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क्या हफ़्ते में एक घंटे काम करना भी रोज़गार है? आप 'नौकरीपेशा' माने जाएंगे!

ऐसी परिभाषाओं के बावजूद, रोज़गार पर ताज़ा मासिक रिपोर्ट युवाओं में भारी बेरोज़गारी दिखाती है।
employment in india
प्रतीकात्मक तस्वीर

 

पिछले हफ़्ते सरकार ने देश में रोज़गार की स्थिति पर एक मासिक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट युवाओं में बेरोज़गारी की चिंताजनक तस्वीर पेश करती है: 15–29 वर्ष आयु वर्ग के 15% लोग बेरोज़गार हैं। सभी आयु वर्गों के लिए कुल बेरोज़गारी दर 5.6% बताई गई है — जो खुद में कोई सुकून देने वाला आंकड़ा नहीं है।

यह रिपोर्ट मासिक रोज़गार रिपोर्टों की एक नई श्रृंखला की दूसरी कड़ी है, जिसे सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने शुरू किया है। इसे "पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे" (PLFS) कहा जाता है। इससे पहले, ये सर्वेक्षण सालाना और शहरी क्षेत्रों के लिए तिमाही तौर पर प्रकाशित होते थे। मासिक रिपोर्ट पूरे देश में लगभग 3.9 लाख व्यक्तियों के सर्वेक्षण पर आधारित है।

नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है कि शहरी क्षेत्रों में युवा बेरोज़गारी की स्थिति और भी भयावह है, जहां औसत बेरोज़गारी दर लगभग 18% है। महिलाओं में यह दर 24.4% तक पहुंच गई है, जबकि पुरुषों में यह लगभग 16% है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति कुछ बेहतर है, जहां युवा बेरोज़गारी दर लगभग 14% दर्ज की गई है।

हफ़्ते में एक घंटा काम = रोज़गार!

इस रिपोर्ट में रोज़गार और बेरोज़गारी का आंकलन 'वर्तमान साप्ताहिक स्थिति' (Current Weekly Status – CWS) के आधार पर किया गया है। लंबे समय से इस्तेमाल हो रही इस परिभाषा के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति सर्वेक्षण से पहले वाले हफ़्ते में कम से कम एक घंटा भी काम करता है, तो उसे ‘रोज़गारशुदा’ माना जाता है।

अगर कोई व्यक्ति उस हफ़्ते में कम से कम एक घंटा काम तलाश करता है और बाकी समय कुछ नहीं करता, तो उसे ‘बेरोज़गार’ गिना जाता है।

इसके विपरीत, एक और अधिक व्यावहारिक परिभाषा 'सामान्य स्थिति' (Usual Status) कहलाती है। इसमें व्यक्ति को रोज़गारशुदा तभी माना जाता है जब वह पिछले 365 दिनों में अधिकतर समय काम करता रहा हो। अगर व्यक्ति दो या अधिक काम करता है तो जिस पर ज़्यादा समय खर्च हुआ उसे 'मुख्य काम' (principal work) और बाकियों को 'गौण काम' (subsidiary work) कहा जाता है। 'सामान्य स्थिति' में दोनों को मिलाकर गिनती की जाती है।

स्पष्ट है कि सरकार द्वारा मासिक रिपोर्टों की आवश्यकता ने उसे CWS ढांचे को अपनाने के लिए प्रेरित किया है, लेकिन अगर इन रिपोर्टों को सच में अर्थपूर्ण बनाना है, तो 'हफ़्ते में एक घंटे काम = रोज़गार' जैसी अजीब परिभाषा पर फिर से विचार ज़रूरी है।

इस बात को और ज़्यादा चिंताजनक यह बनाता है कि इतने ढीले मापदंडों के बावजूद 15% युवा बेरोज़गार हैं। इसका मतलब है कि बेरोज़गारी की वास्तविक स्थिति इससे कहीं ज़्यादा गंभीर है।

बेरोज़गारी को कमतर दिखाने का खेल

नीचे के चार्ट में अलग-अलग वर्षों में बेरोज़गारी दर दिखाई गई है, जो विभिन्न PLFS वार्षिक रिपोर्टों से ली गई हैं, और 2023-24 की वार्षिक रिपोर्ट में संक्षेप में दी गई हैं। इनमें मई 2025 की मासिक रिपोर्ट के आंकड़े भी शामिल हैं, जो CWS के आधार पर हैं।

इन आंकड़ों की सीमाएं साफ दिखती हैं — कोविड वर्षों के दौरान बेरोज़गारी दर अपेक्षा से कम दिखाई गई है, जबकि CMIE जैसे अन्य स्वतंत्र सर्वेक्षणों (जिनका विश्व बैंक ने भी उल्लेख किया है), इससे कहीं अधिक दरें दिखाते हैं।


ध्यान दें कि PLFS सर्वेक्षण जुलाई से अगले वर्ष जून तक की अवधि को कवर करते हैं। इसलिए 2019-20 को कोविड की शुरुआत वाला वर्ष माना गया है, क्योंकि भारत में पहली लहर मार्च 2020 में आई और पहला लॉकडाउन मार्च के अंत से मई के अंत तक चला।

कोविड काल के कुछ महीनों (जैसे अप्रैल 2020) में बेरोज़गारी की दर 25% तक पहुंच गई थी, लेकिन उसके बाद यह 7–8% के आसपास आ गई, जिसे 'सामान्यता' का भ्रम कहा जा सकता है। इसके बावजूद, सरकारी सर्वेक्षण बेरोज़गारी की वास्तविक गहराई को कम कर दिखाते हैं।

हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि औसतन बेरोज़गारी दर पिछले कई वर्षों से चिंताजनक रूप से ऊंची बनी हुई है। मई 2025 के मासिक आंकड़े अन्य वर्षों के वार्षिक औसत से सीधे तुलना योग्य नहीं हैं, लेकिन एक ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति ज़रूर दर्शाते हैं — आंशिक रूप से रबी कटाई के बाद की गर्मियों के मंद मौसम की वजह से, और आंशिक रूप से CWS पद्धति की सीमाओं के कारण।

छिपी बेरोज़गारी और ग़लत आंकड़े

अपूर्ण रोज़गार (Underemployment) या छिपी बेरोज़गारी (Hidden Unemployment) जैसे पहलुओं को ये सर्वे पकड़ ही नहीं पाते।

CWS पद्धति न केवल ‘हफ़्ते में एक घंटे’ वाले व्यक्ति को रोज़गारशुदा मान लेती है, बल्कि यह भी नहीं बताती कि उनका काम कितना बदतर है — जैसे बहुत कम मज़दूरी, अवैध घंटों में काम, और बिना सुरक्षा के रोज़गार। ये हालात खास तौर पर भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में आम हैं।

PLFS की पिछली रिपोर्टों ने यह दिखाया है कि देश के अधिकांश श्रमिकों को बेहद कम वेतन मिलता है।

‘रोज़गार’ या ‘बेरोज़गारी’ जैसे एक-रेखा वाले आंकड़ों का पीछा करना एक ऐसे विविध और जटिल समाज में विफल प्रयास बन जाता है, जहां लोग जीविका के लिए साल भर में कई तरह के काम करने को मजबूर होते हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें--

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