हमारे वक़्त का अनोखा ‘भागवतपुराण’ : हम ‘ऑटोमेटिक देशभक्त’ कैसे बनें?

संघ सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत अपने सूत्रनुमा बयानों के लिए अक्सर सुर्खियां बटोरते हैं। और कभी कभी सुर्खियां बटोरने की उनकी ख्वाहिश परिवार के लिए घाटे का सौदा बन जाती है। आप को याद होगा कि 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों के ऐन पहले आरक्षण के बारे में उनका विवादास्पद बयान भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ था।
पिछले दिनों एक किताब ‘Making of a Hindu Patriot: Background of Gandhiji’s Hind Swaraj’ विमोचन के मौके पर उन्होंने जो तकरीर दी वह इसी तरह सुर्खियां बटोर रही है। विमोचन के मौके पर उन्होंने दावा किया कि ‘एक हिंदू तो ऑटोमेटिक देशभक्त होता है और कभी राष्ट्रद्रोही नहीं हो सकता...’ गौरतलब है कि उन्होंने यह बात गांधी के सहारे की कि ‘गांधी ने यह दावा किया कि उनकी देशभक्ति उनके धर्म से निःसृत है’।
किताब का फोकस महात्मा गांधी के जीवन के उस प्रारंभिक दौर पर है जब वह पढ़ाई के सिलसिले में इंग्लैंड गए थे और फिर पढ़ाई पूरी करके पेशे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे और बाद में भारत लौटे थे। उनकी यात्रा का सिलसिला पोरबंदर से शुरू होकर इंग्लैंड पहुंचा था और वहां से फिर दक्षिण अफ्रीका गया था और फिर उनकी भारत वापसी हुई थी।
जानकारों के मुताबिक डॉ. जे के बजाज और एम डी श्रीनिवास द्वारा लिखी गयी और सेन्टर फॉर पालिसी स्टडीज द्वारा प्रकाशित उपरोक्त किताब यह विवादास्पद दावा भी करती है कि वर्ष 1893-1894 के दौरान गांधी के मुस्लिम अभियोजक और ईसाई सहयोगियों ने उन पर धर्मांतरण के लिए दबाव डाला था और वर्ष 1905 आते आते वह एक श्रद्धालु हिंदू बन चुके थे।
अब लाजिम है कि भारत जो अभी भी आधिकारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष मुल्क है, जहां विभिन्न धर्मों, आस्थाओं के लोग मिलजुल कर रहते हैं, जहां संविधान में यह बात रेखांकित है कि धर्म, जाति, नस्ल या अन्य पहलुओं के नाम पर किसी के साथ किसी किस्म का भेदभाव नहीं होगा, वहां ऐसा बयान जो बहुसंख्यक समुदाय की देशभक्ति को प्रदत्त या जन्मजात मानता हो और अपने मौन से बाकी धर्म के माननेवालों की या अपने आप को नास्तिक कहलानेवालों देशभक्ति को परोक्ष-अपरोक्ष तरीके से संदेह में खड़ा करता हो, वहां इस बयान का भी विवादों में आना तय था।
अब पाठक के लिए भले ही वह दोनों बातें - जो धर्मांतरण के लिए गांधी पर पड़े कथित दबावों की बात करती हो या जन्मजात हिंदू की देशभक्ति को प्रमाणित करती है - अपचनीय लगें, लेकिन लोकतंत्र के तहत उन्हें ऐसी बयानबाजी से रोका नहीं जा सकता, फिर चाहे सुविद्य लेखकगण हों या संघ सुप्रीमो हों। हां, यह तो अवश्य होगा कि इन बयानों की तथ्यात्मकता परखी जाएगी।
