‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’, मगर संसद में मत पहुंचाओ!

भारत में महिलाएं भले ही महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हों लेकिन संसद में उनका प्रतिनिधित्व हमेशा से कम बना हुआ है, जो चयनित उम्मीदवारों का महज़ 12 प्रतिशत है। संयुक्त राष्ट्र के मंच पर इस वर्ष 22 मार्च को हमारे देश के राजदूत ने ये जानकारी दी और कहा कि देश में 90 करोड़ की संख्या वाला मजबूत मतदाता वर्ग आगामी आम चुनाव के लिये तैयार है।
संयुक्त राष्ट्र के लिये भारत के उप स्थायी प्रतिनिधि राजदूत नागराज नायडू ने बताया कि भारतीय संविधान में ऐतिहासिक 73वें संशोधन (1992) के बाद गांव, प्रखंड, जिला स्तरीय संस्थाओं सहित सभी स्थानीय निकाय स्तर की संस्थाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया गया।
उन्होंने कहा कि आज भारत में 14 लाख निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं। निकाय स्तर पर चुने गये कुल प्रतिनिधियों में 44 प्रतिशित महिलाएं हैं जबकि भारत के गांवों में मुखिया के तौर पर 43 प्रतिशत महिलाएं चुनी गयीं हैं।
सर! राष्ट्रीय संसद में कम हैं महिलाएं
नायडू ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में महिलाएं भले ही महत्वपूर्ण पदों पर हों लेकिन राष्ट्रीय संसद में उनका प्रतिनिधित्व अब भी कम बना हुआ है। पिछले आम चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों में मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं चुन कर आईं।
उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं के लिए हताशा
लगभग दो महीने बाद हम 17वीं लोकसभा में प्रवेश कर जाएंगे। तो क्या महिलाओं की उपस्थिति के लिहाज़ से अगली संसद की सूरत बदलेगी?
देश की दो बड़ी पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है, उनमें महिलाओं की संख्या बेहद कम है। जब स्थानीय निकायों में 43 प्रतिशत महिलाएं मुखिया के तौर पर कार्य कर सकती हैं, जब वे रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री जैसे पदों पर अपने आप को बखूबी साबित कर रही हैं, फिर भी राजनीतिक पार्टियों को वे जिताऊ कैंडिडेट क्यों नज़र नहीं आतीं।
उत्तराखंड में अब तक मात्र 3 महिला सांसद
छोटे से राज्य उत्तराखंड के संदर्भ से हम पूरे देश की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं। ये हिमालयी राज्य अपनी मातृशक्ति के लिए जाना जाता है। चिपको आंदोलन हो या राज्य आंदोलन, महिलाएं यहां अगली कतार में खड़ी नज़र आती हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक यहां तक कि राज्य की आर्थिकी की रीढ़ भी महिलाएं कही जाती हैं। इसके बावजूद राजनीतिक दल महिलाओं पर भरोसा नहीं करते। उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहने से लेकर अब तक उत्तराखंड के हिस्से में मात्र 3 महिला सांसद हैं। 1951 में महारानी साहिबा कमलेंदुमति शाह ने निर्दलीय चुनाव जीता था। इसके बाद 1998 में भाजपा से इला पंत सांसद बनीं। 2014 में माला राज्यलक्ष्मी शाह सांसद चुनी गईं। माला राज्यलक्ष्मी शाह किसी पार्टी से ज़्यादा महल की प्रतिनिधि हैं। वे शायद ही कभी जनता के बीच जातीं हों। महिलाओं की अगुवाई कहीं से नहीं करतीं। वे सिर्फ अपनी राजाशाही के लिए ही जानी जाती हैं।
बिना आरक्षण नहीं बनेगी बात
राज्य में नेता प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश कहती हैं कि जब तक राजनीति में महिलाओं को आरक्षण नहीं होगा, तब तक ऐसा ही सब चलेगा। वे कहती हैं कि अब पार्लियामेंट चुनाव हो जाने दो, फिर ये लड़ाई लड़ी जाएगी। इंदिरा भी अपनी पार्टी से टिकट की दावेदार थीं।
अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) की मरियम धावले कहती हैं कि आरक्षण मिलने से पहले ग्राम पंचायतों में बहुत कम औरतें हुआ करती थीं। सरपंच तो न के बराबर थीं। आरक्षण का प्रावधान करने के बाद ही पंचायत चुनावों में औरतों को मौका मिला। इसलिए आरक्षण के बिना बहुत मुश्किल है कि औरतों को संसद में उनकी जगह मिलेगी। वे राजनीतिक दलों पर सवाल उठाती हैं कि आखिर इतने सालों से वुमन रिजर्वेशन बिल क्यों लटका हुआ है।
ये पूछने पर कि क्या औरतें राजनीति में पुरुषों की तुलना में कमज़ोर मानी जाती हैं, इसलिए उन्हें टिकट नहीं दिया जाता? मरियम धावले कहती हैं कि आदिवासियों का संघर्ष हो, असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रही औरतों का संघर्ष हो, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हों, आशा वर्कर हों, असंगठित क्षेत्र की श्रमिक हों, मनरेगा की मज़दूर हों, इनमें औरतों की ही संख्या ज्यादा है। इसलिए ऐसा नहीं है कि औरतें पब्लिक स्फेयर में नही आ सकती हैं, या नहीं आ रही हैं। मिसाल के तौर पर स्थानीय निकाय में ही देख लीजिए। जहां वे सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। मरियम कहती हैं कि ये बस मौका मिलने का सवाल है। औरतों के बारे में जिस तरह पुरुषों की सोच है, वो औरतों को नकारती है। औरतों को मौका मिलता है तो वो अपनी काबिलियत दिखाती हैं। इसलिए पुरुषों में डर है कि वे अपनी काबिलियत दिखा देगी तो उसे रोक नहीं सकेंगे। उनकी सोच है कि उसे कब्जे में रखो। मरियम कहती हैं कि आरएसएस-बीजेपी के नेता यही बात करते हैं कि औरतों को स्थान घर में रहना है, बच्चे पैदा करना है, घर के बाहर आएगी तो वो हिंसा की शिकार बनेगी, ये उनकी मनुस्मृति की सोच है। उनके खिलाफ़ संघर्ष जारी रखना पड़ेगा।
