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तिरछी नज़र: अरावली का उद्धार कार्यक्रम

भले ही अरावली के ‘कायाकल्प कार्यक्रम’ पर कुछ दिन का ब्रेक लग गया है लेकिन सरकार जी जो ठान लेते हैं करके ही रहते हैं। ऐसे ही थोड़े कहा जाता है कि- फलां जी हैं तो मुमकिन है…
ARAVALLI CARTOON
तस्वीर प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

अभी अरावली पर्वतमाला के अच्छे दिन आने ही वाले थे कि शीर्ष अदालत ने स्वत: संज्ञान लेकर उस पर रोक लगा दी। 

ख़ैर, सरकार जी ने जो ठान लिया है, सो ठान लिया। देर-सबेर अच्छे दिन आ ही जाएंगे। इस रास्ते से नहीं तो उस रास्ते से। क़ानूनी तरीके से नहीं तो गैरक़ानूनी तरीके से। 

अच्छे दिन ऐसे ही आते हैं—पहले निश्चय होता है, फिर आदेश निकलता है और अंत में अदालत से उस पर ठप्पा लगवा लिया जाता है। लोकतंत्र में इससे ज़्यादा पवित्र प्रक्रिया और क्या हो सकती है? एसआईआर भी सुनते-सुनते, हाँ ना करते चल ही रहा है…। 

पिछले दिनों सरकार जी के ‘आग्रह’ पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़रमान सुनाया है कि सौ मीटर से छोटे पहाड़ों का “कायाकल्प” किया जा सकता है।

नये भारत में कायाकल्प यानी– पहले पेड़ काटिए, फिर खोदिए, उसके बाद समतल कीजिए और अंत में फैक्ट्री, कॉलोनी या मॉल बना दीजिए।

इसे विकास कहते हैं। जो इसे विनाश समझते हैं, वे अभी भी पुरानी शब्दावली में अटके हुए लोग हैं।

योजना है (जो फ़िलहाल कुछ दिन के लिए स्थगित हो गई है) छोटे-छोटे पहाड़ों पर लगे जंगल भी हटाए जाएंगे। लाखों पेड़ काटे जाएंगे। पर घबराइए मत—सरकार जी पेड़ काटने के विरोध में नहीं हैं। वे पेड़ लगाने के पक्षधर हैं।

अभी कुछ समय पहले ही तो उन्होंने कहा था—

“एक पेड़ माँ के नाम।”

हमें तो तभी समझ जाना चाहिए था। 

एक पेड़ माँ के नाम और दस हज़ार पेड़ ‘परम मित्र मंडली’ के नाम।

इसे ही शायद “मुँह में राम, बगल में छूरी” कहते हैं। यह कहावत आजकल लिखी जाती तो छूरी की जगह बुलडोज़र होता—ज़्यादा आधुनिक, ज़्यादा प्रभावशाली।

वैसे अच्छा है कि शुरुआत छोटे पहाड़ों से होनी है। बड़े पहाड़ों के लिए तो योजना पहले से ही बनी हुई है—

चौड़े-चौड़े हाईवे, लंबी-लंबी सुरंगें बनाइये। पहाड़ अपने आप ही दरक जाएगा और पूरा पहाड़ प्लेन बन जायेगा।

आज लिमिट सौ मीटर है, कल दो सौ हो जाएगी।

दो सौ से हज़ार और हज़ार से दो हज़ार।

सरकार जी हैं तो सबकुछ मुमकिन है।

देश में सीमा केवल आम आदमी के लिए होती है, विकास के लिए नहीं।

और फिर अरावली जैसी पर्वतमाला का क्या काम?

रेगिस्तान को फैलने नहीं देती,

मानसून का पानी रोक लेती है,

और नदियाँ निकाल देती है,

दिल्ली–एनसीआर को ऑक्सीजन देती है।

बताइए, ऐसी फ़ालतू चीज़ का क्या फायदा?

इसे जितनी जल्दी काटा जाये, खोदा और बुलडोज़ किया जाए, उतना ही अच्छा।

मुझे तो लगता है सरकार जी ने यह काम पहले ही कर देना था।

धर्मग्रंथों के ज्ञाता बताते हैं कि पहाड़ भी चौरासी लाख योनियों में से एक योनि होते हैं।

और इस योनि से मुक्ति मिलना लगभग असंभव है —तबतक जबतक कोई नॉन-बायोलॉजिकल न आ जाए।

अब सोचिए, अरावली के पहाड़ ढाई अरब साल से एक ही योनि में फँसे हैं।

इतनी उपेक्षा!

अब सरकार जी आए हैं—पहाड़ को मुक्ति दिलाने।

पत्थर तोड़कर, पहाड़ उड़ा कर, उसकी आत्मा को सीधा मोक्ष की ओर भेजने।

सरकार जी का ट्रैक रिकॉर्ड शानदार है—

छोटे व्यापारों का उद्धार कर चुके हैं,

दलितों-पिछड़ों का उद्धार की खबरें चलती ही रहती हैं,

अस्सी करोड़ लोगों को नौकरी से मुक्त कर पाँच किलो अनाज देकर उबार दिया है,

रुपये को नब्बे के पार पहुँचा दिया है। एक ऐसी ऊँचाई जहाँ से नीचे गिरना ही विकास कहलाता है।

अब पर्वतों की बारी है।

गुजरात से दिल्ली तक प्लेन बनाइए,

फिर हिमालय की तैयारी कीजिए।

हाँ, दो-चार शिखर जरूर बचा लेंगे।

लिखने के बाद

यह व्यंग्य लिखकर मैं सोया तो सपना आया।

एक पर्वत रो रहा था।

आँसू टप-टप गिर रहे थे।

पास गया तो देखा—कैलाश पर्वत था।

मैंने पूछा, “आप कैलाश पर्वत हैं ना?”

बोला, “हाँ।”

मैंने पूछा, “रो क्यों रहे हैं?”

बोला, “सरकार जी 2047 तक मुझे भी ज़मींदोज़ कर देंगे।

ऊपर भव्य मंदिर बनवा देंगे।”

मैंने कहा, “आप तो तिब्बत में हैं, चीन में। सरकार जी चीन से पंगा नहीं लेते।”

कैलाश रोते-रोते बोला—

“तुम नहीं समझते।

2047 तक भारत– विकसित भारत– हो जाएगा।

चीन पर भी कब्ज़ा हो जाएगा।

और विकास करने के लिए उनका पहला काम होता है—

बुलडोज़र चलाना और मंदिर बनाना।”

और कैलाश पर्वत फूट-फूट कर रोने लगा।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

 

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