वैसे जनाब बजाज और श्रीनिवास की उस ‘खोज’ पर हर किसी को ताज्जुब होना लाजिमी है कि न खुद गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में इस का कहीं कोई जिक्र किया है और न ही उनके तमाम चरित्राकारों ने इस सम्बन्ध में कहीं कोई बात की है ; न ही उन तमाम अध्येताओं ने उन पर पड़े कथित दबावों पर कोई चर्चा भी की हो। कहने का तात्पर्य यही है कि उनकी यह ‘खोज’ - जो कहे अनकहे मुसलमानों, ईसाइयों को एकांगी रूप से प्रस्तुत करती है - फिलवक्त़ गल्प की श्रेणी में ही शुमार की जा सकती है।
वैसे इस मसले की खोजबीन करते वक्त़ हम सभी को बेहद सतर्क होना चाहिए क्योंकि वल्लभभाई पटेल को हिन्दुत्व के आईकन के तौर पर स्थापित करने के बाद - जबकि उन्होंने ताउम्र कांग्रेस में बितायी और आवश्यकता पड़ने पर खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य हिंदुत्ववादी जमातों की हरकतों पर अंकुश लगाने की कोशिश की - अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह गांधी को भी ऐसे अन्य आईकन के रूप में समाहित करना चाहते हैं।
यह अकारण नहीं कि संघ सुप्रीमो ने अपने इस व्याख्यान में गांधी और हेडगेवार को एक ही पलडे में रखने की कोशिश की।
भागवत के मुताबिक ‘गांधीजी ने साफ बताया था कि पश्चिमी सभ्यता ने हमारी अपनी संस्कृति को तबाह किया है और हम धर्मभ्रष्ट हो गए हैं... डॉ. हेडगेवार भी कहते थे कि बाकियों को दोष मत दो, तुम लोग इसलिए गुलाम हुए हो क्योंकि तुम गुलाम होने के लिए तैयार थे। तुममें कुछ कमी थी। मुझे गांधीजी के विचारों में यही समांतरता दिखती है।’’ /वही/
गांधीजी को ‘परिवार’ के ही एक आइकन के रूप में समाहित करने की उनकी कोशिशें कितने समय से, कितने महीन तरीके से और कितने शातिराना अंदाज में चल रही हैं, इसकी सहसा पड़ताल भी नहीं हो सकती। हां, हम अटलबिहारी वाजपेयी सरकार - जब पहली दफा भाजपा केन्द्र की सरकार में मुख्य भूमिका में थी - के कार्यकाल के उस प्रसंग का जिक्र कर सकते हैं, जिसकी कभी अधिक चर्चा भी नहीं होती।
याद करें कि उन्हीं दिनों वर्ष 2001 मे गांधी की संकलित रचनाओं - जो सौ खंडों में बंटी है - उनके संशोधन का काम हाथ में लिया गया था। जब यह संशोधित रूप में लोगों के सामने आया तो अध्येताओं ने पाया कि ‘इसमें गांधी के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं की बातें गायब हैं, खासकर वर्ष 1892 से 1915 के दिनों की जब वह दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे।’इस मामले को लेकर जब विवाद ने तूल पकड़ा तो बाकी अध्येताओं ने भी भाजपा द्वारा गांधी की संकलित रचनाओं के संशोधित संस्करण की आधिकारिकता को लेकर सवाल उठाए। वर्ष 2004 में जब भाजपा को चुनावी शिकस्त मिली और कांग्रेस की अगुआई में सरकार बनी तब सरकार ने त्रिदिब सुहरूद /Tridip Suhrud / नामक गांधीजी के अध्येता को इस संशोधित संस्करण की पड़ताल कर, मूल संकलित रचनाओं को प्रकाशित करने का जिम्मा दिया, जो उन्होंने बखूबी पूरा किया। गैरजानकारी या जानबूझकर गांधीजी के साहित्य के साथ भविष्य में कोई खिलवाड़ नहीं हो सके इसे सुनिश्चित करने के लिए संकलित रचनाओं के डिजिटल संस्करण भी तैयार किए गए हैं।
