आतंक पर जीत: एक पेचीदा सवाल

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में पर्यटकों पर हुआ आतंकी हमला एक श्रृंखला की शुरुआत साबित हुआ, जिसके चलते भारत ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर जवाबी हमला किया। अब जबकि संघर्षविराम लागू हो चुका है, समय आ गया है कि इस सामाजिक कैंसर से निपटने के उपायों पर गंभीरता से विचार किया जाए।
आतंकवाद की चर्चा निश्चित ही 9/11 यानी 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में ट्विन टावर पर हुए हमलों के बाद वैश्विक मंच पर प्रमुखता से शुरू हुई, जिसमें 2,000 से अधिक लोगों की जान गई। उसी दौरान अमेरिकी मीडिया ने 'इस्लामी आतंकवाद' शब्द गढ़ा, जिसे विश्वभर में इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ने के लिए अपनाया गया।
जहाँ आतंकी गतिविधियों को चिन्हित करना संभव रहा है, वहीं "आतंकवाद" को परिभाषित करना अब तक आसान नहीं हो पाया है। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र की संबंधित एजेंसियाँ भी इसकी कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं गढ़ पाई हैं।
भारत की बात करें, तो वह लंबे समय से कश्मीर में कट्टर विचारधारा द्वारा brain-washed Muslim youth यानी गुमराह किए गए मुस्लिम युवाओं द्वारा की जा रही हिंसक घटनाओं का शिकार रहा है। वर्ष 2008 में मुंबई में हुए 26/11 हमले में लगभग 200 लोग मारे गए थे। इसी हमले के दौरान महाराष्ट्र के तत्कालीन एंटी-टेरर स्क्वॉड प्रमुख हेमंत करकरे भी शहीद हो गए थे।
इसी के समानांतर, 2006 में नांदेड़ और बाद में मालेगांव, अजमेर, मक्का मस्जिद (हैदराबाद) और समझौता एक्सप्रेस में भी आतंकी घटनाएँ हुईं। मालेगांव धमाके के सिलसिले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के लिए मृत्युदंड की मांग कर रही है, जिनकी मोटरसाइकिल उस हमले में प्रयुक्त हुई थी। उनके साथ लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित पर भी मुकदमा चल रहा है। इसके अलावा स्वामी असीमानंद, मेजर (सेवानिवृत्त) उपाध्याय और अन्य कई नाम, जिनका संबंध हिंदुत्व राजनीति से है, सामने आए।
भारत को जब आतंकवाद के इन रूपों से जूझना पड़ रहा है, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम वैश्विक आतंकवाद की जड़ों और भारत पर उसके प्रभावों पर गंभीर चिंतन करें। मौजूदा सुरक्षा उपायों की सीमाएं पुलवामा और अब पहलगाम हमलों के जरिए उजागर हो चुकी हैं। ऐसे में भारत को वैश्विक एजेंसियों के साथ समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है।
भारत में सक्रिय आतंकवादी समूहों के ठिकाने पाकिस्तान में हैं। दुर्भाग्यवश, पाकिस्तान न सिर्फ इन आतंकी कार्रवाइयों का स्रोत है, बल्कि वह स्वयं भी इस भयावह समस्या का शिकार है।
कश्मीर में जो घटनाएं हो रही हैं, उनके पीछे वे आतंकी संगठन हैं जो अफगानिस्तान में सोवियत संघ के कब्जे को खत्म करने के अमेरिकी अभियान के बाद पैदा हुए। अमेरिका ने जब खुद अफगानिस्तान में सोवियत सेना से सीधे टकराने की स्थिति में नहीं था, तब उसने पाकिस्तान में मदरसों को बढ़ावा दिया जहाँ मुस्लिम युवाओं को कट्टर धार्मिक प्रशिक्षण दिया गया। इसी से तालिबान और उसके जैसे अन्य संगठनों का जन्म हुआ।
युगांडा के लेखक महमूद ममदानी ने अपनी शोधपरक पुस्तक "गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम" में बताया है कि इन मदरसों का पाठ्यक्रम वॉशिंगटन में तैयार हुआ था। उसमें कम्युनिस्टों को 'काफिर' बताया गया, और काफिरों की हत्या को जन्नत पाने का ज़रिया कहा गया। अमेरिका ने इन मदरसों पर 8,000 मिलियन डॉलर खर्च किए और उन्हें 7,000 टन हथियार — जिनमें स्टिंगर मिसाइलें भी थीं — प्रदान किए।
