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बंगाल में मतुआ वोटों के लिए लोकतांत्रिक-संवैधानिक उसूलों की चढ़ायी जा रही बलि

मतुआ वोटों के लिए भाजपा और तृणमूल में जबरदस्त जोर आजमाइश चल रही है। इस चक्कर में लोकतांत्रिक-संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है। धर्म और राजनीति के घालमेल का खेल खुल्लमखुल्ला खेला जा रहा है।
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(फाइल फोटो) 2019 में सीएए और एनआरसी के खिलाफ ठाकुर नगर में तृणमूल समर्थक सारा भारत मतुआ संघ के नेतृत्व में मतुआ महासंघ की रैली। साभार : टेलीग्राफ

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए छह महीने से भी कम समय बचा है। त्रिकोणीय लड़ाई की जमीन तैयार हो चुकी है। तृणमूल कांग्रेस, वाम-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच मुकाबला होना है। जो हालात हैं, उनमें बहुत सी सीटों पर पांच हजार से भी कम वोटों के अंतर से हार-जीत होगी। यानी एक-एक वोट अहमियत रखेगा। वाम दल जहां मजदूर-किसान हितों व धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के सवाल, छात्र-युवाओं की गोलबंदी के सहारे चुनाव में उतरने की तैयारी में हैं, वहीं भाजपा धार्मिक, सांप्रदायिक गोलबंदी को अपना हथियार बना रही है। भाजपा की राजनीति की काट के लिए ममता बनर्जी भी उसी की तर्ज पर गोलबंदी कर रही हैं। पहाड़ के गोरखा समुदाय पर भाजपा की मजबूत पकड़ थी, जिसे ममता बनर्जी जोड़-तोड़ के अपने हथकंडों के जरिये काफी हद तक अपने साथ लाने में सफल रही हैं। अब वह उस मतुआ समुदाय को साधने में लगी हैं जिनके पास आगामी चुनाव में बंगाल की सत्ता की चाबी होने की बात कही जा रही है।

पिछले लोकसभा चुनाव में मतुआ बहुल इलाकों में भाजपा के मुकाबले तृणमूल पिछड़ गयी थी। मतुआ वोटों के लिए भाजपा और तृणमूल में जबरदस्त जोर आजमाइश चल रही है। इस चक्कर में लोकतांत्रिक-संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है। धर्म और राजनीति के घालमेल का खेल खुल्लमखुल्ला खेला जा रहा है।

9 दिसंबर को ममता बनर्जी ने मतुआ बहुल इलाके, उत्तर 24 परगना के बनगांव में विशाल जनसभा की। इस दौरान उन्होंने मतुआ संप्रदाय के प्रवर्तक हरिचांद ठाकुर के जन्मदिन मधुकृष्ण त्रयोदशी पर हर साल सरकारी छुट्टी की घोषणा की। मतुआ लोगों के लिए डेवलपमेंट बोर्ड गठन की घोषणा वह पहले ही कर चुकी हैं। राज्य सरकार की ओर से मतुआ लोगों के लिए आराध्य हरिचांद-गुरुचांद ठाकुर के नाम पर विश्वविद्यालय का काम भी शुरू किया गया है। हरिचांद ठाकुर की जीवनी पाठ्यक्रम में शामिल करने का एलान करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि और कुछ जुड़वाना होगा तो बताइएगा।

पिछले लोकसभा चुनाव में बनगांव संसदीय सीट से तृणमूल को भाजपा उम्मीदवार तथा ऑल इंडिया मतुआ महासंघ के अध्यक्ष शांतनु ठाकुर के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। खास बात यह है कि शांतनु ने जिन्हें हराया वह कोई और नहीं, बल्कि मतुआ लोगों की ठाकुरबाड़ी की बहू और तत्कालीन सांसद ममता ठाकुर थीं। शांतनु भी उसी परिवार के बेटे हैं। इस तरह भाजपा ने परिवार के अंदर ही प्रतिद्वंद्वी खड़ा करके तृणमूल को मात दी।

