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AGR पर SC का फ़ैसला: न्यायिक क्षेत्राधिकार के अतिक्रमण का मामला

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में नीतिगत फ़ैसले का गहन न्यायिक परीक्षण किया गया है, खासतौर पर दूरसंचार कंपनियों द्वारा 20 साल में भुगतान की योजना को रद्द किया जाना इसी चीज को दर्शाता है। यह शक्तियों के विभाजन की अवधारणा का सुप्रीम कोर्ट के ही पुराने फ़ैसले, जिनके ज़रिए कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप ना करने के लिए ‘भयादोहन का नियम’ बनाया गया था, ताजा फ़ैसला उन पुराने फ़ैसलों का उल्लंघन है। बॉम्बे हाईकोर्ट में वकील रोहन देशपांडे सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले का परीक्षण कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट

एक सितंबर, 2020 को जस्टिस अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली तीन जजों की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने टेलीकॉम कंपनियों के AGR (एडजस्टेड ग्रॉस रिवेन्यू) भुगतान से जुड़े विवाद पर फ़ैसला देकर उसे खत्म कर दिया है।

याद दिलाना होगा कि 24 अक्टूबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने 'दूरसंचार विवाद समाधान एवम् अपील अधिकरण' के फ़ैसले को खारिज़ कर दिया था। कोर्ट ने दूरंसचार विभाग (DoT) की AGR से जुड़ी व्याख्या से सहमति जताई थी, और माना था कि इसमें 'नॉन-कोर टेलीकॉम' गतिविधियों से हासिल होने वाला राजस्व भी जोड़ा जाएगा। इस परिभाषा और अब हाल में 20 साल पुराने विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद, इन कंपनियों को दूरसंचार विभाग को करीब 1.47 लाख करोड़ रुपये चुकाने होंगे।

शुरुआत में कोर्ट ने बकाया चुकाने के लिए 90 दिन का वक़्त तय कर दिया था। 24 जनवरी, 2020 को इस अंतिम तारीख़ से पहले दूरसंचार कंपनियों की पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज़ कर दिया गया। फिर कंपनियों ने कहा कि बकाया चुकाने के लिए वक़्त काफ़ी कम है। कंपनियों ने पैसा चुकाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने अंतिम तारीख़ बढ़ाने की मांग की। जब यह अपील लंबित ही थी, तभी दूरसंचार विभाग ने कंपनियों को पैसा चुकाने से तात्कालिक राहत दे दी। लेकिन इसे कोर्ट के फ़ैसले को प्रभावित करने वाला कदम माना गया और 14 फरवरी, 2020 को स्वत: संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने विभाग के एक अधिकारी के खिलाफ़ क अवमानना की कार्रवाई चालू कर दी। साथ में दूरसंचार कंपनियों के प्रबंध निदेशकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। नोटिस में कोर्ट के पुराने आदेश के हिसाब से भुगतान ना कर पाने पर, उनके खिलाफ़ अवमानना की प्रक्रिया ना चलाए जाने की वज़ह पूछी गईं।

"M.P. ऑयल एक्सट्रेक्शन बनाम मध्यप्रदेश (1997)" में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था: "कार्यकारी और विधायी कदमों पर न्यायिक परीक्षण की शक्ति को संवैधानिक योजना के दायरे में रखना चाहिए, ताकि गैरवांछित न्यायिक सक्रियता के चलते न्यायपालिका की भूमिका पर गलतफ़हमी बनाने वाले मौके ना आएं। लोकतांत्रिक ढांचे को तब तक सुचारू ढंग से नहीं चलाया जा सकता, जब तक संविधान के तीनों अंग (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) एक-दूसरे के प्रति आपसी सम्मान और अपने-अपने क्षेत्राधिकारों में सर्वोच्चता की जरूरत ना दिखाएं।"

स्वाभाविक तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ ही कंपनियों को 90 दिन में बकाया चुकाना था। लेकिन दूरसंचार विभाग ने समयसीमा बढ़ाने का जो फ़ैसला दिया था, वह कानूनी तरीके से तर्कसंगत था। कोर्ट किसी लेनदार पर पैसे लेने के लिए दबाव नहीं डाल सकता, जबकि लेनदार पैसे लेने का इच्छुक ही ना हो। खासकर ऐसा तब जरूरी समझ आता है, जब लेनदार द्वारा पूरी दूरसंचार उद्योग के आर्थिक हालातों को देखकर यह छूट दी जा रही हो।

18 मार्च, 2020 को कोर्ट का एक और आदेश जारी हुआ, जिसमें दूरसंचार विभाग को खूब खरी-खोटी सुनाई गई। इसकी वजह विभाग का वह आदेश था, जिसमें कंपनियों पर बकाए के दोबारा विश्लेषण के लिए नोटिस जारी किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने विभाग के प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया। हैरान करने वाली बात थी कि सुनवाई के दौरान कोर्ट ने मीडिया पर AGR फ़ैसले में "गलत और भ्रामक" रिपोर्ट्स जारी करने के आक्षेप लगाए और उनके खिलाफ़ टिप्पणियां कीं। 

