ट्रंप की टैरिफ़ वॉर पर भारत की प्रतिक्रिया पर पुनर्विचार

ट्रंप की टैरिफ़ वॉर को लेकर भारतीय मुख्यधारा के मीडिया और नीति विमर्श में जो ख़ामोशी दिखती है, वो सिर्फ़ चुप्पी नहीं है बल्कि इस बात का इशारा है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था में भारत की जो स्थिति है, उसमें कुछ बुनियादी असमंजस और दबाव छिपे हुए हैं।
अमेरिकी सरकार के संरक्षणवादी (protectionist) क़दमों के गहरे असर के बावजूद भारत में शायद ही कहीं कोई ठोस बहस दिखाई दी कि हमारे पास जवाबी विकल्प क्या हैं और क्या हो सकते हैं।
ये रवैया चीन की सख़्त और बहु-स्तरीय प्रतिक्रिया से बिल्कुल उलट है, जहाँ उन्होंने जवाबी टैरिफ़ लगाए, निर्यात पर कंट्रोल किया, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन (WTO) में शिकायत दर्ज कराई, और अपने देश में मौजूद अमेरिकी कंपनियों की जांच-पड़ताल शुरू की।
भारत और चीन की इस प्रतिक्रिया में जो फर्क है, वो हमें ये समझने में मदद देता है कि किस तरह विचारधारा, संस्थागत ढाँचे और भू-राजनीतिक सीमाओं के बीच भारत की वैश्विक आर्थिक ताक़तों से बातचीत तय होती है।
सख़्ती नहीं, नरमी से भरा जवाब!
भारत सरकार की प्रतिक्रिया — अगर उसे प्रतिक्रिया कहा भी जाए — बेहद नरमी भरी रही है। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री की मुलाक़ात ने इस झुकाव को लगभग प्रतीकात्मक बना दिया।
ऐसे वक़्त में जब अमेरिका भारतीय नागरिकों को हथकड़ियों में जकड़कर, आँखों पर पट्टी बांधकर, सैन्य विमानों में बैठाकर ज़बरन डिपोर्ट कर रहा था — जो सीधे-सीधे इंसानी गरिमा का अपमान था — भारत सरकार ने विरोध तो छोड़िए, सरेआम इनकार का रास्ता चुना और दावा किया कि डिपोर्ट किए गए भारतीयों के साथ कोई बदसलूकी नहीं हुई।
और जब तमिल पत्रिका 'आनंद विकटन' ने सरकार की इस चुप्पी पर एक व्यंग्य चित्र छापा, तो उसे भारत के कड़े आईटी क़ानूनों के तहत सेंसर कर दिया गया।
इस तरह की घटनाएँ एक बड़े संकट की ओर इशारा करती हैं — कि जब मामला किसी वैश्विक महाशक्ति से टकराने का होता है, तो भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा तक के लिए प्रतीकात्मक विरोध भी दर्ज नहीं कर पाता।
चाहे बात व्यापार की हो, कूटनीति की हो या फिर भारत के नागरिकों के साथ व्यवहार की — बाहरी ताक़तों की तरफ़ से आने वाली इस तरह की चुनौतियों के जवाब में हमारी सरकार की चुप्पी इस सवाल को जन्म देती है कि कहीं हमारा राज्य ढांचागत और वैचारिक रूप से ऐसे बन गया है, जो टकराव से बचने की आदत पाल चुका है।
भारत की इस ख़ामोश और झुकी हुई विदेश-नीति के पीछे दो जुड़े हुए कारण हैं–
पहला — देश के सत्ताधारी वर्ग और उनकी राजनीतिक मशीनरी आज भी अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी (international finance capital) के सामने पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं — और ये पूंजी मुख्यतः अमेरिका में केंद्रीकृत है।
