अनिल अंबानी मोदी के राफेल "सौदे" की परछाई से प्रकट हुए

मोदी के राफेल "सौदे" ने कई सवाल उठाए हैं। किस प्रकार तीन वर्षों में भारतीय वायुसेना के लिए 126 मध्यम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) की आवश्यकता अचानक घटकर 26 हो गई? किस प्रकार 2015 में प्रति विमान 81 मिलियन डॉलर से बढ़कर 243 मिलियन डॉलर हो गया? या प्रति विमान तीन गुना बढ़ गया? इन दो सौदों यानि 2012 में यूपीए और 2015 में मोदी के मध्यवर्ती तीन वर्षों में आख़िर क्या बदलाव आया? और इससे भी ज्यादा अजीब कि किसने और कैसे ये निर्णय लिया? इस विशेष सौदे में इतनी गोपनीयता क्यों हुई, जबकि हम जानते हैं कि बहुत बड़े हथियारों के सौदे में भ्रष्टाचार गोपनीयता और तदर्थ निर्णय लेने से होता है?
हालांकि ये सब विवाद का मामला है, लेकिन इस "बहस" में जो ग़ायब किया जा रहा है उसका सवाल यह है कि लाभार्थी कौन है? और अचानक हम पाते हैं कि यह अनिल अंबानी है जो 2 जी लाइसेंस घोटाले के प्रमुख लाभार्थियों में से एक है, वे राफेल डील के भी लाभार्थी हैं। 126 विमानों वाले मूल अनुबंध को ख़त्म करते हुएप्रौद्योगिकी को साझा करने तथा राफेल विमान का उत्पादन करने के लिए एचएएल समझौता भी रद्द कर दिया गया है। इसके बजाए अनिल अंबानी की रिलायंस, जिसके बैंकों केकई "लाल निशान" वाले ऋण है, नए मोदी राफेल "सौदे" में डसॉल्ट का नया सहभागी के रूप में उभरा है।
सभी रक्षा सौदों के अंतिम बिक्री मूल्य का 50% भारत में खर्च करना होगा। नए मोदी राफेल "सौदे" के एक हिस्से के रूप में, 2 जी घोटाले के दाग़ी अनिल अंबानी का रिलायंस 21,000 करोड़ रुपए का लाभ लेने को तैयार है जो कुल 30,000 करोड़ रूपए ऑफसेट का 70% है। बाकी 30% भारत इलेक्ट्रॉनिक्स, भारत डायनामिक्स और अन्य रक्षा ठेकेदारों द्वारा साझा किया जा रहा है।
अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस एरोस्टक्चर किस प्रकार डसॉल्ट और रिलायंस ग्रुप (अनिल अंबानी का रिलायंस ग्रुप) के बीच एक संयुक्त उद्यम के रूप में बनाई गई, जिसे राफेल ऑफसेट का बड़ा हिस्सा मिला? हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) का क्या हुआ जो मूल सौदे का साझेदार था? पेरिस में मोदी द्वारा हस्ताक्षर किए जाने के दो दिन पहले, विदेश सचिव जयशंकर ने खारिज किया था कि एचएएल को राफेल सौदे में डसॉल्ट के साझेदार के रूप में हटाया जा रहा था। स्पष्ट रूप से, यहां तक कि भारत की नौकरशाही का शीर्ष स्तर भी अनजान था कि भारत की प्रमुख एयरोस्पेस कंपनी एचएएल को अनिल अंबानी की रिलायंस के पक्ष में अलग कियाजा रहा था? यदि यह स्वतंत्र रूप से सरकारी उदारता का उपहार नहीं है, तो यह क्या है? और शायद हम भूल जाते हैं कि इसमें शामिल राशि 21,000 करोड़ रूपए कीधोखाधड़ी की सीमा के रूप में गणना की गई। ये राशि 2 जी मामले के सीबीआई की चार्जशीट का दो-तिहाई है। और ये सीएजी के "अनुमानित हानि" के आंकड़े नहीं हैं, जिन पर सवाल उठाया जा सकता है। ये वास्तविक आंकड़े हैं जिसे रिलायंस को डसॉल्ट की ओर से ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट्स और उसके अन्य साझेदारों के रूप में हासिल करना है।