सरोजिनी कैंतुरा उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी से टिकट की दावेदार थीं। लेकिन कांग्रेस ने किसी महिला दावेदार पर भरोसा नहीं किया। सरोजिनी कहती हैं कि आवेदन तो कई महिलाओं ने किया था, लेकिन हमें टिकट नहीं मिला। उनका कहना है कि पुरुष खुद कभी महिलाओं को आगे नहीं आने देता है।
सरोजिनी कहती हैं, “उत्तराखंड का ऐसा कोई ब्लॉक नहीं, जहां मैं न गई हूं।” वे पहले दुगड्डा की ब्लॉक प्रमुख रहीं, फिर पौड़ी-गढ़वाल की ज़िला पंचायत अध्यक्ष रहीं, फिर महिला कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रहीं। इसके बाद महिला आयोग की अध्यक्ष बनीं। वे कहती हैं कि महिलाएं कमज़ोर कहीं नहीं हैं, सिर्फ उन्हें आगे आने का मौका नहीं मिल पाता है। आरक्षण में भी मेहनती महिला नहीं आ पाती, किसी की पत्नी या बेटी को टिकट मिल जाता है।
उत्तराखंड की एक मात्र महिला सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह पर सरोजिनी कहती हैं कि जो महिलाएं ज़मीन से जुड़ी होती हैं, उन्हें महिला का दर्द पता होता है। राजशाही परिवार की महिला को नहीं पता है कि गरीब के घर में चूल्हा कैसे जलता है या पानी कैसे आता है। वे तो रानी हैं, उन्हें क्या पता।
सरोजिनी बताती हैं कि कांग्रेस में टिकट के लिए महिला दावेदारों में उनके अलावा हरिद्वार से अनुपमा रावत का नाम था। अल्मोड़ा से गीता ठाकुर और आशा टम्टा का नाम था। लेकिन किसी को भी टिकट नहीं मिला।
भाजपा की प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रेखा आर्या भी अपनी पार्टी से अल्मोड़ा सीट के लिए टिकट का दावा कर रही थीं। फोन पर ये सवाल पूछने पर कि किसी महिला को टिकट नहीं मिला, वे इसका जवाब फोन कट कर के देती हैं।
पांच लोकसभा सीटों वाले राज्य में महिलाओं को टिकट नहीं मिलने पर नाराज़ देहरादून निवासी नेहा बिष्ट कहती हैं कि नारी शक्ति घर चलाने से लेकर जंगल बचाने तक ही याद आती है। ताकि मर्द एक तरफ होकर अपना हुक्का-दारू करते रहें। जब बात असली पावर की आती है तब हक़ीकत पता चलती है। गलती से कहीं कोई महिला प्रधान बन जाये तो प्रधानपति की पोस्ट अपने आप ही बन जाती है।
मतदाता के रूप में निर्णायक स्थिति में हैं महिलाएं
जबकि महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के मामले में हमारा देश लोकतांत्रिक देशों की सूची में अव्वल रहा है। लेकिन महिला उम्मीदवारों को चुनकर संसद में पहुंचाने के मामले में हम अब भी काफी पीछे हैं।
‘द वर्डिक्ट’ शीर्षक से लिखी किताब में प्रणय रॉय और दोराब आर सोपरीवाला का दावा है कि वर्ष 2019 के चुनाव में मतदाता के रूप में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होगी। वे लिखते हैं कि यदि ऐसा हुआ, तो देश के इतिहास में ये पहली बार होगा कि चुनावों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी।
‘द वर्डिक्ट’ किताब के मुताबिक फिलहाल मतदाता के रूप में महिलाओं और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर है। बल्कि विधानसभा चुनावों में महिलाओं का मत प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा है। महिला मतदाता 71 फीसदी रहीं जबकि पुरुष 70 फीसदी।
किताब के मुताबिक वर्ष 1962 में महिलाओं का मत प्रतिशत, पुरुषों के सापेक्ष 15 फीसदी कम था। लेकिन 2014 तक ये फासला महज 1.5 प्रतिशत का रहा। किताब के मुताबिक कम से कम 21 मिलियन महिलाएं इसलिए मतदान नहीं कर सकीं, क्योंकि वे पंजीकृत नहीं थी। फिर भी महिलाओं के मतदान का प्रतिशत बढ़ा है।
द वर्डिक्ट किताब उम्मीद जताती है कि महिलाओं में अपने मताधिकार को लेकर जागरुकता बढ़ी है और आने वाले चुनावों में उनकी संख्या भी बढ़ेगी।
हमें मंदिर में नहीं संसद में प्रवेश चाहिए
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे जुमले गढ़ने वाली भाजपा हो या कांग्रेस, साथ ही अन्य दल भी, जेंडर के मसले पर सामाजिक न्याय वालों की निर्लज्जता के ही सबूत हैं। देवियों के मंदिरों वाले राज्य में, और देश में भी, देवियां मंदिरों में सिर्फ पूजने के लिए हैं, सड़कों पर वे सुरक्षित चल नहीं सकतीं, बिना आरक्षण संसद में आधी आबादी के रूप में उन्हें प्रवेश मिल नहीं सकता।
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