इस तरह आतंकवाद, जो अमेरिकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का औजार था, धीरे-धीरे ऐसा दैत्य बन गया जिसने पश्चिम एशिया में तबाही मचाई। इसी दौरान सैमुअल हंटिंगटन की विवादास्पद थ्योरी "सभ्यताओं का संघर्ष (Clash of Civilizations)" को भी खूब बढ़ावा मिला। सौभाग्यवश, संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने इस विचारधारा की जांच के लिए एक उच्च स्तरीय समिति बनाई।
इस समिति की रिपोर्ट "Alliance of Civilizations" के निष्कर्षों में बताया गया कि सभ्यताओं के मेल-जोल ने दुनिया को आगे बढ़ाया है, न कि उनके संघर्ष ने। परंतु अमेरिकी मीडिया द्वारा फैलाए गए 'इस्लामोफोबिया' ने इस रिपोर्ट को दबा दिया। कई जगहों पर कुरान की प्रतियाँ जलाई गईं।
आतंकवाद एक फ्रेंकनस्टाइन राक्षस बन गया — जो हर ओर तबाही मचाने लगा। पाकिस्तान भी इसका शिकार हुआ। पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो की हत्या इसी किस्म के आतंकी हमले में हुई थी।
ग्लोबल टेरर इंडेक्स (GTI) आतंक के प्रभाव को चार मानकों — घटनाएं, मौतें, घायल और बंधक — के आधार पर मापता है। इसमें पाकिस्तान दूसरे और भारत चौदहवें स्थान पर है। इसका सीधा अर्थ यह है कि आतंकवाद ने पाकिस्तान को भारत की तुलना में कहीं अधिक नुकसान पहुँचाया है।
पाकिस्तान के मदरसों में जिस तरह प्रशिक्षण दिया गया, उसी के कारण वहाँ आतंक के शिकारों की संख्या अधिक है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि देश में आतंक की कोई घटना न हो। साथ ही यह भी समझना होगा कि यह आतंकवाद रूपी कैंसर, जो तेल पर नियंत्रण की साम्राज्यवादी लालसा से उपजा, तभी मिटेगा जब वैश्विक स्तर पर सहयोग होगा।
हाल की खबरों के मुताबिक, "पाकिस्तान — जिसे अक्सर 'आतंक का वैश्विक निर्यातक' कहा जाता है — को 2025 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष और आतंकवाद विरोधी समिति का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है।" यह घटना स्पष्ट रूप से जटिलताओं से भरी कहानी बयान करती है।
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पाकिस्तान की नीतियों को नियंत्रित करने वाले अनेक कारक हैं, जिनमें चीन की भूमिका भी उभरती जा रही है। पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया जाना आवश्यक है, लेकिन उसे चर्चा की मेज़ पर लाकर इस समस्या का हल तलाशना भी उतना ही जरूरी है। भारत में आतंकी हमलों की रोकथाम के लिए कश्मीर में लोकतंत्र को मजबूती देना तत्काल आवश्यक है।
वर्तमान में हम कई दुविधाओं से जूझ रहे हैं। कश्मीर की प्रगति अपनी संभावनाओं के बावजूद ठहरी हुई है। पाकिस्तान को विभिन्न स्तरों पर सक्रिय भूमिका निभानी होगी ताकि यह आतंकी हिंसा का कैंसर समाप्त हो सके। एक और स्तर पर इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़ने का दुष्प्रचार किया जा रहा है। यह सोच इस बात की गहराई से समझ नहीं रखती कि किस तरह अमेरिका की पश्चिम एशिया में तेल पर नियंत्रण की योजनाओं ने मौजूदा गतिरोध को जन्म दिया।
आतंकवाद की सतही प्रतिक्रिया से आगे बढ़कर हमें वैश्विक परिदृश्य की गहरी समझ की ज़रूरत है, जिसमें अमेरिकी नीतियों की विनाशकारी भूमिका को देखा और समझा जाना चाहिए, ताकि हम इसका प्रभावी इलाज ढूंढ सकें।
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और आईआईटी मुंबई में अध्यापन कर चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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