हालांकि 2 जी मामले में सीबीआई के आरोपपत्र में अनिल अंबानी को आरोपी के रूप में शामिल नहीं किया गया है। अनिल अंबानी के रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह (आरडीएजी) के तीन शीर्ष अधिकारियों गौतम दोशी, सुरेंद्र पिपारा तथा हरि नायर और रिलायंस टेलीकॉम लिमिटेड, जो अनिल अंबानी के रिलायंस का एक हिस्सा है, पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था। जैसा कि सीएजी ने पहचान किया था और सीबीआई के चार्जशीट ने वृहत ब्योरा दिया है, अनिल अंबानी की रिलायंस ने स्वान टेलीकॉम को 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए बोली लगाने के लिए एक अग्रणी कंपनी के रूप में इस्तेमाल किया था। रिलायंस टेलीकॉम ख़ुद बोली लगाने काहकदार नहीं था क्योंकि इसने पहले ही एक टेलकम लाइसेंस ले रखा था। ज़़ेबरा, पैरोट, चीता जैसे कई अन्य कंपनियों के नाम का इस्तेमाल करते हुए स्वान टेलीकॉम को संपूर्णपूंजी रिलायंस से मिली, कंपनियों का ये नाम शायद निकटतम चिड़ियाघर का दौरा करके रखा गया था। इस तरह से हस्तांतरित की गई राशि क़रीब 1,000 करोड़ रूपए से ज्यादा थी। जब सीबीआई अदालत में पूछा गया कि बिना उनकी भागीदारी के कैसे इतनी बड़ी राशि उनकी कंपनी से स्वान टेलीकॉम को हस्तांतरित की गई तो उन्होंने कहा था कि उन्हें इन लेन-देन की कोई याद नहीं है! एक हज़ार करोड़ के बारे में याद नहीं!
लिहाजा 2 जी घोटाला क्या था और राफेल क्यों समानांतर है? अनिल अंबानी से पृथक दोनों मामलों में एक सामान्य कारक के रूप में?
2 जी स्पेक्ट्रम को इसके बाजार मूल्य के दसवें हिस्से पर बेचा जा रहा था। स्पेक्ट्रम की सभी सेलुलर ऑपरेटरों को ज़रूरत थी। हालांकि दूरसंचार कंपनियों को काफी सस्ते क़ीमत पर ये स्पेक्ट्रम मिली, राजा और उनके "मित्र" और "परिवार" को "बचत" से कटौती मिली जो कि दूरसंचार कंपनियां बना रही थी। 2 जी घोटाले का मूल दूरसंचार कंपनियां थीं जो एकदम सस्ते कीमतों पर स्पेक्ट्रम हासिल कर रही थीं।
शायद हम पर आंकड़े गढ़ने का आरोप लगाया जाता है, याद रहे कि लाइसेंस प्राप्त करने के बाद दूरसंचार कंपनियों के शेयर बढ़ गए, राजा के सौजन्य से। इसी तरह हम स्पेक्ट्रम के बाजार मूल्य की गणना कर सकते हैं। वे कंपनियां जिन्होंने लाइसेंस हासिल किए थे, उनकी कोई अन्य संपत्ति नहीं थी: न कोई बुनियादी ढांचा, न हीकोई पूंजी, यहां तक कि कोई ग्राहक भी नहीं। एक बार जब उन्होंने अपने लाइसेंस हासिल कर लिए तो वे अपने शेयरों का हिस्सा बेचने में सक्षम थे, और उसका परिचालन शुरू करने से पहले पूरे लाइसेंस शुल्क का क्षतिपूर्ति कर लिया।
