समय ‘बादली जे.जे. कैंप’ 1989 में बसाई गई। आज वही इलाके जब आकर्षक और विकसित हो गए हैं, तब वहाँ की बस्तियों को अवैध बताकर तोड़ा जा रहा है।

गांव से उजड़कर जब किसान-मजदूर शहर आते हैं, तो उनके लिए झुग्गी-बस्तियाँ ही एकमात्र सहारा होती हैं। जिन्हें वहाँ जगह नहीं मिल पाती, वे फैक्ट्रियों में, फुटपाथ पर, या अस्थायी ढांचों में रात गुजारते हैं। कई बार फैक्ट्रियों में आग लगने से सैकड़ों लोग मर जाते हैं और फुटपाथ पर ठंड, गर्मी या दुर्घटना से उनकी जान चली जाती है।

आज के समय में झुग्गी-बस्ती मेहनतकश जनता के लिए वैसी ही है जैसे मछली के लिए जल। अगर झुग्गियाँ नहीं रहीं, तो मजदूरों को रहने के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। सरकार की तरफ से दी गई आवासीय व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। औद्योगिक क्षेत्रों का विस्तार हुआ है, लेकिन मजदूरों के लिए आवास का कोई इंतज़ाम नहीं किया गया।

इन झुग्गियों की वजह से शहरों को सस्ते मजदूर मिल जाते हैं। इन्हीं मजदूरों के खून-पसीने से शहर बनते और चलते हैं। यहीं से फैक्ट्री मजदूर, ड्राइवर, घरेलू कामगार, राजमिस्त्री, बेलदार, प्यून, चौकीदार, पेंटर, मेड जैसे श्रमिक निकलते हैं। भारत की जीडीपी में इनका एक महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे सरकार और व्यवस्था स्वीकार नहीं करती।

यहाँ केवल आवास नहीं, बल्कि छोटे-छोटे उत्पादन और सेवाएँ भी होती हैं, जिससे लागत कम होती है। उदाहरण के लिए कीर्ति नगर के पास रेलवे लाइन के किनारे कमला नेहरू कैंप, संजय कैंप, जवाहर कैंप, इंदिरा कैंप और हरिजन बस्ती जैसी जगहों पर लगभग 200 घरों में फर्नीचर, बेड और सोफे बनाने का काम होता है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 16 लाख लोग दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं, लेकिन हकीकत इससे कहीं बड़ी है। अधिकतर बस्तियों में दो-तीन मंज़िला मकान होते हैं, जिनमें दो से तीन परिवार रहते हैं, लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में उसे एक ही यूनिट गिना जाता है। इस तरह वास्तविक संख्या 40 लाख के आसपास पहुँच जाती है।

दिल्ली की अधिकतर बस्तियाँ 30-40 साल पुरानी हैं। तब ये जगहें खाली, गड्ढों या जंगलों से भरी होती थीं। लोगों ने उन्हें साफ-सुथरा कर रहने लायक बनाया और अपनी जीवन भर की कमाई से वहां घर बनाए। समय के साथ सड़कों की ऊंचाई बढ़ा दी गई, जिससे झुग्गियों में बारिश का पानी भरने लगा। तब लोगों ने अपने घरों को और ऊँचा बनाना शुरू किया। इस तरह उन्होंने उस जमीन में अपनी पूरी पूंजी झोंक दी।

झुग्गी-बस्ती वालों की कुछ आवाज़ें

गुलाई प्रसाद, उम्र 70 वर्ष, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं और 1981 से दिल्ली के वजीरपुर बस्ती में रह रहे हैं। उनकी पत्नी लकवे की शिकार हैं, और बड़ी बेटी विधवा होकर उनके साथ ही रहती हैं। गांव में उनके पास केवल कुछ डिसमिल ज़मीन है। अब उन्हें कोई काम नहीं देता, वे पत्नी की पेंशन से गुजर-बसर करते हैं। अगर बस्ती टूट गई तो पेंशन भी बंद हो सकती है, और वे किराए का कमरा नहीं ले सकते। आज वे बताते हैं कि “पानी भी नहीं आता, 5-7 लीटर पानी में ही नहाना पड़ता है।“

