वीरेनियत-4 : निदा-शुभा ने साझा किया कश्मीर का दु:ख, हुक्मरां से पूछा- तुम बीच में कौन हो?

दिल्ली-एनसीआर के इस दमघोंटू ज़हरीले मौसम में लोग बहुत मजबूरी में ख़ासकर पेट/नौकरी की ख़ातिर ही घर से निकल रहे हैं, लेकिन ऐसे में अगर लोग कविता के लिए भी घर से निकल पड़ें तो इसे क्या कहा जाए! यही कि कविता भी ऐसी ही ज़रूरी चीज है, जैसे रोटी, जैसे प्रेम, जैसे जीवन। कवियों को इससे ख़ुश होना चाहिए और सतर्क भी कि उनके सर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, कि लोगों को उनसे कितनी उम्मीदें हैं, कि वे इस 'मौसमी और सियासी संकट' के समय में भी उन्हें सुनने आ रहे हैं, इसलिए कवियों को भी अपने 'कंफ़र्ट ज़ोन' छोड़कर ख़तरे तो उठाने ही होंगे। मुक्तिबोध के शब्दों में-
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक..."
लेकिन हमारे कवियों ने हमें निराश नहीं किया। ‘वीरेनियत’ के चौथे संस्करण में भी पहले के तीन संस्करणों की तरह कवियों ने अपना 'हक़ अदा कर दिया'। और क्यों न करते 'वीरेनियत' इसी का नाम है। जी हां, सबके प्रिय वीरेन डंगवाल की याद में ही तो जन संस्कृति मंच (जसम) की ओर से कविता का ये सालाना जलसा होता है। वही वीरेन दा जो 'भगवान' से भी ठिठौली कर लेते हैं, चुनौती दे देते हैं, पूछ लेते हैं-
"कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया,
बना दिया क्या से क्या!
...अपना कारख़ाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन- सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!”
इसी विरले कवि की याद में जब शनिवार को दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में कार्यक्रम शुरू होता है तो यही कविता केंद्रीय विद्यालय, पुष्पविहार की छात्रा यशी द्वारा सबसे शानदार ढंग से दोहराई जाती है, जो देर तक गूंजती है। इसके अलावा भी इसी स्कूल की मनीषा, लिषिका भी वीरेन दा की कविता पढ़ती हैं। इन बच्चों को वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के हाथों स्मृति चिह्न भी दिया जाता है।
'वीरेनियत-4’ में कुल छह कवियों को सुनने को मिला। ये थे- दिल्ली जसम की सचिव और युवा कवि अनुपम, दिल्ली से ही नईम सरमद, पटना से आए चंदन सिंह, पुलवामा, कश्मीर के निदा नवाज़ और रोहतक, हरियाणा से आए वरिष्ठ कवि शुभा और मनमोहन। इन्हें सुनने के लिए दिल्ली-एनसीआर से ही नहीं बल्कि अन्य जगहों से भी कवि और कविता प्रेमी पहुंचे।
'वीरेनियत-4’ का कोई केंद्रीय विषय नहीं था लेकिन बच्चे और ख़ासकर कश्मीर के बच्चे और उनका दुख इसका केंद्रीय विषय बन गए।
कार्यक्रम में कानपुर से आए वरिष्ठ कवि पंकज चतुर्वेदी ने इस पर टिप्पणी की, "ऐसी कविताएँ कभी-कभी ही लिखी जाती हैं, जब रघुवीर सहाय की इन काव्य-पंक्तियों का वास्तविक अर्थ समझ में आता है : “सन्नाटा छा जाए जब मैं कविता सुनाकर उठूँ / वाह वाह वाले निराश हो घर जाएँ।”
कार्यक्रम के संचालक हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक और संस्कृतिकर्मी आशुतोष कुमार ने कहा, "यह सच है कि कविताएँ भी अधिकतर 'डार्क' मोड में थीं। निर्णायक रूप से सिद्ध करतीं कि आज हिंदुस्तानी कविता आठवें- नवें दशक की काव्यात्मक कोमलता, प्रतिबद्ध आशावाद और आभासी जीवन राग को बहुत पीछे छोड़ आई है।"
