बहस: मतदाता की जांच या ‘वोट का अधिकार’ छीनने की साज़िश!

चुनाव आयोग ने बीती 24 जून को एक आदेश जारी किया। उसमें कहा गया कि बिहार सहित छह राज्यों में मतदाता सूचियों का विशेष गहन परीक्षण किया जाएगा। जिन पांच और राज्यों में मतदाता सूचियों की गहन समीक्षा की जाएगी उनमें पश्चिम बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु शामिल हैं। ये सभी वो राज्य हैं जहां 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
जिन पांच राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं वहां अभी ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया सामने नहीं है। क्योंकि उन राज्यों के पास इसके लिए अभी समय है। लेकिन बिहार में तो अगले तीन चार महीनों में चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग ने कहा है कि मतदाता सूचियों की विशेष गहन समीक्षा के बाद जो मतदाता सूची तैयार की जाएगी उसी के आधार पर चुनाव कराये जाएंगे।
24 जून को जारी आदेश के अनुसार यह कार्य 25 जून से शुरू हो जाएगा और तीस सितंबर तक कार्य पूरा करके नई मतदाता सूची तैयार कर ली जाएगी। यानी चुनाव आयोग ने अपनी ओर से कार्य शुरू कर दिया है और करीब एक हफ्ता हो चुका है।
चुनाव आयोग के अनुसार सरकारी कर्मचारी घर-घर जाकर डाटा कलेक्ट करेंगे और 25 जुलाई तक अपना कार्य पूरा कर लेंगे। बिहार में करीब आठ करोड़ मतदाता हैं। मोटे तौर पर इन मतदाताओं को तीन श्रेणियो में विभाजित किया गया है। एक- जिनकी उम्र 38 साल से ज्यादा है। यानी जो 1987 से पहले के पैदा हुए हैं। दूसरे वे जो 1987 और 2003 के बीच पैदा हुए हैं यानी जिनकी उम्र 20,22 साल से लेकर 37 साल तक है। तीसरे वे जो 2004 के बाद पैदा हुए हैं और जिनकी उम्र 18 से 21 साल के बीच है। भारत में 18 साल से ज्यादा के हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार प्राप्त है।
जो 38 साल से ज्यादा उम्र के लोग हैं उनके लिए मुसीबत कम है। उन्हें एक साधारण फॉर्म भरना है, अपनी फोटो चिपकानी है और सरकारी कर्मचारी को दे देना है। जो 1987 के बाद और 2003 के बीच पैदा हुए हैं, उन्हें अपने साथ ही अपने माता-पिता में से किसी एक का जन्म प्रमाण पत्र और निवास प्रमाण पत्र देना है। जो 2003 के बाद पैदा हुए हैं उन्हें अपना और अपने माता-पिता दोनों का ही जन्म और निवास प्रमाण पत्र देना है।
सरसरी तौर पर देखें तो इसमें कोई दिक्कत नहीं नजर आती। बल्कि अच्छा ही लगता है। अभी तक मतदाता सूचियों में गड़बड़ी की शिकायत होती रही है। अब अगर चुनाव आयोग विशेष गहन अभियान चलाकर इसे दुरुस्त करता है तो इसमें बुराई क्या है ? बल्कि यह अच्छा ही है। लेकिन जैसे ही इस पर विचार करते हैं इसकी गंभीरता और परेशानियां साफ-साफ दिखाई पड़ने लगती हैं।
बिहार में करीब आठ करोड़ मतदाताओं में से 38 साल से ज्यादा उम्र के करीब सवा तीन करोड़-साढ़े तीन करोड़ मतदाता हैं। इनके लिए शर्त यह है कि इनमें से जिस किसी का भी 2003 की वोटर लिस्ट में नाम है उन्हें बस फॉर्म भरना है और अपना फोटो चिपका कर सरकारी कर्मचारी ( बीएलओ ) को दे देना है। लेकिन अगर जिनका नाम 2003 की वोटर लिस्ट में नहीं है या जिनका नाम वोटर लिस्ट में तो है लेकिन आधा-अधूरा नाम है तो उन्हें अपने जन्म का प्रमाण पत्र देना पड़ेगा। मान लीजिए की सवा तीन करोड़ मतदाताओं में से तीन करोड़ का नाम मतदाता सूची में है और करीब 25 लाख का नहीं है तो उन 25 लाख को अपना जन्म प्रमाण पत्र देना होगा। सवाल यह है कि जन्म प्रमाण पत्र देंगे कहां से ? बनवाया हो तब न देंगे? यहां तो जन्म प्रमाण पत्र ही बनवाते बहुत कम लोग हैं। एक जानकारी के मुताबिक बिहार में सिर्फ 2.8 प्रतिशत लोगों ने जन्म प्रमाण पत्र बनवाये हैं। फिर बाकियों का क्या होगा? महीने भर में कितने लोग जन्म प्रमाण पत्र बनवा सकेंगे ?