18 मार्च 2020 को बकाया पैसे के दोबारा विश्लेषण के अलावा, दूरसंचार विभाग (DoT) ने एक ऐसे आवेदन पर हामी भरी, जिसमें कंपनियों को बकाया पैसे को अगले 20 साल में भरने की अनुमति देने की अपील की गई थी। विभाग के इस फ़ैसले का आधार, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (जिसमें बेहद कम वक़्त में कंपनियों को बकाया पैसा चुकाने को कहा गया) का अर्थव्यवस्था, रोज़गार, बाज़ार प्रतिस्पर्धा और ग्राहकों पर पड़ने वाले असर का विश्लेषण था। यह पूरी तरह से एक कार्यकारी फ़ैसला था, जिसे नीतिगत वज़हों को ध्यान में रखते हुए लिया गया था।

लेकिन विभाग की इस अपील को भी सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में अतार्किक माना और इस पर कोर्ट के निर्णय और सहमति के बाद ही आगे बढ़ने को कहा। 18 जून, 2020 को समय बढ़ाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों को 31 मार्च 2020 तक के "फायनेंशियल स्टेटमेंट" ज़मा करने के लिए कहा। जबकि यह आवेदन दूरसंचार विभाग के निर्देश पर लगाया गया था, ना कि इसके लिए टेलीकॉम कंपनियों ने गुहार लगाई थी। हालांकि इन कंपनियों ने इस आवेदन का समर्थन किया था। 

दूरसंचार विभाग की इसी याचिका पर एक सिंतबर, 2020 को फ़ैसला आया है। कोर्ट ने मामले में मुख्यत: अपनी प्राथमिक राय को बरकरार रखा और फ़ैसला में कहा कि DoT ने AGR के बकाया पैसे को चुकाने के लिए 20 साल दिए जाने की जो मांग रखी है, वह अवधि "बहुत ज़्यादा" है। कोर्ट ने इस अवधि को घटाकर 10 साल कर दिया। मतलब कंपनियों को अब AGR का बकाया पैसा 10 साल में चुकाना होगा।

कार्यपालिका के नीतिगत फ़ैसलों में इस तरह का कड़ा न्यायिक परीक्षण, ख़ासतौर पर 20 साल वाली योजना को रद्द करना परेशान करने वाला है। बता दें AGR मामले में कोर्ट ने खुद माना है कि यह कार्यपालिका का नीतिगत फ़ैसला था। इससे ना केवल "शक्तियों के विभाजन" की अवधारणा खारिज़ होती है, बल्कि कार्यपालिका के नीतिगत फ़ैसलों में हस्तक्षेप पर "भयादोहन के कानून" को बनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के ही पुराने फ़ैसलों का उल्लंघन भी है।

‘प्रीमियम ग्रेनाइट्स बनाम् तमिलनाडु (1994)’ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "यह कोर्ट का क्षेत्राधिकार नहीं है कि वो गैरसूचीबद्ध नीतिगत फ़ैसलों के समुद्र में डुबकी लगाकर बताए कि किसी सार्वजनिक नीति से जुड़ी कोई कार्रवाई बुद्धिमानीपूर्ण है या फिर उससे बेहतर नीति बनाई जा सकती थी। इस तरह के फ़ैसले कार्यपालिका और संबंधित मामले से जुड़े विधायी प्रशासन पर छोड़ दिए जाने चाहिए।"

ताजा AGR मामले में "प्रीमियम ग्रेनाइट्स बनाम् तमिलनाडु राज्य (1994)" का हवाला दिया जाना स्वाभाविक है, जहां कोर्ट ने निम्नलिखित सावधानियां बताईं थीं: 

"यह कोर्ट का क्षेत्राधिकार नहीं है कि वो नीतिगत फ़ैसलों के समुद्र में डुबकी लगाकर बताए कि किसी सार्वजनिक नीति से जुड़ी कोई कार्रवाई बुद्धिमानीपूर्ण है या फिर उससे बेहतर नीति बनाई जा सकती थी। इस तरह के फ़ैसले कार्यपालिका और विधायी प्रशासन पर छोड़ दिए जाने चाहिए। जब सार्वजनिक नीति पर मौलिक अधिकारों के हनन या दूसरे कानूनी अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया जाता है, तब कोर्ट में उसकी वैधता का परीक्षण करना चाहिए।"

इसी तरह M.P. ऑयल एक्सट्रेक्शन बनाम् मध्यप्रदेश राज्य (1997) में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने विचार को दोहराते हुए फैसले में कहा था:

"राज्य के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्चता पर बल देना चाहिए। लेकिन कार्यपालिक और विधायी कार्रवाई के न्यायिक परीक्षण की शक्ति को संवैधानिक दायरे में रखा जाना चाहिए, ताकि अवांछित न्यायिक सक्रियता के चलते न्यायपालिका की भूमिका पर गलतफ़हमी बनाने वाले मौके ना आएं। लोकतांत्रिक ढांचे को तब तक सुचारू ढंग से नहीं चलाया जा सकता, जब तक संविधान के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) आपसी सम्मान का पालन और अपने-अपने क्षेत्राधिकारों में सर्वोच्चता की जरूरत ना दिखाएं।"