इस दुख को पुलवामा कश्मीर से आए निदा नवाज़ की कविता में बख़ूबी पढ़ा जा सकता है। "बारूदी सुरँग की लपेट में आने वाले, मृत स्कूली बच्चों को देखकर" शीर्षक से लिखी कविता के अलावा मेरी बस्ती के बच्चे, यातनाओं का काफ़िला और बंकर बस्ती इत्यादि कविताओं में आज के कश्मीर का सच, दुख और प्रतिरोध सब साफ़ झलक रहा था।
बारूदी सुरँग की लपेट में आने वाले, मृत स्कूली बच्चों को देखकर
मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ
ये क़िताबों के बस्ते रहने दो इनके सिरहाने
रहने दो इनकी नन्ही जेबों में सुरक्षित
ये क़लमें, पेंसिलें और रँग-बिरँगे स्केच पेन
ये निकले थे स्कूलों के रास्ते
इस विशाल ब्रह्माण्ड को खोजने, निहारने
ये निकले थे अपने जीवन के साथ-साथ
पूरे समाज की आँखों में भरने सुनहले सपने
अभी इनका अपना कैनवस कोरा ही पड़ा था
और ये सोच ही रहे थे भरना उसमें
विश्व के सभी ख़ुशनुमा रँग
लेकिन तानाशाहों के गुर्गों ने इन्हें
रक्तिम रँग से रँग दिया
मत ठूँसो इनके बस्तों में अब
चॉकलेट कैण्डीज़ और केसरिया बादामी मिठाइयाँ
अब व्यर्थ हैं ये लुभाने वाली चीज़ें इनके लिए
इनके बिखरे पड़े टिफ़न को रहने दो ज्यों का त्यों
अब यह संसार की भूख से मुक्त हुए हैं
अब इनको नहीं चाहिए गाजर का हलवा, छोले-भटूरे
या फिर कोई मनपसन्द सैण्डविच
जब रोटी और रक्त के छींटें मिलते हैं एक साथ
आरम्भ होने लगता है साम्राज्य का विनाश
सूखी रेत की तरह सरकने लगता है
बड़े-बड़े तानाशाहों का अहँकार
मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
मत उतारो इनके लाल-लाल कपड़े
इनके ख़ून सने जूते, लहू रँगी कमीज़ें
इनको परेशान मत करो अपनी आहों और आंसुओं से
इन्हें अशांत मत करो अपनी सिसकियों, स्मृतियों से
मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ
ये नींद के एक लम्बे सफ़र पर निकल पड़े हैं।"
इसी सिलसिले को वरिष्ठ कवि शुभा ने आगे बढ़ाया- उनकी "दिलरुबा के सुर" कविता गहरे तक धंस गई और निदा नवाज़ को बता गई कि वे अकेले नहीं हैं, कि कश्मीर का दुख अकेले कश्मीर का दुख नहीं है, बल्कि दिल्ली-हरियाणा-यूपी का भी दुख है, कि कश्मीर के बच्चे हमारे भी बच्चे हैं, कि कश्मीर के लोग हमारे ही भाई-बहन और साथी हैं। शुभा ने हम सबकी तरफ से हुक्मरां से पूछा- "तुम बीच में कौन हो?”
दिलरुबा के सुर
हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिए नहीं बने हैं
क्या यह बच्चा इसलिए पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में
गोली खाने के लिए
क्या बच्चे अस्पताल, जेल और क़ब्र के लिए बने हैं
क्या वे अन्धे होने के लिए बने हैं
अपने दरिया का पानी उनके लिए बहुत था
अपने पेड़ घास पत्तियाँ और साथ के बच्चे उनके लिए बहुत थे
छोटा-मोटा स्कूल उनके लिए
बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिए बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिए बहुत थे
वे अपनी माँ के साथ फूल पत्ते लकड़ियाँ चुनते
अपना जीवन बिता देते
मेमनों के साथ हँसते-खेलते
वे अपनी ज़मीन पर थे
अपनों के दुख-सुख में थे
तुम बीच में कौन हो
सारे क़रार तोड़ने वाले
शेख़ को जेल में डालने वाले
गोलियाँ चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो
हमारे बच्चे बाग़ी हो गए
न कोई ट्रेनिंग
न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाए
अन्धे होते हुए
उन्होंने पत्थर उठाए जो
उनके ही ख़ून और आँसुओं से तर थे
सारे क़रार तोड़ने वालो
