करों में कटौती से कॉरपोरेट घरानों को 61,000 करोड़ रुपये का लाभ

धीमी अर्थव्यवस्था का सामना करते हुए 30% से 22% तक कॉरपोरेट करों में कटौती करना मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। पिछले साल 20 सितंबर को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा इसकी घोषणा की गई थी। इसको लेकर कॉर्पोरेट दिग्गजों और कई अर्थशास्त्रियों द्वारा इसकी सराहना की गई थी जो मानते हैं कि उनके व्यापार में सहूलियत के लिए "उद्योगपतियों" को छूट दी जानी चाहिए।
इस कटौती का असर अब दिखने लगा है। जनवरी 2020 तक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीजीए) द्वारा दी गई नवीनतम जानकारी के अनुसार, कॉर्पोरेट करों का संग्रह पिछले साल के स्तर से 61.44 हजार करोड़ रुपये तक कम हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उद्योग के दिग्गजों ने बहुत कुछ बचा लिया और वहीं सरकार को इतना ही नुकसान हुआ था। [नीचे दिए गए चार्ट देखें]
जनवरी 2019 तक संचित कॉर्पोरेट कर संग्रह 454.7 हजार करोड़ रुपये था जबकि जनवरी 2020 तक ये संग्रह 393.2 हजार करोड़ रुपये था। ये लगभग 61 हजार करोड़ रुपये का अंतर है। जब तक यह वित्तीय वर्ष समाप्त नहीं हो जाता तब तक ये बड़ा उपहार जो मोदी सरकार की कृपा से मिल रही है काफी ज़्यादा हो जाएगी।
इसने देश के कुल कर संग्रह को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। सीजीए की इसी रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2020 में सकल कर राजस्व पिछले साल जनवरी में 15.6 लाख करोड़ रुपये की तुलना में 15.3 लाख करोड़ रुपये था। जो कि 31 हजार करोड़ रुपये से अधिक का अंतर है। अगर कॉर्पोरेट करों में कटौती नहीं की गई होती तो यह अंतर समाप्त हो जाता। अन्य कर स्रोतों को जो नुकसान उठाना पड़ा है उनमें सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क हैं।
वास्तव में, ये स्थिति बहुत खराब है क्योंकि सरकार ने पिछले साल की तुलना में इस साल कर संग्रह के लिए उच्च लक्ष्य निर्धारित किया था। फिर भी चीजें विपरीत दिशा में जा रही हैं।
क्या यह पुनर्जीवित अर्थव्यवस्था है?
यह दुखद स्थिति जो स्पष्ट करती है वह यह है कि: मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में बुरी तरह से विफल रही है। वास्तव में यह केवल मंदी के संकट का इस्तेमाल निजी क्षेत्र विशेष रूप से घरेलू और विदेशी बड़े कॉर्पोरेट को ज़्यादा रियायतों और उपहारों के माध्यम से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है।
कॉरपोरेट करों में कटौती के पीछे तर्क यह था कि इससे संघर्ष करने वाले कॉरपोरेट्स को मदद मिलेगी, उन्हें अधिक उत्पादक क्षमताओं में निवेश करने के लिए कुछ नकदी देनी होगी और इस तरह रोजगार में सुधार होगा और आम तौर पर मांग को पूरा करने में मदद मिलेगी। सपना यह था कि यह कर कटौती देश भर में ऊपर से नीचे तक खुशी और समृद्धि का संचार करेगा।
पत्ते का यह घर कुछ ही महीनों में ढह गया है जैसा कि कई लोगों द्वारा भविष्यवाणी की गई थी और जैसा कि कई अन्य देशों में अनुभव रहा है।
यह दृष्टिकोण पूरी तरह से अव्यवहारिकता को दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था कैसे चल रही है। क्योंकि, समस्या यह नहीं है कि कॉरपोरेट्स को उनके हाथों में धन की आवश्यकता है- यही वे लोग हैं जिन्हें इसकी आवश्यकता है! अगर लोगों के हाथ में पर्याप्त क्रय शक्ति होती तो वे एक ऐसी मांग पैदा करते जो अर्थव्यवस्था में संचार लाती जिससे मांग बढ़ती। इसके चलते उद्योग को उत्पादक क्षमताओं में वृद्धि होती जिससे रोज़गार बढ़ता। ये सरकार स्वयं के खर्च को बढ़ाकर मदद भी कर सकती थी।
लेकिन मोदी सरकार ने इसके विपरीत तरीके से देश को विनाशकारी रास्ते की तरफ धकेल दिया। यह कॉरपोरेट्स को अधिक रियायतें देकर, अधिक विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करके, सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों को बेचने की कोशिश में अपने खर्च में काफी अल्पव्ययी हो गई है और ये श्रमिकों के लिए सुरक्षात्मक कानूनों को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ रही है। ये सभी कॉर्पोरेट्स की मदद करने के लिए हैं जो उत्पादन या रोज़गार के विस्तार के लिए अर्थव्यवस्था में कुछ भी वापस किए बिना केवल बेहतर मुनाफे का लाभ उठा रहे हैं।
इस बीच लोग इन नीतियों के कारण काफी पीड़ित हैं। बेरोज़गारी लगभग 8% पर पहुंच चुकी है। यह पिछले वर्ष 7% से 8% के बीच रही है। परिवारों का उपभोग खर्च कम हो गया है। खाद्य पदार्थों की महंगाई ने इसे बढ़ा दिया है। लाखों में नौकरियां खत्म हो चुकी हैं। वेतन या तो कम हो रहे है या स्थिर है। और कर राजस्व में गिरावट से कल्याणकारी क्षेत्रों के खर्च में कटौती हुई है, जबकि इन्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत थी।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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