कटाक्ष: ये लो मिट गयी ग़रीबी!

इसी को कहते हैं, आपदा में अवसर खोजना। सारी दुनिया का ध्यान लड़ाइयों पर लगा हुआ था। पहले रूस-यूक्रेन की लड़ाई पर। फिर भारत-पाकिस्तान की लड़ाई पर। अभी हाल में इस्राइल-ईरान की लड़ाई पर। बस क्या था, दुनिया का ध्यान उधर लगा देखकर, मोदी जी ने चुपके से पीछे से गरीबी को मिटा दिया। मोदी ही जल्द ही, बाकी दुनिया को भी अपनी चमत्कारी टैक्नीक मुहैया कराएंगे। आखिरकार, विश्व गुरु ठहरे।
विश्व गुरु हाथ आया मंतर कोई अपने पास ही थोड़े ही रखेगा। मौका मिलते ही बाकी सारी दुनिया को भी यह तकनीक सिखाई जाएगी और जल्द सिखाई जाएगी। पर फिलहाल, यह तजुर्बा हिंदुस्तान तक ही सही। कम से कम गरीबी मिटने-मिटाने में तो भारत वर्ल्ड रिकॉर्डधारी हो जाए।
कोई पूछेगा कि मोदी जी के हाथ में ही ऐसा क्या चमत्कार था कि उनके छूने से गरीबी मिट गयी? सभी जानते हैं कि गरीबी मिटाने की कोशिशें मोदी जी से पहले भी कई सरकारों ने की थी। पर क्या हुआ? गरीबी ना मिटनी थी ओर न मिटकर दी। उल्टे गरीबी मिटाने की और हटाने की मोदी जी से पहले की सरकारों ने इतनी चर्चा की, इतनी चर्चा की कि गरीबी के भाव और बढ़ गए। लेकिन क्यों? क्योंकि इन सरकारों की गरीबी मिटाने की तकनीक में ही खोट था। तकनीक में ही क्यों, सच पूछिए तो इन सरकारों की नीयत में ही खोट था। इस सब की शुरूआत जाहिर है कि नेहरू जी ने ही की थी। गरीबी के इतने गीत गाए, इतने गीत गाए कि लोगों को गरीबी से मोहब्बत सी हो गयी। कहने को बातें फिर भी गरीबी को हटाने-मिटाने की होती रहीं, पर किसी में गरीबी मिटाने का जज्बा ही नहीं था। उल्टे गरीबी से प्यार था। गरीबी मिटती तो मिटती कैसे और उसे मिटाता तो मिटाता कौन?
पहले वाली सरकारों ने गरीबी पर कभी सीधे प्रहार किया ही नहीं। हमेशा घुमा-फिराकर प्रहार करती रहीं। जैसे यह अंधविश्वास कि गरीबी मिटानी है, तो नौकरी दो, सब को शिक्षा दो, सब को स्वास्थ्य दो, सब को खाद्य सुरक्षा दो, वगैरह, वगैरह। भावना अच्छी थी, कोशिश भी अच्छी थी, मगर कामयाबी नहीं मिलनी थी, नहीं मिली।! नौकरियां देने से, शुरू-शुरू में बेरोजगारी तो फिर भी कुछ घटी पर, पर गरीबी नहीं मिटी। ऐसे ही शिक्षा देने से पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या और बढ़ गयी। सब को स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा वगैरह के चक्कर में लोगों की औसत आयु कुछ बढ़ गयी, पर गरीबी मिटना तो छोड़ो, घटी तक नहीं।
खैर! मोदी जी ने आते ही यह सब बदल दिया। मोदी जी ने गरीबी पर सीधे हमला बोल दिया। हमला क्या युद्ध कहिए, बाकायदा युद्ध, गरीबी को मिटाने के लिए। एनसीईआरटी की समाज विज्ञान की किताबों से चुन-चुनकर गरीबी के हवाले, जिक्र मिटाए गए हैं। एक शब्द, एक वाक्यांश, एक चित्र तक नहीं छोड़ा गया है, जो भूले से भी गरीबी की याद दिलाता हो, फिर गरीबी के किसी पाठ, किसी अध्याय का तो सवाल ही कहां उठता है। न होगी गरीबी की चर्चा और न रहेगी गरीबी मिटाने की किच-किच। और यह तो अभी शुरूआत है। आगे-आगे देखिए, गरीबी का जिक्र मिटता है कहां-कहां से!