गोलियों और छर्रों की बरसात करने वालो
दरिया बच्चों की ओर है
चिनार और चीड़ बच्चों की ओर है
हिमाले की बर्फ़ बच्चों की ओर है
उगना और बढ़ना
हवाएँ और पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है
बच्चे अपनी काँगड़ी नहीं छोड़ेंगे
माँ का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं
क़रार तोड़ने वालो
सारे क़रार बीच में रखे जायेंगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने
बीच में रखे जायेंगे
औरतों के फटे दामन
बीच में रखे जायेंगे
मारे गये लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जायेगी
हमें वजूद में लाने वाली
धरती बीच में रखी जायेगी
मुक़द्मा तो चलेगा
शिनाख़्त तो होगी
हश्र तो यहाँ पर उठेगा
स्कूल बंद हैं
शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है।
शुरू से शुरू करें तो सबसे पहले अनुपम ने अपनी कविताओं से कार्यक्रम की शुरुआत की। उन्होंने दु:ख भी पुश्तैनी होते हैं, मेरी कविता के शब्द और एक औरत का अंत कविताएं पढ़ीं, जिन्होंने गहरे तक असर किया।
दुख भी पुश्तैनी होते हैं
खेत ग़ायब थे मेढ़ ग़ायब थे
मेढ़ों से साखू के पेड़ ग़ायब थे
ग़ायब हो गई थी धूप
बस
था तो पिता के बाएँ पाँव का जूता
जो प्लास्टिक का था
सड़ न सका
मैंने देखा
पहनकर चला आया
आख़िर पिता के जूते में
बेटे का ही पाँव आता है
यह दुख के पुश्तैनी होने की कथा है
उनके बाद पटना से आए चंदन सिंह ने अपनी कविताओं से सबको चौंका दिया। उन्होंने जलकुमारी, उसकी हत्या में हथियार शामिल नहीं होंगे, बसना, पांच स्त्रियां दुनिया की असंख्य स्त्रियां हैं और काला हांडी कविताएं पढ़ीं। यह शायद उनका पहला कविता पाठ था। चंदन सिंह की बसना कविता उजड़ने के एहसास को और पुख़्ता करते हुए उजाड़ने की राजनीति को बेनकाब कर गई।
बसना
"यह शहर का नया बसता हुआ इलाक़ा है
यहाँ सब्ज़ियों से अधिक अभी सीमेण्ट छड़ की दुकानें हैं
म्यूनिसपैलिटी ने अभी इसे अपना पानी नहीं पिलाया है
बने-अधबने मकानों के बीच
अभी भी बची हुई हैं इतनी जगहें
कि चल सकें हल
इस इलाक़े में
अभी भी दिख जाते हैं जुते हुए खेत
इन खेतों में मिट्टी के फूटे हुए ढेलों को देख
मुझे विश्वास नहीं होता
कि अकेले हल का काम है
मुझे लगता है जैसे वहाँ कोई है
जो मिट्टी को फोड़कर बाहर आना चाह रहा है
सामने पानी लगे खेतों में
स्त्रियाँ
लाल-पीली-हरी सचमुच की रंगीन साड़ियों में
विराट पक्षियों की तरह पृथ्वी पर झुककर
रोप रही हैं बीहन
हर बार जब ये रोपती हैं बीहन
तो गीली मिट्टी में जैसे कहीं खुल जाती है कोई चोंच
पर ये सिर्फ़ खेत ही नहीं
प्लाट भी हैं
काग़ज़ पर नहीं तो आँखों में
कहीं-न-कहीं नक़्शा तैयार है
और वह कुआँ जिसके प्लाट में आया है
इस बात से ख़ुश
कि उसे अलग से सोकपिट नहीं बनवाना होगा
स्त्रियाँ जहाँ रोप रही हैं बीहन
कल अगर यहाँ आना हुआ गृह-प्रवेश के भोज में
तो वह मकान
जिसकी दीवारों पर प्लास्टर नहीं होगा
जिसकी खिड़कियों-दरवाज़ों की कच्ची लकड़ियों में
एक ख़ुशबू होगी जिसे पेड़ छिपाकर रखते हैं
जिसकी ताज़ा छत की छाया में एक गीलापन होगा
वह मकान मुझे
एक खड़ी फ़सल की तरह ही दिखाई देगा पहली बार
यह शहर का नया बसता हुआ इलाक़ा है
जैसे-जैसे यह बसता जाएगा
वैसे-वैसे नींवों के नीचे दबते चले जाएँगे
इसके साँप
इसके बिच्छू
बरसात की रातों में रात-रात भर चलने वाली
झींगुरों की तीखी बहस
यहाँ सड़कें होंगी
