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कटाक्ष: राजनाथ से माफ़ी की मांग, ये तो नाइंसाफ़ी है यारो!

सारी दुनिया को पता है कि विरोधियों से माफ़ी मांगने की मांग करना, किस का आविष्कार है। फिर भी…
RAJNATH

देखा-देखा, विपक्ष वालों का नकलचीपन देखा! कह रहे हैं कि राजनाथ सिंह को देश के पहले प्रधानमंत्री, नेहरू जी के बारे में झूठ बोलने के लिए माफी मांगनी चाहिए। अब बताइए, अपने विरोधियों से माफी मांगने की मांग करना, भगवा पार्टी की खास निशानी है या नहीं? विपक्ष वाले मुंंह बाद में खोलते हैं, मामला चाहे अडानी हो या चुनाव आयोग का हो, आरएसएस का हो या सावरकर का हो और अगर मोदी का हो तब तो कहना ही क्या, कोई संबित पात्रा या कोई किरण रिजिजू या कोई रविशंकर प्रसाद, राहुल गांधी माफी मांगो की मांग करने पहले सामने आ जाता है। 

विपक्ष वाले इतनी बेशर्मी से कैसे भगवा पार्टी का ट्रेड मार्क चुरा सकते हैं और भगवा पार्टी की मांग का तीर, उसी पर चला सकते हैं? 

माना कि भगवा पार्टी वालों ने विरोधियों से माफी की मांग करने के दांव का पेटेंट अपने नाम नहीं कराया था। कराना चाहिए था। अपने इस नायाब आविष्कार को उन्हें पेटेंट कराना चाहिए था। आपका दांव कोई दूसरा आप पर ही नहीं आजमा सके, इसी के लिए तो पेटेंट कराना जरूरी था। लेकिन, क्या पेटेंट ही सब कुछ है? नैतिकता कोई चीज नहीं है?

सारी दुनिया को पता है कि विरोधियों से माफी मांगने की मांग करना, किस का आविष्कार है। सब जानते हैं कि भगवा पार्टी वाले अपने इस आविष्कार का किस तरह रोज-रोज इस्तेमाल करते रहे हैं। सब जानते हैं कि भगवा पार्टी वाले अपने जिंदा विरोधियों पर ही नहीं, दिवंगत विरोधियों तक पर यह हथियार चलाते आए हैं, जैसे सबसे ज्यादा मौकों पर जवाहरलाल नेहरू पर और उससे थोड़ा कम इंदिरा गांधी, राजीव गांधी वगैरह पर भी। पेटेंट उनके नाम हो न हो, पर परंपरा से इस्तेमाल करते आने से तो माफी मंगवाने पर भगवा पार्टी का अधिकार बनता ही है। फिर विरोधी किस मुंह से राजनाथ सिंह से माफी की मांग कर रहे हैं?

सच पूछिए तो राजनाथ सिंह से विरोधियों का माफी की मांग करना तो और भी गलत है। कहने वाले कहते हैं कि वह नाम के ही रक्षा मंत्री हैं। वर्ना रक्षा तो वह खुद अपनी नहीं कर पा रहे हैं और हर रोज मार्गदर्शक मंडल की ओर एकाध-कदम खिसक ही जाते हैं। इससे बचने के चक्कर में वह पार्टी और सरकार में किसी के मांगे बिना भी, परमानेंटली माफी मांगने की मुद्रा में ही रहते हैं। पर कोई पैंतरा काम नहीं कर रहा; नेहरू के लिए माफी मांगने की मांग करना भी। लेकिन, क्या इसीलिए विरोधियों को राजनाथ सिंह के प्रति थोड़ा ज्यादा उदार नहीं होना चाहिए? जब घर में ही उनकी स्थायी मुद्रा माफी मांगने की है, तो क्या विरोधियों को इससे कुछ अलग नहीं करना चाहिए? अन्याय कहीं भी हो, विरोधियों का उसका विरोध करना तो बनता है। विरोधी, इस मामले में विरोध का अपना धर्म कैसे भूल सकते हैं?