अब प्लीज यह मत कहने लगिएगा कि किताब से मिटाने से गरीबी कैसे मिट जाएगी? सिंपल है। किताब का मतलब क्या है, गरीबी पढ़ाई-लिखाई में। इसमें भी लिखाई खासतौर पर महत्वपूर्ण है। जिसका लिखित में जिक्र ही नहीं होगा, उसे कोई पढ़े-पढ़ाएगा कैसे? और जब गरीबी के बारे में कोई लिखेगा-पढ़ेगा ही नहीं, तो गरीबी की कोई जानेगा कैसे? गरीबी आंखों के सामने फिरती रहे, पर उसे बिना जाने कोई पहचानेगा कैसे? यानी इस बार पक्के तौर पर गरीबी का पत्ता साफ होकर रहेगा। रहेगा भी क्या, बाकायदा पत्ता साफ हो गया है। स्कूली किताबों से। मीडिया-वगैरह से तो पहले ही पत्ता साफ हो गया था, खासतौर पर मीडिया का गोदी युग आने के बाद से। ठोक-पीटकर, मुकद्दमे वगैरह लादकर, खुद को विद्वान मानने वालों और समाज सेवा की बात करने वालों के मुंह पहले ही बंद करा दिए गए थे। राजनीतिक पार्टियों की सुनता ही कौन है? तब गरीबी का नाम लेवा और पानी देवा बचा ही कौन? महबूब बचा, पर महबूब बचा कैसे कहूं।
वैसे मोदी जी से पहले गरीबी मिटाने की आखिरी सीरियस कोशिश, इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी में की थी। नाहक लोगों ने शोर मचा दिया कि इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए इमर्जेंसी लगा दी। पर सचाई यह है कि इंदिरा गांधी से गरीबी मिटाने के लिए ही इमर्जेंसी लगायी थी। जब बाकी सारी कोशिशें कर के देख लीं, गरीबी फिर भी नहीं मिटी, तो इंदिरा गांधी को ख्याल आया कि संविधान में इमर्जेंसी का भी तो प्रावधान है, इसे भी आजमा कर देख लेते हैं। लग गया तो तीर, नहीं तो तुक्का। फिर क्या था, धड़ाधड़ लगा दी इमर्जेंसी। आखिरकार, इंदिरा गांधी फैसले लेने वाली नेता थीं, न कि अटकाने, लटकाने, भटकाने वाली नेता। बल्कि इंदिरा गांधी ने गरीबी मिटाने के लिए संजय गांधी की नयी एप्रोच को भी ट्राई करने की इजाजत दे दी। क्या पता नौजवानों का आइडिया ही काम कर जाए। बेटा, गरीब हटाने/ मिटाने के रास्ते पर आगे बढ़ा और माता जी गरीबी मिटाने/ हटाने के रास्ते पर।
गरीबी फिर भी नहीं मिटी। क्यों? क्योंकि गरीबी ऐसे नहीं मिटा करती। गरीबी इतने भर से नहीं मिटा करती। कहने को मोदी जी भी इंदिरा गांधी वाले ही रास्ते पर चल रहे हैं। दूर तक इंदिरा गांधी वाले रास्ते पर चल रहे हैं। मीडिया को गोदी में बैठा चुके हैं। विरोधियों को छका चुके हैं। उनके पीछे सरकारी एजेंसियों को लगा चुके हैं। ज्यादा चें-चें, पें-पें करने वालों को जेलों में पहुंचा चुके हैं या उन पर इतने मुकद्दमे लगवा चुके हैं कि बाकी सारी जिंदगी मुकद्दमों के लिए वकील वगैरह के इंतजाम करते ही निकल जाए। शीर्ष न्याय पालिका समेत सारी संस्थाओं को फर्माबर्दार बना चुके हैं। और यह सब बिना कोई इमर्जेंसी लगाए ही कर चुके हैं। यानी इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी से सस्ते में और पुख्ता तरीके से। तभी तो इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी 21 महीने में ही टें बोल गयी और इंदिरा गांधी का राज भी, पर मोदीशाही ग्यारह साल बाद भी बदस्तूर कायम है।
पर शायद हम विषय से भटक गए। इमर्जेंसी चाहे घोषित हो या अघोषित, गरीबी सिर्फ उससे भी नहीं मिट सकती है। बड़ी मेहनत का काम है जी। गरीबी मिटाने के लिए तो एक-एक किताब, एक-एक पन्ने, एक-एक वाक्य, एक-एक शब्द से गरीबी को मिटाना पड़ता है। गरीबी को हर तरह से आउट ऑफ कोर्स घोषित करना होता है। तभी और तभी कहीं जाकर गरीबी मिटती है, जैसे कि आज मिट रही है। थैंक यू मोदी जी, गरीबी को सचमुच और हमेशा-हमेशा के लिए मिटाने के लिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)
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