1947 में भारत के बंटवारे के बाद हरिचांद ठाकुर का खानदान पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से भारत आ गया और उत्तर 24 परगना में ठाकुरनगर रिफ्यूजी कॉलोनी बसायी। इस परिवार का घर ही ठाकुरबाड़ी कहलाया। हरिचांद ठाकुर के पड़पोते प्रमथ रंजन ठाकुर अपने निधन (1990) तक मतुआ महासंघ के अध्यक्ष रहे। उनके बाद उनकी पत्नी बीणापाणि देवी ने महासंघ की जिम्मेदारी संभाली, जिन्हें बोड़ोमां के नाम से जाना जाता था। बोड़ोमां का पिछले साल निधन हो गया। 2014 में बोड़ोमां के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर बनगांव लोकसभा सीट से तृणमूल के टिकट पर सांसद निर्वाचित हुए। सीपीएम के देबेश दास को हराकर। भाजपा तीसरे स्थान पर रही थी और काफी पीछे थी। लेकिन 2014 में ही कपिल कृष्ण की मौत हो गयी।

2015 में खाली सीट पर उपचुनाव हुआ। तृणमूल ने उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर को उम्मीदवार बनाया। लेकिन उपचुनाव से ठीक पहले भाजपा ने ठाकुरबाड़ी में सेंध लगायी और बोड़ोमां के छोटे बेटे तथा कपिल कृष्ण के छोटे भाई मंजुल कृष्ण ठाकुर को अपनी तरफ कर लिया। मंजुल ने ममता सरकार में शरणार्थी राहत एवं पुनर्वास मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और भाजपा की सदस्यता ले ली। मंजुल के बेटे सुब्रत ठाकुर भाजपा के टिकट पर उपचुनाव में लड़े, लेकिन ममता बाला ठाकुर को भारी जीत मिली। हालांकि, भाजपा तीसरे नंबर पर ही रही, पर अपने वोट बढ़ाने में सफल रही।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मंजुल के दूसरे बेटे शांतनु ठाकुर को टिकट दिया, जो तृणमूल की ममता बाला ठाकुर को हराने में सफल रहे। परिवार बंटा, तो मतुआ महासंघ भी बंट गया। बीते साल बोड़ोमां के निधन के बाद मतुआ महासंघ का उत्तराधिकार तृणमूल की ममता बाला संभाल रही हैं। वहीं भाजपा के शांतनु ने अपना अलग ऑल इंडिया मतुआ महासंघ बना लिया है।

मतुआ वोटों के लिए ठाकुरबाड़ी की गणेश परिक्रमा

ठाकुर परिवार में पहले कांग्रेस की अच्छी पैठ रही। प्रमथ रंजन ठाकुर 1962 में कांग्रेस से बंगाल विधानसभा का चुनाव भी लड़े थे। सीपीएम ने शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए काफी काम किया, जिससे मतुआ समुदाय उसकी ओर आकर्षित हुआ। सीपीएम ने मतुआ बहुल इलाकों में काफी सालों तक अच्छी जीत दर्ज की। उसने ठाकुरबाड़ी का समर्थन तो हासिल किया, लेकिन धर्म और राजनीति का घालमेल न हो इसके लिए उस परिवार के किस सदस्य को कभी चुनाव में नहीं उतारा। पर ममता बनर्जी ने इसके ठीक उलट राह पकड़ी। 2009 के आखिर में, जब राज्य में वाम मोर्चा कमजोर पड़ रहा था, वह मतुआ महासंघ की सदस्य बनीं। मार्च 2010 में रेल मंत्री ममता ने सियालदह स्टेशन से अपनी स्पेशल ट्रेन में सवार हुईं और सीधे ठाकुरबाड़ी के सामने जाकर उतरीं। बोड़ोमां ने एक चिट्ठी जारी कर ममता बनर्जी को उस दिन मतुआ महासंघ का मुख्य संरक्षक नियुक्त कर दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ठाकुरबाड़ी पहुंचे और बोड़ोमां का ‘आशीर्वाद’ लिया।

कौन हैं मतुआ और कितनी बड़ी है उनकी ताकत

बांग्लादेश में नम:शूद्र (दलित) परिवार में जन्मे हरिचांद ठाकुर एक हिंदू धार्मिक सुधारवादी संत थे। उनके अनुयायी मूलत: नम:शूद्र हैं और मतुआ कहलाते हैं। मतुआ स्वयंदीक्षा और वैष्णव सिद्धांतों में विश्वास करते हैं। बंटवारे के बाद इनका बड़ा हिस्सा भारत चला आया। 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में दलित आबादी 2.15 करोड़ है, जो राज्य की कुल आबादी का 23.51 फीसदी यानी लगभग एक-चौथाई है। इस एक-चौथाई आबादी में राजवंशियों के बाद सबसे बड़ा हिस्सा नम:शूद्र का ही है। दलित आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब 17.5 फीसदी और संख्या 35 लाख के करीब है। हालांकि, मतुआ महासंघ के मुताबिक राज्य में उसके सदस्यों की संख्या सवा करोड़ से ज्यादा है। इनमें से बड़ी संख्या में लोगों के पास नागरिकता नहीं है और इसलिए वे जनगणना या मतदाता सूची का हिस्सा नहीं हैं।