फिर राजनाथ सिंह से विरोधी माफी की मांग किसलिए रहे हैं? कह रहे हैं कि राजनाथ सिंह ने यह झूठ बोला है कि जवाहरलाल नेहरू, सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे। सरदार पटेल ने ऐसा नहीं होने दिया। इससे खिसियाकर नेहरू जी ने सोमनाथ के मंदिर के निर्माण के लिए पैसा देने से मना कर दिया, वगैरह। यह सरासर गलत है बल्कि झूठ है। और तो और विरोधी, सरदार की बेटी मणिबेन डायरी के पन्ने निकाल लाए हैं और उसे राजनाथ सिंह की बात के झूठ होने का सबूत बता रहे हैं। बेशक, मणिबेन ने अपनी डायरी में जो लिखा है, वह झूठ क्यों होने लगा? जरूर तब वही हुआ होगा, जो मणिबेन ने डायरी में लिखा है। न नेहरू जी ने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनाने चाही होगी और न सरदार पटेल ने उसका विरोध किया होगा। माना कि सरदार पटेल बहुत बार नेहरू जी का विरोध करते थे, पर सरदार भी विरोध तो तभी कर सकते थे, जब नेहरू जी बाबरी मस्जिद बनाना चाहते होते।

लेकिन, इतने भर के लिए राजनाथ सिंह की बात को झूठा कहना, सही है क्या? असल में ऐसे मामलों को झूठ और सच के खानों में बांटकर देखना ही गलत है। और इस तरह की भौतिकवादी दलीलों के पीछे भागना तो और भी गलत है कि सरदार ने अपने जीते-जी तो किसी को बाबरी मस्जिद गिराने नहीं दी थी। और जब मस्जिद साबुत खड़ी थी, तो नेहरू जी सरकारी पैसे से उसे बनवाने की सोचते भी तो कैसे? 

सरदार पटेल 1950 में परलोक सिधार गए और नेहरू जी 1964 में। उनका सच उनके साथ चला गया। अब हम क्या 1950 के सच पर ही अटके रहेंगे या मणिबेन ने जो सच बताया उस पर? पचहत्तर साल में गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है। इस दौरान बहुत कुछ हो चुका है। आडवाणी की रथयात्रा भी हो चुकी है और मस्जिद को भीड़ जुटाकर गिराया भी चुका है। अदालत के फैसले के नाम पर, मंदिर वहीं बनाया भी जा चुका है और अभी पिछले ही दिनों, मंदिर पर मोदी द्वारा झंडा भी फहराया जा चुका है। 

1950 का सच अलग था, 2025 का सच अलग है! 1950 में जहां मस्जिद थी, 2025 में वहीं मंदिर है, इससे अलग और नया सच क्या होगा? और जब सब नया है, तो नेहरू और पटेल के बीच बहस का सच, नया और मणिबेन की डायरी वाले सच से डिफरेंट क्यों नहीं हो सकता?

तब का सच जो था सो था, आज का सच यही है कि जवाहरलाल नेहरू सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे और सरदार पटेल ने उन्हें ऐसा करने से रोका था! और अगर वाकई विरोधी इसे झूठ मानते हैं तो एफीडेविट देकर कहें कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद, जवाहरलाल नेहरू सरकारी पैसे से मस्जिद दोबारा नहीं बनवाते या सरदार पटेल उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकते! राजनाथ सिंह ने जो कहा है, उसमें झूठ नहीं है, बस अपनी कल्पना के सहारे उन्होंने सच की जरा सी अपडेटिंग की है; सच को अमृतकालीकरण किया है।

राजनाथ सिंह सच का अमृतकालीकरण नहीं करते थे, तो 6 दिसंबर को शौर्य दिवस कैसे मनाते? राजस्थान के शिक्षा मंत्री को 2025 में भी स्कूलों में बच्चों से शौर्य दिवस नहीं मनवाने दिया, तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि राजनाथ सिंह भी शौर्य दिवस नहीं मनाएंगे। आखिर, अपने झंडारोहण वाले भाषण में 6 दिसंबर के शौर्य का यशोगान तो मोदी जी ने भी किया हीथा। राजनाथ सिंह ने तो उनका अनुसरण ही किया है, बस शौर्य दिवस में जरा सा नेहरू जी के मस्जिद-समर्थन का तड़का लगाया है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

 

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