अगर हम हिंदुओं के ‘आटोमेटिक देशभक्त’ होने के दावे की ओर लौटें तो स्पष्ट होता है कि इस मसले को खोलना अर्थात अनपैक करना जरूरी है। शायद इसके लिए आसान रास्ता है कि जिसके माध्यम से हम राष्ट्रीयत्व के आधार के तौर पर धर्म के दावों की सत्यासत्यता पर पड़ताल कर सकते हैं और वह आसान रास्ता है। विगत तीन चार दशकों में सामने आए जासूसी के उन मामलों की पड़ताल करने का जिसके तहत भारत के लोग - खासकर वे जो सरकार की अपनी एजेंसियों मे, महकमों में काम कर रहे थे - विदेशी मुल्कों के लिए जासूसी करते पकड़े गए। एक सरसरी निगाह से देखें तो आप पाएंगे कि ऐसे पकड़े गए तथा दोषसिद्ध पाए गए लोगों में बहुसंख्यक समाज के सदस्यों की बहुतायत है।
कुख्यात कूमर नारायण कांड / 1985/ - जिसे ‘भारत के इतिहास का सबसे बड़ा जासूसी कांड कहा गया था’ जिसके तहत अहम राष्ट्रीय गोपनीय तथ्य फ्रांस तथा अन्य पश्चिमी मुल्कों को 25 साल तक बेचे जाते रहे और जिसके तहत किसी फर्म में काम कर रहे कूमर नारायण ने करोड़ों रुपये कमाए - से लेकर बिल्कुल हाल के समयों में उजागर हुए भाजपा आई टी सेल से कथित तौर पर सम्बद्ध मध्यप्रदेश के ध्रुव सक्सेना कांड को देखें
जिसे मोहित अग्रवाल तथा अपने ऐसे ही दस साथियों के साथ दो साल पहले पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी के लिए काम करते पकड़ा गया था, यह विवरण विचलित करनेवाला है।
हम पाते हैं कि किस तरह राजनयिक माधुरी गुप्ता को पाकिस्तान के लिए जासूसी करते पकड़ा गया / 2010/ जिसे बाद में दंडित भी किया गया या किस तरह रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग का अधिकारी अशोक साठे - जिस पर आरोप लगे थे कि वह इरान के खुर्रमशहर स्थित ‘रॉ’ के दफ्तर को जलाए जाने के पीछे थे - किस तरह रहस्यमयी तरीके से गायब होकर अमेरिका भाग गया। वैसे ‘रॉ’ के इतिहास में सबसे कुख्यात केस रविंदर सिंह का ही था, जो सीआईए के लिए काम करता था और खुद ‘रॉ’ की निगरानी में होने के बावजूद वह अमेरिका भागने में सफल हुआ। /वर्ष 2004भारतीय गुप्तचर सेवाओं में एक अधिक चर्चित मामला के वी उन्नीक्रष्णन का था, जो ‘रॉ’ के साथ काम करता था, जिसे भारत औेर श्रीलंका के बीच शांति समझौता होने के पहले गिरफ्तार किया गया था।
याद रहे कि कूमर नारायण मामले में अदालती फैसला आते आते वर्ष 2002 पहुंचा, जब उसका सहयोगी मानेकलाल तथा बारह अन्य लोगां को उम्रकैद या लंबे कारावास की सज़ा सुनायी गयी। ) वे सभी लोग जिन्हें मानेकलाल के साथ दंडित किया गया, उनके नामों की सूची गौरतलब है : पी गोपालन, टी एन खेर, एस एल चंदाना, स्वामी नाथ राम, के के मल्होत्रा, एस संकरन, जगदीश चंद्र अरोरा, वी के पलानीस्वामी, अमरिक लाल, जे एम तिवारी, किशन चंद शर्मा और एच एन चतुर्वेदी। इन सभी को राज्य के खिलाफ आपराधिक षडयंत्र रचने /120 बी/ और आफिशियल सिक्रेटस एक्ट के अलग अलग प्रावधानों के तहत दंडित किया गया।
पता नहीं संघ सुप्रीमो जो ‘ऑटोमेटिक देशभक्त’ बनने का फार्मूला सूझा रहे हैं, उन्होंने इस परिघटना की कोई व्याख्या की या नहीं?
