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तिरछी नज़र: राजा जी ने कोड़ों की संख्या घटाई, राजा जी की जय!

कोड़े खाए बिना राजा के राज में जीना मुमकिन नहीं था। जीना है तो कोड़े खाओ और मर गए तो भी कोड़े खाओ। लेकिन एक दिन राजा जी को कोड़ों की संख्या घटाने की सूझी…
GST BACHAT
कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

बात पुरानी है। बहुत पुरानी भी नहीं है। इतनी नई तो है ही कि आप पढ़ते हुए सोचें कि इस राजा के बारे में तो कुछ पढ़ा सुना लग रहा है।

एक देश में एक राजा होता था। हमारी कहानी उसी राजा के बारे में है। मुझे तो लगता है कि राजा होते ही इसलिए थे कि बाद के लोग उनकी कहानियां सुना सकें। देख लेना एक दिन लोग आज के राजा की कहानियाँ भी सुनायेंगे। वैसे आजकल के राजा तो इतने महान होते हैं कि उनपर जीते जी ही कहानियाँ बनने लगती हैं, मीम बनने लगते हैं। तो हम भी एक राजा की कहानी सुना रहें हैं। 

राजा का राज कुछ अजीब था। वहाँ पर कुछ भी खरीदने पर कोड़े पड़ते थे। दूध खरीदो, दही खरीदो, कॉपी-किताब खरीदो तो कोड़े। खाने के लिए अनाज खरीदो तो भी कोड़े। तन ढकने को कपड़ा लो तो भी कोड़े। मतलब कुछ भी खरीदोगे तो कोड़े खाओगे। होटल में खाना खाओगे तो साथ में कोड़े भी खाओगे। 

कोड़े खाए बिना राजा के राज में जीना मुमकिन नहीं था। जीना है तो कोड़े खाओ और मर गए तो भी कोड़े खाओ। पर किसी के अंतिम संस्कार पर पड़ने वाले कोड़े उस के रिश्तेदारों को खाने पड़ते थे। आत्मा को कोड़े मारने की विधि का अविष्कार वह महान राजा जी भी नहीं कर पाए थे।

ऐसा नहीं है कि कोड़े पहले नहीं पड़ते थे पर राजा जी ने सारे कोड़े मारने का अधिकार स्वयं ले लिया था। और साथ ही पड़ने वाले कोड़ों की संख्या भी बढ़ा दी थी। हाँ, एक काम जरूर किया था, आधे से अधिक प्रजा को जो अनाज वह दान देता था, उस पर न तो दान देने वाले को कोड़े पड़ते थे और न ही दान लेने वाले को। वह अनाज कोड़ा मुक्त था। पर अनाज को पकाने के लिए, खाने योग्य बनाने के लिए जरूरी नमक, मसालों और तेल के लिए तो मुफ्त में अनाज मिलने वाली प्रजा को भी कोड़े खाने पड़ते थे।

कोड़े ज्यादा पड़ते थे, जोर से पड़ते थे, एक साथ पड़ते थे, फिर भी लोग अपनी सूजी पीठ को लेकर बहुत ख़ुश थे। कहते थे, देखो राजा जी कितने अच्छे हैं। कितने सारे कोड़े मारते हैं, और कितनी जोर से मारते हैं और मारते भी एक साथ हैं। पिछला राजा कितना खराब था। वह कोड़े कई बार में मारता था और वह भी कम और धीरे धीरे। लोगों को एक साथ और बहुत ज्यादा कोड़े खाने की आदत पड़ गई थी।

राजा जो भी करता था, रिकॉर्ड ही होता था, एक नया कीर्तिमान। हुआ क्या कि एक बार राजा को एक साथ पांच छींक आ गईं। सारे ढिढोरचिओं ने चारों ओर शोर मचा दिया कि राजा साब ने नया कीर्तिमान बनाया है। आज से पहले किसी राजा को एकसाथ पांच छींक नहीं आई हैं। राजा जी भी यह सुन प्रसन्न होते थे।

तो कोड़े लगाने में भी राजा जी नित नए कीर्तिमान बनाने लगे, रोज नए रिकॉर्ड तोड़ने लगे। कोड़े लगाने के आंकड़े हर महीने के जारी होते तो हर माह पिछले महीने का रिकॉर्ड टूटता। हर माह नया कीर्तिमान बनता। पिछले महीने एक सौ बीस लाख करोड़ कोड़े लगाए गए तो इस महीने एक सौ बाइस लाख करोड़। और उससे अगले महीने एक सौ पच्चीस लाख करोड़। हर महीने यह आंकड़ा बढ़ता और नया रिकॉर्ड बनता। राजा जी हर महीने कोड़े लगाने का नया रिकॉर्ड बनाते।

एक दिन अचानक राजा को प्रजा के भले की सूझी। राजा को प्रजा के भले की बिना मतलब के तो सूझती है नहीं। तो एक दिन राजा को लगा कि प्रजा को कम कोड़े लगाने चाहियें। यह अकारण नहीं हुआ। हुआ यह कि आसपास के राजाओं के तख्त पलटने लगे। इस राजा के मन में भी डर समाया। वैसे राजा अपने को निर्भीक दिखता था। पर होता यह है कि जो लोग ज्यादा डरे हुए होते हैं वे ही अपने को ज्यादा निर्भीक दिखाते हैं। तो 'निर्भीक' राजा को लगा कि प्रजा पर कोड़े थोड़े कम कर देने चाहियें। और उसने प्रजा को लगने वाले कोड़ो की संख्या कम कर दी।

तो फिर नित नए कीर्तिमान बनने लगे। राजा की दरियादिली के रिकॉर्ड बनने लगे। सारे ढिंढोरची राजा के दयावान होने का ढिंढोरा पीटने लगे। घोषणा होने लगी कि इस बार प्रजा को पिछली बार से इतने लाख करोड़ कोड़े कम लगे। और इस बार इतने लाख करोड़ कोड़े कम। 

लो जी कहानी खत्म हो गई। कोड़े मारने वाले राजा की कहानी खत्म हो गई। आप कहेंगे, कहानी ऐसे कैसे खत्म हो गई। बचपन में, स्कूल में कहानी पढ़ते थे तो बाद में कहानी से मिलने वाली शिक्षा जरूर पढ़ते थे। कई बार तो परीक्षा में प्रश्न भी आता था, श्रवण कुमार की कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? या फिर लालची लोमड़ी की कहानी का उससे मिलने वाली शिक्षा सहित वर्णन करो।

तो भाइयों और बहनों, इस कहानी से बहुत सारी शिक्षाएं मिलती हैं। लेकिन सबसे बड़ी शिक्षा यह मिलती है कि अच्छा राजा, महान राजा, प्रजा की भलाई की बात बिना मतलब के नहीं सूझती है। अगर राजा प्रजा की भलाई के लिए कुछ कर रहा है तो जरूर ही राजा को अपना सिंहासन डांवाडोल होता लग रहा है।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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