बहस: ज्ञानपीठ पुरस्कार और विनोद कुमार शुक्ल की चुप्पी

समय और समाज के जलते सवालों की ओर पीठ किए हिंदी के कलावादी/रूपवादी कवि-उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल (जन्म 1937) को वर्ष 2024 का 59वां भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा 22 मार्च 2025 को की गई। यह घोषणा करते समय पुरस्कार कमेटी ने अपने बयान में कहा कि विनोद कुमार शुक्ल को उनकी ‘सरलता’ और ‘संवेदनशीलता’ के लिए पुरस्कृत किया गया है।
अगर इस बयान को इसी रूप में लिया जाये, तो इसका मतलब हुआ, सामाजिक-राजनीतिक सरोकार और चिंता नहीं, ‘सरलता’ और ‘संवेदनशीलता’ विनोद कुमार शुक्ल के रचना संसार के प्रस्थान बिंदु हैं। यह चीज़ केंद्र में सत्तारूढ़ हिंदुत्व फ़ासीवादी ताक़तों को भाती है और भारतीय ज्ञानपीठ को भी। शासक वर्ग के साथ भारतीय ज्ञानपीठ का बहुत क़रीबी रिश्ता छुपी हुई बात नहीं है।
यह समझना ज़रूरी है कि ‘सरलता’ और ‘संवेदनशीलता’ भी कई बार उच्च वर्ग (upper class)- आधारित और उच्च जाति (upper caste)-आधारित होती हैं। वे निरर्थकता, निष्क्रियता, आत्ममुग्धता और आत्मसम्मोहन भी पैदा करती हैं। फिर यथार्थ अयथार्थ में और परिचय अपरिचय में तब्दील होने लगता है। हम कोहरे और धुंध में खोने और दिग्भ्रमित होने लगते हैं, और खंदक व खाई में गिरने के ख़तरे से अनजान आनंदित होने लगते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार इसी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। वह भाषा का मायालोक रचकर दोस्त और दुश्मन के बीच फ़र्क़ करने के हमारे विवेक को धुंधला करता है।
विनोद कुमार शुक्ल को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर कई साहित्यिक प्राणी काफ़ी प्रमुदित नज़र आ रहे हैं। कोई इसे विनोद कुमार शुक्ल का सम्मान और स्वीकार्यता बता रहा है, तो कोई कह रहा है कि ऐसा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने ख़ुद को सम्मानित किया है।
दरअसल ऐसा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने उस कलंक दलदल से बाहर निकलने की कोशिश की है, जिसमें वह धंसा हुआ है। इसके लिए उसने विनोद कुमार शुक्ल पर दांव लगाया और उन्हें अपना मोहरा बनाया।
लोगों को याद होगाा (हालांकि कुछ लोग जान बूझकर भूल जाते हैं), वर्ष 2023 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार एक किसी भद्राचार्य को दिया गया था जो हिंदुत्व फ़ासीवादी, पाखंडी और घोर मुसलमान-विरोधी रहा है। गुलज़ाार भी सह-पुरस्कृत थे। इससे भारतीय ज्ञानपीठ की बड़ी किरकिरी हुई थी। जिससे उबरने के लिए उसने इस बार विनोद कुमार शुक्ल को चुना। यह चालाकी और धूर्तता से भरा फ़ैसला है।
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार पतित और कलंकित हो चला है। अब इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। इस पुरस्कार से जुड़ना अब सम्मान की बात नहीं रही। यह पुरस्कार मरणासन्न लेखकों का आख़िरी ठिकाना बन गया है।
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ की क्या स्थिति है और उसके प्रति विनोद कुमार शुक्ल का क्या रवैया है?
छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े में पिछले क़रीब बीस वर्षों से भयानक युद्ध छिड़ा हुआ है। आग, हत्या, बलात्कार, विनाश जारी है, बूंदक़ों से गोलियों की बौछार जारी है। कश्मीर के बाद बस्तर देश का सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत (militarized) इलाक़ा बन गया है। बस्तर में अपना जल, जंगल, ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों/ माओवादियों/ राजनीतिक कार्यकर्ताओं के क़त्लेआम ने, जिसे जनसंहार (genocide) कहा जाना चाहिए, ख़ौफ़नाक रूप ले लिया है। यह बर्बर क़त्लेआम हिंदुत्व फ़ासीवादी सरकारों (केंद्र और राज्य) के सुरक्षा बलों के हाथों चल रहा है। अतीत में इस इलाके में आदिवासियों के ख़िलाफ़ सलवा जुडूम और ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसे ख़ूनी अभियान चलाए जा चुके हैं।
लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में, उपन्यासों में इस भयावह यथार्थ की रत्ती भर भी गूंज-अनुगूंज नहीं मिलेगी। इसके मुत’अल्लिक शायद ही कोई शब्द या टिप्पणी मिले। इसके बारे में उनका कोई सार्वजनिक बयान भी नहीं है। ऐसा क्यों है?
एक लेखक, जो संवेदनशील कहलाता है, ऐसे कठोर नृशंस सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से कैसे आंखें चुरा सकता है? क्या उसकी अंतरात्मा उसे कचोटती नहीं? जो बुद्धिजीवी विनोद कुमार शुक्ल से मिलते-बतियाते-इंटरव्यू करते हैं, वे उनसे यह सवाल नहीं पूछते। वे बस उन पर लहालोट होते रहते हैं। अजीब बौद्धिक पाखंड है। यह मानना होगा कि हिंदी साहित्य में विनोद कुमार शुक्ल का एक पावरफ़ुल लहालोटी स्कूल चलता है! इस स्कूल में आलोचनात्मक विवेक (critical faculty) का प्रवेश पूरी तरह वर्जित है!
दरअसल विनोद कुमार शुक्ल अपनी ही बनाई दुनिया में, अपने ही गढ़े आभासी यथार्थ में रहने के आदी रहे हैं। इसने उनको भौतिक यथार्थ से काट से दिया है।
पिछले 11 सालों से केंद्र में हिंदुत्व फ़ासीवादी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। इसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश का बेड़ा ग़र्क़ हुआ है और भारत हिंदू राष्ट्र बनने की तरफ़ बढ़ चला है। देश क़ैदख़ाना बन गया है। इस अत्यंत चिंताजनक हालत पर भी कवि-लेखक विनोद कुमार शुक्ल पूरी तरह ख़ामोश रहे हैं, और उन्होंने किसी भी प्रतिरोधी आंदोलन से अपने को दूर रखा है। उनकी यह चुप्पी—चुनी हुई, सायास चुप्पी—बहुत कुछ कहती है।
(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।