कुल मिलाकर हम पाते हैं कि देशभक्त बनने का भागवत का नुस्खा तथ्यों पर आधारित नहीं है बल्कि मान्यताओं पर, आईडियोलॉजी पर आधारित है।
अगर मामला यह नहीं होता तो कमसे कम वह अपने संगठन तथा अन्य हिन्दुत्ववादी तंजीमों के इतिहास को पलट कर देखते और इस बात की पड़ताल करते कि आज़ादी की ऐतिहासिक जंग में - जब आप को देशभक्ति की वाकई कीमत चुकानी पड़ रही थी - तब उन्होंने क्या किया आखिर उन दिनों संघ तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ता ‘ऑटोमेटिक देशभक्त’ के रूप में क्यों नज़र नहीं आए, क्यों नहीं उन्होंने उस संग्राम में अपने आप को झोंक दिया बल्कि उस समूचे कालखण्ड में अपने आप को ‘हिन्दू संगठन’ ‘चरित्र निर्माण’ जैसी वायवीय बातों पर ही केन्द्रित किया, हिन्दू संगठन को ही राष्ट्र संगठन माना, जब 42 का जनसंग्राम छिड़ा तो इसी बात की मशक्कत की कि कहीं अंग्रेज सरकार की कोपदृष्टि का शिकार न होना पड़े।
स्वतंत्रताविरोधी व्यापक जनसंघर्ष से उद्वेलित कार्यकर्ताओं के प्रति खुद डॉक्टर हेडगेवार का रूख क्या रहता था इस पर दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी की किताब ‘विचार नवनीत’ रौशनी डालती है। संघ की कार्यशैली में अन्तर्निहित नित्यकर्म की चर्चा करते वे लिखते हैं :
‘‘नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने की विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथलपुथल होती रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल पुथल हुई थी । उसके पहले सन 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टरजी के पास गये। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टरजी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं, तो डाक्टरजी ने कहा .. जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ?’’ ’ ( श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खण्ड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)
वैसे सावरकर की अपनी स्थिति संघ से कोई गुणात्मक तौर पर भिन्न नहीं थी जब चालीस के दशक के पूर्वार्द्ध में जब उपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ी कांग्रेस पार्टी और समाज के अन्य रैडिकल धड़े ब्रिटिशों के खिलाफ ‘करो या मरो’ का संघर्ष चला रहे थे? विदित है कि जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से अपने आप को दूर रखा था और जिन दिनों भारत की व्यापक जनता ब्रिटिशों की मुखालिफत में खड़ी थी, उसने अपने आप को अपने विभाजनकारी एजेण्डा तक सीमित रखा था, मगर सावरकर उनसे भी एक कदम आगे बढ़ गए थे। उन दिनों वह भारत के दौरे पर निकले थे और घूम घूम कर सभाओं में, मीटिंगों में हिन्दू युवकों का आह्वान कर रहे थे कि वह सेना में भरती हों। ‘हिन्दुओं का सैन्यीकरण करो और राष्ट्र का हिन्दुकरण करो’ का उनका केन्द्रीय नारा एक तरह से बढ़ते जनान्दोलनों से निपट रही ब्रिटिश सरकार की दमन की कोशिशों के लिए मददगार साबित हो रहा था।
एक तरफ जहां कांग्रेस पार्टी ने अलग अलग प्रांतों में संचालित उसकी सरकारों को यह निर्देश दिया कि वह अपनी सरकारों से इस्तीफा दें, वहीं सावरकर की अगुआईवाली हिन्दू महासभा उसी अंतराल में सिंध, उत्तर पश्चिमी प्रांत और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सत्ता में साझेदारी कर रही थी और अपनी इस समझौतापरस्ती को उचित ठहरा रही थी :
व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के रास्ते ही आगे बढ़ना पड़ेगा।
संघ सुप्रीमो को गांधीहत्या में शामिल नाथूराम गोडसे और उसकी इस ‘आतंकी कार्रवाई’ की भी व्याख्या करनी चाहिए? वह इस कार्रवाई को किस नज़रिये से देखते हैं? स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता महात्मा गांधी की हत्या को अंजाम देने वाली इस मानवद्रोही कार्रवाई के बारे में वह क्या कहना चाहते हैं?