कार और स्कूटर होंगे
बाज़ार होगा
स्कूल होगा
आवारा कुत्ते होंगे
पते होंगे
जिन पर चिट्ठियाँ आने लगेंगी
लिफ़ाफ़ों में बन्द दूसरे इलाक़ों की थोड़ी हवा यहाँ पहुँचेगी
पर सबसे अच्छी बात यह होगी
कि यहाँ बच्चे जन्म लेंगे
ऐसे बच्चे
जिनकी देह के सारे तत्त्व
क्षिति जल पावक गगन समीर सभी
इसी इलाक़े के होंगे
इसी इलाक़े में रखेंगे वे
डगमगाता हुआ अपना पहला क़दम
और जब वहाँ
उस जगह पड़ेगा उनका पहला क़दम
तो मैं फिर याद नहीं रख पाऊँगा
कि पहले वहाँ
एक छोटा-सा पोखर हुआ करता था
और जिस रात चाँद
इस इलाक़े तक आते-आते थक जाता था
वहीं डूब लेता था
इस इलाक़े का बसना उस दिन लगभग पूरा मान लिया जाएगा
जिस दिन यहाँ पहली हत्या होगी
और जिस दिन यहाँ की झोंपड़-पट्टियाँ उजाड़ दी जाएँगी
वह इसके बसने का आख़िरी दिन होगा
ऐसे ही बसेगा यह इलाक़ा
यहाँ बसने के चक्कर में एक दिन पाऊँगा
उजाड़ होकर ढह चुका है गाँव का घर
देखते-देखते वह तब्दील हो चुका है
एक डीह में
जीते-जी हो गया हूँ मैं
अपना ही पूर्वज।"
फिर बारी आई युवा शायर नईम सरमद की। उन्होंने कई नज़्में और ग़ज़ले सुनाईं। एक ग़ज़ल के चुनिंदा शेर आपके लिए जिसे सुनकर बहुत से धर्मवादी-कट्टरवादी उनसे नाराज़ रहते हैं-
ज़मीन सारे दुखों की जड़ है, मैं इसको ऐसे नहीं बनाता
ज़मीन को आसमां बनाता और आसमां को ज़मीं बनाता
मैं "कुन" का क़ायल नहीं हूँ, मज़दूर हूँ, ज़रा देर तो लगाता
मगर मैं तेरे किये धरे से बहुत ज़ियादा हसीं बनाता
अजब नहीं है के आदमी को यहां भी दोज़ख़ वहां भी दोज़ख़
अगर मैं रब ए करीम होता तो मैं जहन्नम नहीं बनाता
ये लोग जो 'हां' की ज़द में आकर मरे हैं और मारे जा रहे हैं
अगर कुछ इनके लिए बनाता तो इनके मुँह पर 'नहीं' बनाता
ओ मेरे इनकार पर भड़कने से बाज़ आ! ग़ौर कर, के बदबख़्त
तेरा ख़ुदा वाक़ई जो होता तो मेरे दिल में यक़ीं बनाता
हमारे हर फ़ेल की मज़म्मत! के इस प दोज़ख़ है उस प जन्नत
तुझे जब इस दर्जा दिक़्क़तें हैं तो क्यूं बनाया?? नहीं बनाता
अंत में बारी थी वरिष्ठ कवि मनमोहन की। उन्होंने बीज, मां, काला लड़का, उम्र का खेल, लौटना, गैट लॉस्ट जैसी कविताएं सुनाईं। ज़िल्लत की रोटी और सरदार पटेल कविताएं बेहद पसंद की गईं।
ज़िल्लत की रोटी
पहले क़िल्लत की रोटी थी
अब ज़िल्लत की रोटी है
क़िल्लत की रोटी ठंडी थी
ज़िल्लत की रोटी गर्म है
बस उस पर रखी थोड़ी शर्म है
थोड़ी नफ़रत
थोड़ा ख़ून लगा है
इतना नामालूम कि कौन कहेगा ख़ून लगा है
हर कोई यही कहता है
कितनी स्वादिष्ट कितनी नर्म कितनी ख़ुशबूदार होती है
यह ज़िल्लत की रोटी
हाय सरदार पटेल
सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद-वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाग चुके होते
साले सबके सब हरामज़ादे एक ही बार में ध्वस्त हो जाते
सरदार पटेल होते तो हमारे देश में
हमारा इस तरह अपमान न होता !
ये साले हुसैन-वुसैन
और ये सूडो-सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट-वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते !
हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चढ़कर नाचते !
आबादी इस क़दर बढ़ती !
मुट्ठीभर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
इस तरह बक बक करतीं !
सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!
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