दूसरा — ये निर्भरता एक और बड़ी ग़लतफ़हमी से और गहरी हो जाती है, और वो है आज की वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था की बुनियादी ग़लत समझ।
ये दोनों भौतिक हक़ीक़तें एक वैचारिक शक्ल में तब सामने आती हैं जब हम भारत की नवउदारवादी परियोजना के दो अलग-अलग लेकिन मिलते-जुलते धड़ों को देखते हैं —
एक तरफ़ हैं नव-फ़ासिस्ट (neo-fascists), जो झूठे राष्ट्रवाद का नारा लगाते हैं;
और दूसरी तरफ़ हैं कॉस्मोपॉलिटन (विश्वनागरिक) नवउदारवादी, जो नक़ली अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात करते हैं।
दोनों का लक्ष्य अलग दिखता है, लेकिन आख़िर में दोनों अमेरिका की साम्राज्यवादी हुकूमत के सामने झुकने में एक जैसे हैं।
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि दोनों अपने आत्मसमर्पण को अलग-अलग तर्कों से सही ठहराते हैं। और इन तर्कों को गहराई से समझना ज़रूरी है।
नवउदारवादी सोच और उसकी विरोधाभासी दलीलें
कॉस्मोपॉलिटन नवउदारवाद का एक धड़ा तो बड़ी बेशर्मी से ये दलील देता है कि ट्रंप की टैरिफ़ जंग दरअसल भारत के लिए एक मौक़ा है — कि वो एकतरफ़ा तरीक़े से अपने टैरिफ़ और घटा दे।
उनका दावा है कि इससे घरेलू प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था ज़्यादा कुशल (efficient) हो जाएगी।
लेकिन ये तर्क अपने आप में विरोधाभासी है —
अगर बिना शर्त टैरिफ़ घटाना इतना ही फ़ायदेमंद है, तो फिर दुनिया की सबसे ताक़तवर अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका उन्हें बढ़ा क्यों रहा है?
'छोटी अर्थव्यवस्था' वाला तर्क और उसका जवाब
दूसरी ओर, कुछ और नवउदारवादी तर्क देते हैं कि भारत एक "छोटी और खुली अर्थव्यवस्था" है, जबकि अमेरिका "बड़ी और खुली अर्थव्यवस्था" है।
इसका मतलब ये कि भारत को दुनिया की बाज़ार क़ीमतें जैसी हैं, वैसी ही माननी पड़ती हैं; जबकि अमेरिका उनमें कुछ हद तक दखल दे सकता है।
इसलिए, उनके हिसाब से भारत को जवाबी टैरिफ़ (retaliatory tariffs) लगाने जैसे जोखिम नहीं उठाने चाहिए।
ऊपरी तौर पर ये तर्क तार्किक दिखता है — लेकिन ज़रा गहराई से सोचिए।
भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका से छोटी हो, लेकिन कई अहम चीज़ों के आयात-निर्यात में भारत की हिस्सेदारी वैश्विक व्यापार में इतनी मामूली भी नहीं है कि उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाए।
ऐसे में भारत की ये क्षमता कि वो कुछ हद तक अपने आयात-निर्यात की क़ीमतों को प्रभावित कर सकता है, उसकी व्यापार नीति में एक अहम पक्ष बन सकती है — जिसमें जवाबी टैरिफ़ भी शामिल हैं।
अमेरिकी टैरिफ़ रणनीति, बहुपक्षीयता की ज़रूरत और भारत की ग़लतियां
ट्रंप की टैरिफ़ जंग की बनावट ही कुछ ऐसी है कि वो अलग-अलग देशों पर अलग-अलग टैरिफ़ लगाकर एक साझा और समन्वित विरोध की संभावना को कमज़ोर करती है। यानी ये एक रणनीति है — ताकि कोई वैश्विक मोर्चा अमेरिका की इस नीति के ख़िलाफ़ न खड़ा हो सके।
