किसानों का आंदोलन और मोदी सरकार का डर

58 दिनों का समय काफी लंबा समय होता है- लगभग दो महीने। अब तक जो हालात बने हैं उसे देखते हुए कोई भी सरकार अपना रुख स्पष्ट कर चुकी होती और स्पष्ट मूल्यांकन किया होता कि वह जितना चबा सकती थी उससे कहीं अधिक काट लिया है। देश की सत्ता में की तरफ प्रवेश करने वाले रास्ते को एक लाख से अधिक किसानों ने घेर रखा है। इन आंदोलनकारी किसानों को आसपास के गांवों और अन्य लोग भोजन और आवश्यक चीजों की आपूर्ति कर रहे हैं। और 26 जनवरी यानि गणतंत्र दिवस तक इस संख्या के दोगुनी होने की उम्मीद है।
देश भर के किसान दिल्ली की घेराबंदी करने वाले किसानों के समर्थन में लगातार विरोध प्रदर्शन/आंदोलन कर रहे हैं, और साथ ही खेती, स्टॉकहोल्डिंग, व्यापार और आवश्यक कृषि-उपज की कीमतों को कॉर्पोरेट द्वारा नियंत्रण करने का रास्ता खोलने वाले सबसे नफरती नए कृषि कानूनों को खारिज करने की मांग कर रहे हैं। अन्य राज्यों में ये आंदोलन छोटे या प्रतिकातमक नहीं हैं- तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार में पिछले दो महीनों में लाखों किसान और खेतिहर मजदूर सड़कों पर उतर चुके हैं। राजमार्गों पर बैठे आंदोलनकारी किसानों के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त करने के लिए सैकड़ों किसान/लोग दिल्ली आ-जा रहे हैं।
अन्य राज्यों में भी समय-समय पर विरोध प्रदर्शन चलता रहता है। और हर जगह, यह संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, क्योंकि सरकार तेज़ रोशनी की चकाचौंध में जमे या सहमे हुए खरगोश की तरह व्यवहार कर रही है।
आंदोलन को विफल करने का कारनामा असफल हुआ
सत्तारूढ़ मशीनरी और उनकी हर किस्म की चालों का इस्तेमाल आंदोलन के खिलाफ किया गया है, सिवाय हिंसा के इस्तेमाल के। हिंसा की कोशिश दो महीने पहले की गई थी जब पंजाब और हरियाणा के किसानों ने राजधानी की ओर मार्च शुरू किया था। लेकिन संख्या इतनी बड़ी और दृढ़ संकल्प से भरपूर थी और इतनी शक्तिशाली थी कि उसने पुलिस के बैरिकेड्स और गड्ढों को हवा में उछाल दिया था। अब, देश की राजधानी के पांच प्रवेश बिंदुओं पर डेरा डाले किसानों को हटाना असंभव है। ऐसा तब तक संभाव नहीं जब तक कि वे खूनखराबे का विकल्प नहीं चुनते हैं।
शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने और उनकी साख को गिराने की कोशिशों का कोई फायदा नहीं हुआ। उन्हें खालिस्तानी, ‘टुकडे टुकडे गिरोह’ इत्यादि कहा जाता रहा, जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों का प्यारा शब्द हैं, इसका इस्तेमाल वे उन सबके खिलाफ करते है जो उनका विरोध करते हैं। यह भी आरोप लगाया गया कि विपक्षी दल किसानों को गुमराह कर रहे हैं। लेकिन ये तय है कि विरोध का पैमाना और व्यापकता किसी भी विपक्षी दल के बस की बात नहीं है। निस्संदेह वे संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं- लेकिन यह उनका अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी बड़े ही अजीब ढंग से हस्तक्षेप करने का फैसला किया, जो स्पष्ट रूप से नीति का मामला है, जिस पर कोर्ट आमतौर पर दूरी बना कर रखता है। लेकिन इसकी कोशिशों पर भी नीरा पानी फिर गया क्योंकि इसने उन विशेषज्ञों को कमेटी का सदस्य बनाकर पुल बनाने की कोशिश की थी जो इन तीन कानूनों के समर्थक हैं। ज़ाहिर है विशेषज्ञों के इस पैनल को किसानों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया।
अंत में, सरकार और किसान नेताओं के बीच 10 वें दौर की वार्ता में, सरकार एक नया प्रस्ताव लाई जोकि एक रियायत की तरह लगता है। उसने कहा कि वह 18 महीने तक इन कानूनों को लागू नहीं करेगी, इस दौरान इसका कुछ हल निकाल लिया जाएगा। इसका एकमात्र उद्देश्य यह था कि किसी तरह से राजधानी की सीमाओं पर डेरा डाले किसानों से छुटकारा पा लिया जाए और उन्हें गणतंत्र दिवस पर 'ट्रैक्टर परेड' निकालने से रोका जाए। किसान यूनियनों ने इस जुमले को सिरे से खारिज कर दिया- और फिर सरकार का असली रंग 11 वें दौर की बातचीत में सामने आया, जब उसने बड़े अहंकार के साथ घोषणा की कि किसान चाहे तो इस प्रस्ताव को मान लें या इसे छोड़ दे यह उन पर हैं।
इस बीच, सरकार ने राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी (एनआईए) के जरिए किसान नेताओं को परेशान करने के काम पर लगा दिया, माना जाता है कि ये हरकत किसान नेताओं पर कुछ गंदगी उछालने के लिए लगाई थी।
यह केवल एक ही चीज की तरफ इशारा करता है: कि सरकार को अभी तक खुद को इस अपरिहार्य तथ्य को स्वीकार करना बाकी है कि किसानों आंदोलन का हाथ ऊपर है। आंदोलन को देश भर में व्यापक, अभूतपूर्व समर्थन हासिल है और इसे समाज के अन्य वर्गों से भी सहानुभूति और एकजुटता मिल रही-क्योंकि उन्हे भी लग रहा है कि इन तीन कानूनों में कुछ गड़बड़ है।
मसला ये है कि सरकार पीछे हटने को तैयार क्यों नहीं है? इसमें से कुछ तो उनका घमंड है, जो खुद की अजेयता और खुद के सबसे अधिक सही होने के भ्रम का नतीजा है। उन्होंने पहले इस तरह के मजबूत आंदोलन/प्रतिरोध का अनुभव नहीं किया है, या यदि किया होता तब भी वे इसे किसी भी तरह से विभाजन या लोगों का इससे ध्यान हटाने की रणनीति के साथ करते। इसने सरकार में सर्वव्यापीता या सर्वशक्तिमान की भावना पैदा की है- शायद सबसे बडी अहंकारी होने की भावना- एक ऐसी बीमार भावना जो शासक को हर जगह सूट करती है, विशेषकर यह भारत में सूट नहीं करती है। लेकिन केवल यही एक चीज नहीं है। इसमें ओर बहुत कुछ भी है।
मोदी सरकार की वफ़ादारी किसके साथ है?
नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के सुपर संभ्रांत कॉर्पोरेट वर्ग और अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी के हितों की सुरक्षा और सेवा के लिए प्रतिबद्धता के साथ काम किया है।
यदि आप सरकार की उन सभी कारनामों पर नज़र डालते हैं जो इसने पिछले साढ़े छह वर्षों में किए हैं, तो यह बात स्पष्ट है कि यह सरकार आम लोगों को सिर्फ कुछ राहत और सहायता हासिल करने वालों के रूप में मानती है, जबकि यह देश की आर्थिक प्रणाली को लालची घरेलु या विदेशी इजारेदार पूंजी को मदद करने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ा रही है।
इन तीन कृषि-संबंधी कानूनों को पारित करने से पहले, मोदी सरकार ने कुछ अन्य नीतियों को लागू किया है जिन्हे यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैं:
• इसने औद्योगिक संबंधों को पूरी तरह से बदल दिया है, मजदूरों को मिली श्रम कानूनों से सुरक्षा को नष्ट कर दिया है और उन्हें चार श्रम संहिताओं से बदल दिया है। ये संहिताएँ मालिकों/कंपनियों को मजदूरों को काम पर रखने और कभी भी निकाल बाहर करने की आज़ादी देती हैं, वेतन निर्धारण प्रणाली में बदलाव लागू करती है, संविदात्मक यानि ठेका प्रथा को संस्थागत बनाती हैं और सामाजिक सुरक्षा को सीमित करती हैं। यह कुछ ऐसे कदम थे जिनकी जरूरत भारत के शासक वर्ग को लंबे समय से थी- मोदी ने इसे कर दिखाया।
• इसने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी कंपनियों को बेचने का नया रिकॉर्ड बनाया है, और इस तरह की बिक्री अक्सर कम मूल्य में की जाती है। यह कई बड़े कॉरपोरेट्स के लिए एक बड़ी जीत है।
• इसने कोयला, ऊर्जा, बैंकिंग, बीमा, मीडिया, परमाणु शक्ति, अंतरिक्ष, रक्षा उत्पादन, इत्यादि क्षेत्रों में विदेशी निवेश पर लगे प्रतिबंधों को ढीला कर दिया है।
• इसने एक यूनिफार्म यानि पूरे देश के लिए एक ही सामान और सेवा कर (जीएसटी) को लागू किया जिसने छोटी और मध्यम क्षेत्र की इकाइयों या काम को नष्ट कर दिया जो बड़ी पूंजी के लिए एक वरदान साबित हुआ।
• इसने बीमा-आधारित प्रणाली की शुरुआत करके निजी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए दरवाजे खोल दिए, और 'सभी के लिए स्वास्थ्य’ की सुविधा हासिल कराने की अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए।'
• यह सरकार सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को फंड की कमी से मार रही है और निजीकरण को बढ़ाव दे रही है, जो अब नई शिक्षा नीति का हिस्सा है।
अपने खुद के वित्त के प्रबंधन में, मोदी सरकार ने एक ही रणनीति दिखाई की है- कि वह लोगों के कल्याण पर कोई पैसा खर्च नहीं करना चाहती है, लेकिन वह कॉर्पोरेट करों में कटौती और अन्य रियायतें देने के बारे में काफी उत्साही नज़र आती है। इसने रक्षा क्षेत्र और विभिन्न आर्थिक मामलों में खुद को अमेरिका के हितों को साधने के साथ जोड़ दिया है।
वास्तव में, खाद्यान्न के सार्वजनिक वितरण, और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का मुद्दा जो किसानों को सब्सिडी देने से संबंधित है, उन पश्चिमी ताक़तों से जुड़ा है, जिन्हे इन खाद्य सब्सिडी पर आपत्ति है क्योंकि ये सबसिडी भारत को अनाज निर्यात करने से रोकती है! यही कारण है कि यह सरकार इन नए कृषि कानूनों को बड़ी दृढ़ता से लागू करना चाहती है। इन कानूनों से न केवल घरेलू कृषि-व्यवसाय की बड़ी कंपनियों बल्कि विदेशी खाद्य इजारेदार कंपनियों को भी लाभ होगा।
मोदी सरकार कॉर्पोरेट हितों को साधने के इस भयंकर दलदल में धंस गई है। यह यानि कॉर्पोरेट उनका घर है, ये सरकार उनकी वफादार है और इसके लिए वे देश के लोगों का बलिदान करने को तैयार है। इसलिए यह किसान आंदोलन देश को इस विनाशकारी निज़ाम से बचाने की लड़ाई है।
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