AGR पर आया फ़ैसला ‘आर के गर्ग बनाम् भारत संघ (1981)’ के फ़ैसले का उल्लंघन भी करता है। जबकि यह फ़ैसला मध्यप्रदेश बनाम् नंदलाल जायसवाल (1986) समेत कई दूसरे मामलों में भी लागू किया गया है। अगर दूरसंचार की ही बात करें, तो कोर्ट को ‘दिल्ली साइंस फोरम बनाम् भारत संघ (1996)’ मामले में तीन जजों वाली बेंच के फ़ैसले का भी ख्याल रखना था, जिसमें कहा गया, ‘अर्थव्यवस्था, वित्त, संचार, व्यापार, दूरसंचार और दूसरी चीजों की राष्ट्रीय नीतियां संसद द्वारा ही तय की जानी हैं और लोगों के प्रतिनिधि इन्हें संसद पटल पर चुनौती दे सकते हैं, सत्ताधारी पार्टी की इन नीतियों पर सवाल उठा सकते हैं।’

इस याचिका पर सुनवाई के दौरान दूरसंचार विभाग ने टेलीकॉम कंपनियों को करीब़ 1.47 लाख करोड़ रुपये चुकाने से अस्थायी तौर पर राहत दी। लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में छेड़खानी के तौर पर देखा गया और 14 फरवरी, 2020 को पास किए गए एक आदेश में स्वत: संज्ञान लेते हुए दूरसंचार विभाग के एक अधिकारी के खिलाफ़ अवमानना की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। साथ में टेलीकॉम कंपनियों के प्रबंध निदेशकों से पूछा गया कि क्यों उनके खिलाफ कोर्ट के पुराने आदेश के हिसाब से बकाया ना चुकाने के लिए अवमानना की कार्रवाई की जाए।

मौजूदा मामले में यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या दूरसंचार विभाग का 20 साल में भुगतान करने की अनुमति देने वाला प्रस्ताव कोई नीतिगत फ़ैसला है या नहीं। एक सितंबर, 2020 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश में कोर्ट द्वारा किए गए मूल्यांकन से इस विचार को समर्थन दिया जा सकता है।

“बड़े हितों को ध्यान में रखते हुए और देश पर आर्थिक प्रभाव को देखते हुए, साथ में कोर्ट के आदेश को असल मायनों में लागू करने के लिए भारत राज्य ने एक फ़ैसला किया है, जिसके तहत टेलीकॉम सेवादाता कंपनियों से बकाया हासिल करने के लिए एक फॉर्मूले पर सहमति मांगी गई है। इस फॉर्मूले को कोर्ट की सहमति के लिए पेश किया गया है। इस फॉर्मूले को प्रशासनिक क्रम के अलग-अलग स्तरों, जिनमें कैबिनेट भी शामिल है, इनमें गहन विमर्श के बाद बनाया गया है। इसे बनाने के दौरान वित्तीय स्वास्थ्य और दूरसंचार क्षेत्र की व्यवहार्यता, प्रतिस्पर्धा की जरूरतों और उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखा गया है।”

आदेश में आगे कहा गया, “हमारा मानना है कि कैबिनेट का फ़ैसला कई तथ्यों पर आधारित है और वह अर्थव्यवस्था के साथ-साथ उपभोक्ताओं के हितों में भी है। यह फ़ैसला काफ़ी सोच-समझकर लिया गया है...”

कोर्ट द्वारा इस नज़रिए की तारीफ़ किए जाने के बावजूद, ना सिर्फ़ दूरसंचार विभाग के फ़ैसले पर कोर्ट की जांच की तलवार लटाकाई गई, बल्कि केवल कोर्ट की अनुमति मिलने की दशा में ही इसे लागू करने का फ़ैसला दिया गया। ऊपर से एक सितंबर, 2020 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश काफ़ी गुंथा हुआ और अस्पष्ट है, जिसमें कई चीजों पर स्थिति साफ़ नहीं की गई है। कोर्ट ने 20 साल की योजना को सिर्फ़ इस आधार पर खारिज़ किया है, कि यह अवधि काफ़ी “ज़्यादा” है।

इस तरह पेन की ताकत के ज़रिए, कार्यपालिका का एक नीतिगत् फ़ैसला, जो काफ़ी सोच-समझकर लिया गया था, उसे विषयगत तार्किकता के पैमाने पर तीन जजों वाली बेंच ने खारिज़ कर दिया। AGR विवाद का इस तरह से खात्मा होता दिखाई दे रहा है, लेकिन इस फ़ैसले से कोर्ट ने जो परिपाटी शुरू की है, उससे अपने आप को दूर रखना चाहिए, ताकि अपने क्षेत्राधिकार के अतिक्रमण से बचा जा सके।

(रोहन देशपांडे बॉम्बे हाईकोर्ट में वकील हैं और वे कानून के साथ-साथ समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं)

यह लेख मुख्यत: द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

AGR Order: A Case of Subjective Judicial Overreach?

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