सीमा, आज़मगढ़ की रहने वाली हैं। उनकी शादी 2006 में हुई और तब से वजीरपुर बस्ती में रह रही हैं। उनके सास-ससुर 40-45 साल से वहीं बसे थे। देवर की शादी में गांव गई थीं, और लौटने पर उनकी झुग्गी टूट चुकी थी- जिसमें उनका सारा सामान और तीनों बच्चों की किताबें भी दब गईं। वह कहती हैं, “आज़ादपुर में किराया 5-6 हज़ार माँगते हैं, जो हमारे लिए बहुत मुश्किल है।“

रजिया, 31 वर्ष की हैं और वजीरपुर बस्ती में ही पैदा हुईं। उन्होंने अशोक विहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की। वे कहती हैं, “जिस दिन झुग्गी टूटी, ऐसा लगा जैसे हमारा जीवन ही खत्म हो गया।“

मो. आलम, 1972 में 13 साल की उम्र में दरभंगा से दिल्ली आए थे। अब उम्र अधिक हो चुकी है, कोई काम नहीं मिलता। वे कहते हैं, “इतनी कम आमदनी में किराए पर रहना नामुमकिन है।“

राजकुमारी, गोरखपुर से हैं और पिछले आठ साल से वजीरपुर की बस्ती में 2000 रुपये किराये पर रह रही थीं। वे कहती हैं, “अब अगर बस्ती टूट गई, तो 5-6 हज़ार का कमरा लेकर रहना संभव नहीं होगा। हम 8-10 हज़ार ही कमाते हैं, तो खर्च कैसे चलेगा? सरकार को बेघरों को सहारा देना चाहिए था, लेकिन वो उल्टा कर रही है।”

रोशन सिंह, 22 साल के हैं और रोहतास (बिहार) से हैं। उनके पिता की खुद की झुग्गी थी जिसमें चार कमरे थे और पूरा परिवार वहीं रहता था। उन्हें 9500 रुपये की तनख्वाह मिलती है। अब झुग्गी टूटने के बाद वे उसी बस्ती में 2000 रुपये किराये पर रह रहे हैं। वे कहते हैं, “अगर पूरी बस्ती ही टूट गई तो दिल्ली में रहना मुश्किल हो जाएगा, हमें गांव लौटना पड़ेगा।“

मुन्नी देवी, 63 वर्ष की हैं और 1980 से वजीरपुर बस्ती में रह रही हैं। पति का निधन हो चुका है, बेटे-बहू के साथ रहती हैं। वह कहती हैं, “अब इस उम्र में हम कहां जाएं?“

जेलरवाला बाग की पुनर्वास योजना की खूब चर्चा की जाती है। दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने जोर-शोर से इसका प्रचार किया। 3 जनवरी 2025 को ‘स्वाभिमान अपार्टमेंट’ का भव्य लोकार्पण किया गया और जेलर बाग की लगभग 850 झुग्गी वालों को फ्लैट दिए गए। लेकिन 552 लोगों ने ‘स्टे’ ले रखा था उनके बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिए गए। यहां तक कि शौचालय की बिजली भी काट दी गई थी, जिसे बाद में विरोध के बाद चालू किया गया।

सी-ब्लॉक की एक महिला बताती हैं कि यहाँ कुल 1675 फ्लैट हैं, जिनमें से 1000-1100 ही लोगों को आवंटित किए गए। सावन पार्क, गोल्ड पार्क, रामपुरा और जेलबाग के लोगों को 1,76,400 रुपये जमा करके फ्लैट मिले हैं। लेकिन 10-15 लोग ऐसे हैं जो ये राशि नहीं जमा कर सके, और पुनर्वास से वंचित रह गए।

यह 16-मंज़िला इमारतें हैं जिनमें लिफ्ट लगी हैं- लेकिन चार में से दो लिफ्ट अक्सर बंद रहती थीं। बस्ती टूटने के समय सभी चालू की गईं। अभी तक सीवर लाइन शुरू नहीं हुई है, मोटर लगाकर पाइप से पानी निकाला जा रहा है। निचली मंज़िल साफ है लेकिन ऊपरी मंज़िलों पर गंदगी पसरी रहती है, कोई सफाई नहीं करता।

बस्ती में सभी लोग एक-दूसरे को जानते थे, लेकिन यहां कोई किसी से नहीं मिलता। पीने के पानी पर भारी खर्च है, पहले बस्ती में दोनों समय पानी आता था, अब खरीदना पड़ता है। 10 रुपये में मिलने वाला पानी अब 30 रुपये में मिलता है, यानी रोज़ 60 रुपये पानी पर खर्च करना पड़ता है। औरतों के लिए यह और मुश्किल है, क्योंकि ऊपर पानी लाना पड़ता है।