यह सिर्फ राजा और दूरसंचार विभाग नहीं था जो इसमें शामिल था। पंजाब नेशनल बैंक, भारतीय स्टेट बैंक और अन्य बैंकों सहित सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों ने इन कंपनियों को क़र्ज़ दिया था। अनिल अंबानी की अग्रणी स्वान टेलीकॉम ने सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों से 3000 करोड़ रूपए लिया था। जब सुप्रीम कोर्ट ने राजा के लाइसेंस देने की तथाकथित "फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व्ड" योजना को समाप्त कर दिया तो ये सभी गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) में बदल गया।
हमें जो प्रश्न पूछना है वह यह कि यदि स्पेक्ट्रम सार्वजनिक संपत्ति है तो रक्षा सौदों में ऑफसेट्स क्या हैं? मूल 2012 राफेल सौदे में इस ऑफ़सेट को सौदा के एक हिस्से के रूप में माना गया था। यही कारण है कि एचएएल को रक्षा ठेकेदार के रूप में चुना गया था जिसे राफेल विमान का उत्पादन स्वदेश में करना था। 2015में मोदी के "सौदे" में रक्षा साझीदार को "खुला" छोड़ दिया गया था, तब अचानक, अनिल अंबानी प्रकट हुए और अब सौदे के साझीदारी का बड़ा हिस्सा ले जा रहे हैं।
ऑफसेट्स को सरकारी रक्षा अनुबंधों से बनाया गया है और जो बहुत ही आर्थिक उदार है जिसे सरकार अपने पसंदीदा पक्षों को दे सकती है। मूल राफेल समझौते में एचएएल था। वहीं मोदी की व्यवस्था के तहत अनिल अंबानी हैं। जाहिर है, हम गुप्त सौदे में वापस आ गए हैं, पिछले दरवाज़े से सौदा किया जा रहा है, और रक्षा अनुबंधों के एक प्रमुख हिस्से का दावा करने में निजी पार्टियों का समर्थन किया जा रहा है।
यदि अनिल अंबानी के पास अपनी कंपनियों को सफलतापूर्वक चलाने के लिए मज़बूत वित्तीय साख थी तो हम समझ सकते थे। वो आरकॉम को चलाने में कामयाब रहे और अब वह दिवालिया होने की कार्यवाही का सामना कर रही है। बैंकों के उनके ऋण को रेखांकित किया गया है जिसका मतलब है कि वे समय पर अपने ऋण का भुगतान करने में असमर्थ हैं। उन्हें अभी तक डिफॉल्टर घोषित नहीं किया गया है, लेकिन बैंकिंग क्षेत्र के सूत्रों ने हमें बताया है कि वह खतरनाक स्थिति मेंइसके क़रीब हैं। कैसे इस तरह के समूह, अपनी कंपनियों को चलाने में इतने निराशाजनक रिकॉर्ड के साथ, को डसॉल्ट और इसके ऑफसेट के साझेदारी के लिएसमर्थन किया गया?
अगर हम ऐसे मुद्दों को उठाते हैं, तो हमें तुरंत राष्ट्र विरोधी तथा भारत के रक्षा प्रयासों को बाधित करने का आरोप लगा दिया जाएगा। विमान की कम संख्या और एचएएल को नुकसान पहुंचा कर राष्ट्रवादी कैसे हो सकते हैं, मोदी भक्तों को छोड़कर ज्यादातर लोगों के लिए समझना मुश्किल हो सकता है। हम पर भी गुजरात विरोधी होने का आरोप लगाया जा सकता है, जैसा कि मोदी अपने आलोचकों के बारे में कह रहे हैं। वास्तव में ज़ाहिर तौर पर गुजरात का मतलब केवल अंबानी और अदानी होता है न कि गुजरात के लोग जो एक निराशाजनक मानव विकास रिकॉर्ड के साथ "लाभान्वित" हुए हैं। यह वास्तव में मोदी का गुजरात मॉडल है।
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