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किसे होना चाहिए बोधगया के महाबोधि मंदिर का कर्ता-धर्ता?

बौद्ध भिक्षुओं का कहना है कि मंदिर से जुड़े सभी निर्णयों का अधिकार सिर्फ़ बौद्ध समुदाय को होना चाहिए और प्रबंधन समिति में केवल बौद्ध सदस्य होने चाहिए। इस मांग को लेकर फरवरी 2025 से प्रदर्शन जारी है।
Buddha

बिहार के पटना के पास स्थित बोधगया का महाबोधि मंदिर बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यंत पवित्र स्थल है, क्योंकि यहीं गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह मंदिर 'बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949' के अधीन आता है और इसका प्रबंधन बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति (BTMC) करती है। इस कानून के तहत मंदिर की संचालन समिति में बौद्धों और हिंदुओं की संख्या समान रखी गई है।

लेकिन फरवरी 2025 से कई बौद्ध भिक्षु इस कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि मंदिर से जुड़े सभी निर्णयों का अधिकार सिर्फ़ बौद्ध समुदाय को होना चाहिए और प्रबंधन समिति में केवल बौद्ध सदस्य होने चाहिए।

इन विरोध प्रदर्शनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। मंदिर समिति की मिश्रित संरचना के चलते धीरे-धीरे इस पवित्र स्थल का 'ब्राह्मीकरण' (Brahminisation) होता गया है। 

प्रदर्शन पर बैठे एक आकाश लामा ने कहा– “यह सिर्फ़ एक मंदिर की बात नहीं है, यह हमारी पहचान और गर्व की बात है। हम शांतिपूर्वक अपनी मांगें रख रहे हैं। जब तक सरकार से लिखित आश्वासन नहीं मिलता, यह आंदोलन अनिश्चितकाल तक जारी रहेगा।”

प्रदर्शनकारी भिक्षुओं का कहना है कि “महाबोधि महाविहार का ब्राह्मीकरण किया जा रहा है। मंदिर की व्यवस्थाओं और अनुष्ठानों में ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज़ों का प्रभाव बढ़ रहा है, जो बौद्ध समुदाय की आस्था और विरासत को गहराई से आहत कर रहा है।”

भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच संघर्ष की एक लंबी गाथा है। जहां बुद्ध का दर्शन समानता और करुणा पर आधारित था, वहीं ब्राह्मणवाद जन्म पर आधारित जाति और लिंग आधारित पदानुक्रम को मान्यता देता था। गौतम बुद्ध ने उस समय की जातिवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं का विरोध किया।

बुद्ध का संदेश व्यापक रूप से फैला, और मौर्य सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद यह दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुँचा। अशोक ने कई देशों में बुद्ध के संदेश को फैलाने के लिए दूत भेजे।

बुद्ध ने उस समय के अनावश्यक पशुबलि, विशेषकर गायों की बलि, के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इस प्रकार के सुधारों से ब्राह्मणों के सामाजिक और आर्थिक हितों को चोट पहुँची, जिससे वे बौद्ध धर्म के प्रसार से असहज हो उठे।

बुद्ध धर्म के पतन की एक बड़ी घटना तब हुई जब पुष्यमित्र शुंग, जो अशोक के पौत्र बृहद्रथ का सेनापति था, ने उसकी हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की। इसके साथ ही ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान और बौद्ध धर्म का ह्रास शुरू हुआ। पुष्यमित्र ने बौद्धों पर खुलेआम अत्याचार किए—विहार जलाए गए, स्तूप ध्वस्त किए गए और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या के लिए इनाम घोषित किए गए।

इसके बाद शंकराचार्य (कालड़ी के) का आगमन हुआ। उन्होंने ब्राह्मणवाद को पुनर्गठित और शुद्ध करने का प्रयास किया। यद्यपि उनके काल पर मतभेद है—परंपरागत रूप से 788-820 ईस्वी में माने जाते हैं, जबकि कुछ विद्वान इन्हें 5वीं सदी ईसा पूर्व तक ले जाते हैं—लेकिन यह स्पष्ट है कि उनका समय मुस्लिम आक्रमणों से पहले का था।

शंकराचार्य बौद्ध दर्शन के ख़िलाफ़ खड़े हुए। लेखक सुनील खिलनानी अपनी पुस्तक Incarnations: India in 50 Lives में लिखते हैं,

“उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध विचारकों से वाद-विवाद किए। बुद्ध ने जिस क्षणभंगुरता और ईश्वर की अनुपस्थिति की बात की थी, शंकराचार्य उसे सिरे से ख़ारिज करते थे।”

शंकराचार्य की दृष्टि में यह संसार माया था, जबकि बुद्ध इसे वास्तविक मानते थे और इसमें व्याप्त दुःखों को दूर करने का मार्ग सुझाते थे।

बौद्ध धर्म भारत से लगभग लुप्त हो गया, जब तक कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार नहीं कर लिया। अंबेडकर से पहले भक्ति आंदोलन के संतों ने भी बुद्ध से प्रेरित होकर जातिवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी, हालांकि उन्हें ब्राह्मणवादी सत्ता ने प्रताड़ित किया।

दलितों की समानता की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के प्रयासों से हुआ—शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उनके योगदान अतुलनीय थे। जब यह सामाजिक न्याय का आंदोलन उभरने लगा, तो ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रिया हिंदू महासभा और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के रूप में सामने आई। ये संगठन मूलतः सामाजिक यथास्थिति और ब्राह्मणवादी मूल्यों को बनाए रखने की परियोजनाएं थीं। इन्होंने मनुस्मृति को अपना आदर्श माना।

आज भारत विविधताओं वाला देश है, लेकिन जाति और लिंग आधारित वर्चस्व 'हिंदू राष्ट्र', 'हिंदुत्व' और 'हिंदू राष्ट्रवाद' के नाम पर थोपे जा रहे हैं। अंबेडकर ने महाड़ तालाब सत्याग्रह, मनुस्मृति दहन और कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन के ज़रिए बराबरी की लड़ाई को आगे बढ़ाया।

हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन ने इन सामाजिक बदलावों की कुछ हद तक चिंता की, पर हिंदुत्व राजनीति ने या तो इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया या खुलकर विरोध किया।

धर्म के क्षेत्र में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों की आधुनिक ‘प्रतिक्रांति’ बहुआयामी है। महाबोधि मंदिर में ब्राह्मणवादी हस्तक्षेप इसी रणनीति का हिस्सा है। एक और तरीका है दलितों को सामाजिक समरसता के नाम पर समाहित करने की कोशिश, जो अंबेडकर के 'जाति विनाश' के एजेंडे से बिल्कुल उलट है।

इसी रणनीति के तहत सूफ़ी दरगाहों का भी ब्राह्मीकरण किया जा रहा है। कर्नाटक की बाबा बुडनगिरि और मुंबई के पास की हाजी मलंग दरगाह को हिंदू स्थल घोषित करने की कोशिशें हो रही हैं। सबसे दिलचस्प उदाहरण शिर्डी के साईं बाबा का है। लेखक योगिंदर सिकंद अपनी किताब Sacred Spaces में शिर्डी के साईं बाबा की समन्वयवादी परंपरा की चर्चा करते हैं। लेकिन आज उस दरगाह का भी ब्राह्मीकरण लगभग पूरा हो चुका है।

साईं चिंतन के विशेषज्ञ वॉरेन लिखते हैं:

“हालांकि साईं बाबा को मुसलमान और हिंदू दोनों मानते थे, पर उनका ईश्वर चिंतन इस्लामी दृष्टिकोण पर आधारित था। उन्होंने कभी हिंदू कर्मकांड नहीं सिखाए। अब साईं बाबा को पूरी तरह हिंदू रूप में पुनः परिभाषित कर लिया गया है।”

हम ऐसे अजीब समय में जी रहे हैं जहां धर्म का राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग हो रहा है। बुद्ध मंदिर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के नियंत्रण में है, सूफ़ी स्थलों का ब्राह्मीकरण हो रहा है। बौद्ध भिक्षुओं का यह आंदोलन इसी कोशिश के ख़िलाफ़ है कि उनके पवित्र स्थलों पर ऐसे मूल्य न थोपे जाएं, जो बुद्ध के समता और अहिंसा के संदेश के विपरीत हैं।

(लेखक प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और आईआईटी बॉम्बे में पढ़ा चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

Who Should Control Mahabodhi Temple in Bodhgaya?

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