यहां कई बार चोरी हो चुकी है। सुरक्षा गार्डों से कहो तो वे कहते हैं, “10-12 हज़ार की नौकरी के लिए जान नहीं देंगे।“ शोर मचाने पर ही कुछ कार्रवाई हुई है। एक व्यक्ति जिसे ग्राउंड फ्लोर पर फ्लैट मिला, कहते हैं- “यहां की व्यवस्था झुग्गी-बस्ती से भी बुरी है।“ मैंने खुद पांचवीं मंज़िल पर और लिफ्ट में गंदगी देखी। अपार्टमेंट के बाहर भी इतनी गंदगी थी कि नाक दबाकर गुजरना पड़ा।

अब लोगों को डर है कि पांच साल बाद जब मेंटेनेंस का खर्च खुद देना पड़ेगा, तो कैसे निभेगा?

झुग्गी-बस्तियों के प्रति न्यायपालिका का नज़रिया

न्यायपालिका का दृष्टिकोण झुग्गी-बस्ती में रहने वाले लोगों के प्रति हमेशा सकारात्मक नहीं रहा है। उन्हें कई बार ’गंदगी फैलाने वाले’, ’प्रदूषण के स्रोत’, ’अतिक्रमणकारी’ और यहां तक कि ’चोर’ तक कहा गया। ओखला फैक्ट्री और अलमित्रा पटेल मामले में इसका स्पष्ट उदाहरण देखा जा सकता है।

यमुना नदी किनारे पुश्ता की कॉलोनियों में लगभग 1.5 लाख लोगों के 30,000 घरों को हटाने का आदेश दिया गया था। अदालत की टिप्पणी थीः

“पुनर्वास की आड़ में अतिक्रमणकारियों को प्रोत्साहित किया जाता है। करदाताओं की कीमत पर मुफ्त जमीन का वादा एक ऐसा प्रस्ताव है, जो अधिक भूमि हथियाने वालों को आकर्षित करता है। यह वैकल्पिक ज़मीन देकर जेबकतरे को इनाम देने जैसा है।”

इन टिप्पणियों में न केवल नागरिकों के रूप में बस्तीवासियों के अधिकारों की अनदेखी की गई, बल्कि जीवन और आवास जैसे मौलिक अधिकारों को भी हाशिये पर रख दिया गया।

कोरोना काल में, जब सरकार लोगों को घरों में रहने की सलाह दे रही थी, उसी समय 31 अगस्त 2020 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अरुण मिश्रा (उस समय की बैंच में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई भी शामिल थे) ने आदेश दिया कि रेलवे की ज़मीन पर बनीं 48,000 झुग्गियाँ तीन महीने के भीतर तोड़ी जाएँ। और यह भी कहा गया कि किसी भी राजनीतिक या न्यायिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाएगी।

दिल्ली में कुल 60 झुग्गी बस्तियाँ रेलवे की ज़मीन पर हैं। डीयूएसआईबी (डुसूब) के अनुसार इनमें 43,634 झुग्गियाँ हैं, और 7 बस्तियाँ रेलवे व डीडीए की संयुक्त ज़मीन पर बनी हैं, जिनमें 4,794 झुग्गियाँ हैं यानी कुल 48,428 झुग्गियाँ। इनका मतलब है कि करीब 4-5 लाख लोग बेघर किए जाने की कगार पर हैं, वह भी वैश्विक महामारी के समय।

दिसंबर 2021 में, सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार ने सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण को लेकर चिंता जताते हुए कहाः

“यह एक दुखद कहानी है जो पिछले 75 वर्षों से जारी है प्रमुख शहर झुग्गी-बस्तियों में तब्दील हो गए हैं।”

जून 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के अरावली वन क्षेत्र में बसे खोड़ी गाँव को छह हफ्ते में हटाने का आदेश दिया, जिससे 10,000 परिवार उजड़ गए। यानी 1 लाख से अधिक लोग, वह भी बिना किसी पुनर्वास योजना के, और उस समय जब महामारी की दूसरी लहर चल रही थी।