मतुआ समुदाय के लोग ज्यादातर आठ जिलों उत्तर व दक्षिण 24 परगना, हावड़ा, नदिया, मालदा, कूचबिहार, उत्तर व दक्षिण दिनाजपुर में फैले हैं। दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी जिलों में भी इनकी आबादी है। इनका 74 विधानसभा क्षेत्रों में अच्छा प्रभाव है।

भाजपा ने नागरिकता को बनाया तुरुप का पत्ता

बांग्लादेश से आये सभी हिंदुओं को नागरिकता का वादा कर भाजपा ने तुरुप का पत्ता चला। संवैधानिक उसूलों की धज्जियां उड़ाते हुए धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात कही गयी। मतुआ लोगों को इस वादे ने लुभाया। 2019 के लोकसभा चुनावों में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित राज्य की 10 लोकसभा सीटों में से चार- कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, बिष्णुपुर और बनगांव पर भाजपा ने जीत हासिल की।  इनमें से कूचबिहार, जलपाईगुड़ी और बनगांव में नम:शूद्र जाति से मिला समर्थन उसके काम आया। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के जरिये भाजपा ने दोहरा खेल खेला है। इसके जरिये एक तरफ बांग्लादेश से आये सभी हिंदुओं से नागरिकता का वादा किया गया है, तो दूसरी तरफ वहां से आये मुसलमानों को बाहर करने का संदेश भी है। बंटवारे के समय हिंदू शरणार्थियों को जो जख्म मिले उन्हें कुरेद कर भाजपा अपने पक्ष में धुव्रीकरण कर रही है।

हालांकि सीएए को संसद से पास हुए एक साल बीत गया है, लेकिन अभी तय नागरिकता देने के लिए नियमावली जारी नहीं हुई है। इसे लेकर मतुआ समुदाय में नाराजगी भी देखी जा रही है। भाजपा सांसद शांतुन ठाकुर भी यह सवाल उठा चुके हैं। दबाव बढ़ता देख भाजपा नेता आगामी जनवरी-फरवरी से नागरिकता देना शुरू किये जाने की बात कह रहे हैं।

नागरिकता के मुद्दे को एक बार फिर गर्म होते देख 9 दिसंबर की बनगांव की जनसभा में ममता बनर्जी ने मतुआ लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि आप सभी यहां के नागरिक हैं, किसी कागज की जरूरत नहीं है, यहां एनआरसी लागू होने नहीं देंगे, एक मुख्यमंत्री के रूप में यह मेरा वादा है।

भाजपा की ‘भोजन राजनीति’

भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं ने दलितों, आदिवासियों के घरों में भोजन करने को अपना राजनीतिक हथियार बनाया है। मतुआ लोगों के यहां तो एक महीने के अंदर दो-दो केंद्रीय मंत्री भोजन करने पहुंच चुके हैं। बीते 7 दिसंबर को पार्टी कार्यक्रम के लिए बनगांव पहुंचे केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने एक मतुआ परिवार के यहां दोपहर का भोजन किया। उनके लिए मिट्टी के थाली-गिलास का इंतजाम किया गया था। थाली पर केले का पत्ता बिछाया गया था। मंत्रीजी इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों से कहा, ‘हमारी पार्टी में ऊंच-नीच, जाति-पांत नहीं है। हम किसी के घर में भी खा-पी सकते हैं।’ इसके ठीक एक महीने पहले 7 नवंबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राजारहाट में एक मतुआ परिवार में दोपहर का भोजन किया था।

इसमें दो राय नहीं कि इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा किसी भी सूरत में प्रदेश में नंबर वन पार्टी बनकर उभरना चाहती है जिसके लिए उसने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है तो वहीं तृणमूल ने भी भाजपा के मंसूबों को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कस ली है फिलहाल मतुआ वोट पर दोनों की निगाहें हैं क्यूंकि वे जानते हैं कि मतुआ संप्रदाय को किसी भी सूरत में नजरअंदाज करना उनकी जीत के लिए घातक साबित हो सकता है। 

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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