मुफ़्त में राहत नहीं देगी हवा चालाक है...

ग़ज़लें
1.
अगर दौलत भी शामिल हो तो दौलत भी कमाती है
वगर्ना सिर्फ़ मेहनत, सिर्फ़ मेहनत ही कराती है
सवेरे दस बजे से रात के बारह बजाते हो
हमें भी भूख लगती है, हमें भी नींद आती है
अक़ीदे के कुएं से उसको बाहर खींचता हूं जब
न जाने क्यूं मेरे हाथों से रस्सी छूट जाती है
अगरचे डर है लेकिन आज़माते हैं ये नुस्ख़ा भी
ज़रा देखें हमारी बेरुख़ी क्या रंग लाती है
वो अज़्मत है कि चाहें तो क़दमबोसी करे दुनिया
मगर इक भूख के आगे वो अज़्मत हार जाती है
हवा हो जाता है लगता है ममता से भरा दरिया
किसी की मां किसी बेटी को जब ज़िंदा जलाती है
2.
सामने से कुछ सवालों के उजाले पड़ गए
बोलने वालों के चेहरे जैसे काले पड़ गए
वो तो टुल्लू की मदद से अपनी छत धोते रहे
और हमारी प्यास को पानी के लाले पड़ गए
जाने क्या जादू किया उस मज़हबी तक़रीर ने
सुनने वाले लोगों के ज़हनों पे ताले पड़ गए
भूख से मतलब नहीं, उनको मगर ये फ़िक़्र है
कब कहां किस पेट में कितने निवाले पड़ गए
जब हमारे क़हक़हों की गूंज सुनते होंगे ग़म
सोचते होंगे कि हम भी किसके पाले पड़ गए
रहनुमाई की नुमाइश भी न कर पाए ‘नदीम’
दस क़दम पैदल चले, पैरों में छाले पड़ गए
3.
चुप रहा तो घुटके रह जाएगा जीने का मज़ा
रोया तो बह जाएगा सब अश्क पीने का मज़ा
मुफ़्त में राहत नहीं देगी हवा चालाक है
लूटकर ले जाएगी मेरे पसीने का मज़ा
एक मंज़िल और हर मंज़िल के बाद आई नज़र
रफ़्ता-रफ़्ता हो गया काफ़ूर ज़ीने का मज़ा
साल भर तक एक ही मौसम न रास आएगा अब
अब ज़रूरत बन चुका है हर महीने का मज़ा
वो न हो तो प्यास का आलम ही होता है कुछ और
वो न हो तो रूठ सा जाता है पीने का मज़ा
लुत्फ़ मंज़िल तक पहुंचने की ललक में है ‘नदीम’
ख़त्म हो जाता है साहिल पर सफ़ीने का मज़ा
4.
ये सब ग़रीबों के दायरे हैं, फ़लां की मिल्लत, फ़लां का मज़हब
अमीर सारे हैं एक जैसे, कहां की मिल्लत, कहां का मज़हब
नमाज़, पूजा तो ज़ाहिरी हैं, अयां करेंगे अयां का मज़हब
कभी मुख़ातिब ख़ुलूस हो तो, बयां करेगा निहां का मज़हब
वो रोशनी हो कि तीरगी हो, जमाल हो या जलाल उसका
ज़मी पे सबकुछ निसार कर दे, यही तो है आस्मां का मज़हब
किसी पे दाढ़ी उगा रहे हैं, किसी पे चोटी लगा रहे हैं
वो गढ़ रहे हैं तवारीख़ के हर इक पुराने निशां का मज़हब
जो इससे बोले ये उसकी मां सी, जो इसको बरते उसी की मां है
यही है उर्दू की पासदारी, यही है उर्दू ज़बां का मज़हब
कोई ये कैसे यक़ीन कर ले कि दीन दुनिया से मुख़्तलिफ़ है
नदीम सूरज ने आंख फेरी, बदल गया सायबां का मज़हब
- ओम प्रकाश नदीम
(ग़ज़ल संग्रह “सामना सूरज से है” से साभार)
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