दूसरी श्रेणी में 1987 के बाद और 2003 तक पैदा हुए लोग हैं। इन्हें अपने साथ ही अपने माता-पिता में से किसी एक का जन्म प्रमाण पत्र देना होगा। जन्म प्रमाण पत्र की हालत आपने देखी कि महज 2.8 प्रतिशत लोगों के पास है। दूसरा विकल्प जन्म प्रमाण पत्र का हाई स्कूल का सर्टिफिकेट होता है। बिहार में कुल 12-13 प्रतिशत लोगों के पास हाई स्कूल का सर्टिफिकेट है। तीसरा विकल्प जाति प्रमाण पत्र है। जाति प्रमाण पत्र भी 20-25 प्रतिशत लोगों के पास ही होने का अनुमान है। क्योंकि जिन लोगों को सरकारी योजनाओं का फायदा मिलने की उम्मीद होती है बस वे लोग ही जाति प्रमाण पत्र बनवाते हैं। सवर्णों को कोई लाभ नहीं मिलता तो इनके पास जाति प्रमाण पत्र होता ही नहीं। बाकी बचे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ी जाति के लोग तो इनमें भी सरकारी लाभ पाने वाले ही जाति प्रमाण पत्र बनवाते हैं, जो मुश्किल से 20 से 30 प्रतिशत ही होंगे। इस वर्ग में बिहार के सबसे ज्यादा मतदाता हैं करीब चार, साढ़े चार करोड़। ये सब लोग नई मतदाता सूची समीक्षा में प्रभावित होने वाले हैं। अगर 2.8 प्रतिशत जन्म प्रमाण पत्र बनवाने वाले, 12-13 प्रतिशत हाई स्कूल का सर्टिफिकेट जमा करने वाले और 25-30 प्रतिशत जाति प्रमाण पत्र बनवाने वालों को जोड़ दें तो भी ये आकड़ा 50 प्रतिशत को नहीं छूता। इस तरह इस वर्ग से भी दो-सवा दो करोड़ लोग अपना नाम मतदाता सूची में शामिल कराने से वंचित रह जाएंगे।
जिनकी उम्र 18 से 21 साल के बीच है उनके सामने तो और बड़ी समस्या है। उन्हें अपने साथ ही माता और पिता दोनों का ही जन्म प्रमाण पत्र देना है, जो कि इनके लिए बेहद मुश्किल होगा। इस तरह आप देखें तो आठ करोड़ मतदाताओं में से करीब पांच करोड़ मतदाताओं के बाहर होने का खतरा है। यानी वो अगले चुनाव में वोट नहीं डाल पाएंगे।
इसमें खास बात यह है कि चुनाव आयोग ने नागरिकों की पहचान के जो सबसे प्रमुख तीन दस्तावेज हैं उनमें से किसी को भी नहीं माना है। सबसे ज्यादा लोगों के पास आधार कार्ड होता है। बिहार में 88 प्रतिशत लोगों के पास आधार कार्ड है। चुनाव आयोग चाहता तो आधार कार्ड को जन्म तिथि और निवास के दस्तावेज के रूप में मान्यता दे सकता था। इस तरह 88 प्रतिशत लोगों को मतदान का अधिकार एक झटके में मिल सकता था। बाकी जो बचते उनका आधार कार्ड बनवाया जा सकता था।
दूसरा सबसे ज्यादा सुलभ दस्तावेज चुनाव आयोग द्वारा दिया गया मतदाता पहचान पत्र है। यह भी काफी संख्या में लोगों के पास है। लेकिन चुनाव आयोग ने इसे भी मान्यता नहीं प्रदान की है। तीसरा थोड़ा मुश्किल लेकिन फिर भी सुलभ दस्तावेज राशन कार्ड है लेकिन चुनाव आयोग को इस पर भी भरोसा नहीं।
विपक्षी नेताओं ने चुनाव आयोग के इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है। उनका आरोप है कि चुनाव आयोग गरीब, मजदूर और वंचित तबके को मतदान के अधिकार से बाहर करना चाहता है। इसीलिए उसने ये आदेश जारी किया है। बिहार में तो अगले चार महीने में चुनाव होने हैं। महीने भर में इस प्रक्रिया को ही पूरा नहीं किया जा सकता है। पीछे बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना कराई। उसमें किसी नागरिक को कोई दस्तावेज नहीं देना था तब भी उसमें पांच महीने का समय लगा। यहां तो नागरिकों को दस्तावेज देना है, फॉर्म भरना है, फोटो चिपकाना है फिर यह कार्य महीने भर में कैसे हो सकता है ? ऊपर से यह बरसात का मौसम है। बिहार के 73 प्रतिशत हिस्सों में जल भराव या बाढ़ की स्थिति होती है। ऐसे में लोग अपनी जान बचाएंगे या चुनाव आयोग को दस्तावेज देंगे ?
आपको मालूम है देश में पहले बहुत कम लोगों को मताधिकार प्राप्त था। अंग्रेजों के जमाने में भारतीयों को मत देने के अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। 1919 में चेम्सफोर्ड सुधार के जरिये मताधिकार को बढ़ाया गया। 1935 में इसे और विस्तृत किया गया। फिर भी बहुत कम भारतीयों को मत देने का अधिकार प्राप्त हो पाया था। एक खास वर्ग ही था जो इसमें शामिल था। वे लोग जो कर अदा करते थे, शहरों में निवास करते थे या फिर शिक्षित थे वे ही मत दे सकते थे। आजादी के बाद 21 साल से ज्यादा उम्र के सभी लोगों को मत का अधिकार दिया गया। चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या लिंग के हों। बाद में मताधिकार की आयु घटाकर 21 से 18 साल कर दी गई। लेकिन अब इस सरकार-चुनाव आयोग ने पिछले दरवाजे से लोगों के मताधिकार छीनने का अभियान शुरू कर दिया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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