इसी तरह, तुगलकाबाद में 1000 से अधिक घर दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश से तोड़े गए। लेकिन यह न्यायपालिका उन अधिकारियों के खिलाफ सख्त नहीं हुई, जिन्होंने इन बस्तियों को बसने दिया या ज़मीनों की अवैध बिक्री की।

भूमिहीन कैंप के मामले में, दिल्ली हाई कोर्ट ने कहाः “नीति के तहत अतिक्रमणकारी तब तक पुनर्वास की अपेक्षा नहीं कर सकते जब तक उन्हें पुनर्वासित नहीं किया जाता। पुनर्वास का अधिकार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह नीति से उत्पन्न होता है।“

यह सोच संविधान के अनुच्छेद 19(1) और जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) का स्पष्ट उल्लंघन है। साथ ही यह दिल्ली सरकार की 2015 की “स्लम एंड जे.जे. पुनर्वास और पुनर्वास नीति“ का भी उल्लंघन है, जिसे दिसंबर 2017 में उपराज्यपाल ने अधिसूचित किया था। इस नीति के अनुसार, 2006 तक बसी बस्तियों और 2015 तक की झुग्गियों को तोड़ने से पहले पुनर्वास अनिवार्य है।

यह भी अजय मकान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019) के दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया था कि यह पुनर्वास नीति केंद्र सरकार की ज़मीन पर भी लागू होगी और इस बात को केंद्र सरकार के वकील ने भी स्वीकार किया था।

राजनीति और मेहनतकश जनता के साथ विश्वासघात

दिल्ली की तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ– भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस वर्षों से यह वादा दोहराती रही हैंः “जहाँ झुग्गी, वहाँ मकान“।

लेकिन सत्ता में आने के बाद, सौंदर्यीकरण और भूमि-माफिया गठजोड़ के नाम पर बस्तियों को उजाड़ने का काम तेज़ी से हुआ। जब दिल्ली में भाजपा की केंद्र सरकार सत्तासीन हुई, तो बुलडोजर की रफ्तार और तेज़ हो गई।

एक रिपोर्ट बताती है कि 2005 से 2013 के बीच “राजीव रत्न आवास योजना“ के तहत 35,000 ईडब्ल्यूएस मकान बनाए गए, जिनमें से अधिकांश आज जर्जर अवस्था में हैं और नशाखोरी के अड्डे बन चुके हैं। दरवाज़े-खिड़कियाँ, ग्रिल तक उखाड़ ली गईं। बावाना इलाके में कई मकानों के गिरने की घटनाएँ सामने आई हैं।

आम आदमी पार्टी की सरकार ने बीते पाँच वर्षों में इन झुग्गियों में से केवल 1293 परिवारों का ही पुनर्वास किया है। भाजपा इससे भी आगे बढ़कर झुग्गीवासियों को उनके मतदान के अधिकार से भी वंचित कर रही है। जिन बस्तियों को तोड़ा गया और लोगों को पुनर्वास नहीं मिला, वे लोग वोट कैसे देंगे? जब बस्ती का कोई पता ही नहीं रहेगा, तो पोलिंग बूथ भी नहीं रहेगा।

दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार से आए लोगों की है। अब जब उन्हें दिल्ली से हटाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ बिहार में भी दबाव है कि 26 जुलाई तक वे अपने मतदाता प्रमाण पत्रों को अपडेट कराएं। सवाल हैः

जब कोई मज़दूर दिल्ली में अपनी झुग्गी बचाने की जद्दोजहद में लगा हो, या सड़कों पर आ गया हो- तो वह बिहार जाकर कैसे प्रूफ देगा?

इसका नतीजा यह होगा कि बिहार की मतदाता सूची से भी उनका नाम कट जाएगा। यानी वे दोहरी नागरिकता-चूक का शिकार होंगे दिल्ली में बेघर और बिहार में वोटर से बाहर। यह उनके संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है।

अब मेहनतकश जनता को हर स्तर पर अपने नागरिक होने का प्रमाण देना पड़ेगा। और जब एसआईआर जैसे क़ानून पूरे देश में लागू होंगे, तब हालात और भी भयावह होंगे। फिर तो लोगों को रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बुनियादी मांगों को छोड़कर सिर्फ सरकार के रहमो-करम पर जीना होगा। ना शिक्षा की बात कर सकेंगे, ना स्वास्थ्य की।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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