प्रोफेसर नरहर कुरूंदकर, जो समाजवादी विचारों के जनबुद्धिजीवी थे, उन्होंने अपनी किताब ‘शिवरात्रा’ में बाकायदा लिखा है, वह इस मामले में गौरतलब है :
..हिंदुत्ववादियों की पिस्तौल को कासिम रिजवी / वही जिसने हैदराबाद मुक्ति संग्राम में निज़ाम के लिए रज़ाकार नाम से हथियारबन्द गिरोह पैदा किए, जो कुख्यात रहे/ नज़र नहीं आया, निज़ाम या जिन्ना दिखाई नहीं दिए। उनके इस पिस्तौल की गोली सन 1920 के बाद कभी अंग्रेजों पर भी नहीं चली, गोया यह गोली गांधीजी के लिए तय थी। / पेज 33, मूल मराठी से अनूदित/
अंत में यह विचार कि आप की आस्था, आप की धार्मिक मान्यताएं अपने मुल्क के साथ आप के रिश्ते को परिभाषित कर सकती हैं यह विचार अपने आप में मनगढंत, काल्पनिक दिखता है। इसे उन विचारकों ने प्रचारित किया है जो कुछ हजार साल पुरानी संस्था धर्म और राष्ट्रीयत्व - जो चंद सदी पुरानी संस्था है, उसके बीच तालमेल बिठाना चाहते हैं।
वह इस बात को भी मान लेना नहीं चाहते कि पूरी दुनिया के लोग कम से कम 195 अलग अलग मुल्कों में बंटे हैं जो छह प्रमुख धर्मां / और सापेक्षत ‘कम प्रचलित धार्मिक परम्पराओं, संप्रदायों - जिनकी संख्या लगभग 4,200 तक है /से ताल्लुक रखते हैं। वह यह भी नहीं सोचना चाहते कि किस तरह एक व्यक्ति की आस्था और उसके राष्ट्रीयत्व के बीच किस तरह सामंजस्य बिठाया जा सकता है या किसी मुल्क के निवासी यह कैसे साबित कर सकते हैं कि उपरोक्त मुल्क के प्रति उनका प्यार उनकी विशिष्ट धार्मिक आस्था से उपजा है।
यह समझदारी इस बात पर भी विचार नहीं करती कि नास्तिकों की जगह कहां होगी - जिनकी तादाद समूची दुनिया में 50 से 70 करोड़ के बीच है- जब आप को अपनी देशभक्ति का प्रमाण देना होगा। क्या उन्हें अवांछित व्यक्ति घोषित किया जाएगा और ‘कीड़ों मकौड़ों’ की तरह - जैसी बात भारत के गृहमंत्री अलग संदर्भ में करते रहते हैं - देशनिकाला दिया जाएगा , क्योंकि अपनी नास्तिकता और राष्ट्रीयत्व के अंतर्सम्बन्ध के बारे में वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं होंगे।
अंत में यह बात समझना मुश्किल नहीं कि जनाब मोहन भागवत ‘ऑटोमेटिक देशभक्त’ की अपनी इस व्याख्या को क्यों अधिक स्थापित करना चाहते हैं और वैधता प्रदान करना चाहते हैं, दरअसल ‘हिंदू होना अपने आप देशभक्त होने का अंतिम सत्य स्थापित कर दिया जाए’ तो फिर कोई पलट कर हिन्दुत्ववादी जमातों से इस बात पर सवाल जवाब भी नहीं करेगा कि वह आज़ादी के दिनों में क्या कर रहे थे?
इस पर विस्तार से फिर कभी !
(सुभाष गाताडे वरिष्ठ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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