ऐसे में भारत के लिए ये बेहद ज़रूरी हो जाता है कि वो BRICS जैसे बहुपक्षीय मंचों पर सक्रियता से काम करे और ट्रंप की व्यापारिक आक्रामकता के ख़िलाफ़ मज़बूत, साझा और संगठित प्रतिक्रिया तैयार करे।
लेकिन जैसे ही BRICS या किसी बहुपक्षीय सहयोग की बात आती है, तो दोनों धड़े — यानी कॉस्मोपॉलिटन नवउदारवादी और नव-फ़ासिस्ट — फ़ौरन कहने लगते हैं कि BRICS पर तो चीन का वर्चस्व है, और भारत-चीन के हित आपस में टकराते हैं।
इसलिए उनके हिसाब से अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों के ख़िलाफ़ कोई संयुक्त कार्रवाई मुमकिन ही नहीं।
मगर ये तर्क अपने आप में आत्मघाती है — ये ठीक वैसा है जैसे भारत और चीन के बीच व्यापार में ग़ैर-शुल्क बाधाएँ (non-tariff barriers) खड़ी करना, जो न सिर्फ़ भारत की स्थिति को कमज़ोर करता है, बल्कि अमेरिका के सामने हमारी सौदेबाज़ी की ताक़त को भी घटा देता है।
चिप तकनीक, जासूसी का डर और रणनीतिक बुद्धिमानी
उदाहरण के तौर पर, दोनों ही धड़े — चाहे वो नवउदारवादी हों या नव-फ़ासिस्ट — अक्सर कहते हैं कि चीन में बने सॉफ्टवेयर या सेमीकंडक्टर चिप्स को चीन की सरकार हैक कर सकती है, इसलिए भारत में उनका इस्तेमाल सुरक्षा के लिहाज़ से ग़लत होगा।
चलिए मान लेते हैं कि यह बात सही है — तो क्या यही बात अमेरिकी तकनीक से बने या डिज़ाइन किए गए चिप्स के बारे में नहीं कही जा सकती?
एडवर्ड स्नोडन के खुलासों के बाद ये बात अब किसी से छुपी नहीं रही कि अमेरिकी सरकार ने किस तरह पूरी दुनिया में सर्विलांस (निगरानी) का नेटवर्क खड़ा किया है — और वो सिर्फ़ दुश्मन देशों तक सीमित नहीं रहा।
ऐसे में भारत के लिए समझदारी इसी में है कि वो अपनी चिप ज़रूरतों को सिर्फ़ एक देश पर निर्भर न रहने दे — बल्कि दो या उससे ज़्यादा स्रोतों से मंगाकर एक संतुलन बनाए।
इससे कोई भी विदेशी सरकार भारत की सुरक्षा से जुड़े मामलों में ज़्यादा दख़ल नहीं दे पाएगी।
ये तो हुई तात्कालिक रणनीति — मगर दीर्घकाल में भारत को अपनी खुद की सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री खड़ी करने की दिशा में ठोस क़दम उठाने होंगे।
तभी हम असल मायनों में तकनीकी आत्मनिर्भरता और रणनीतिक संप्रभुता हासिल कर सकेंगे।
वर्चस्व की विचारधाराएं
एक तरफ़ नव-फ़ासिस्ट ताक़तें "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" और "सुरक्षा" के नाम पर मुसलमानों जैसे सामाजिक रूप से वंचित समुदायों पर ज़्यादा से ज़्यादा दबाव डाल रही हैं।
यह सिर्फ़ एक सांस्कृतिक मुहिम नहीं, बल्कि आज़ादी की लड़ाई से निकले भारत के जो भी उपनिवेश-विरोधी मूल्य बचे हैं, उन्हें मिटा देने की संगठित कोशिश है।
दूसरी तरफ़, नवउदारवादी कॉस्मोपॉलिटन तबक़ा — जो अंतरराष्ट्रीय उदारवाद की आड़ ओढ़े हुए है — वही काम एक अलग तरीक़े से करता है: ये तबक़ा उपनिवेशवाद के इतिहास को "sanitize" करता है, यानी उसे इस तरह पेश करता है मानो वो इतना बुरा न रहा हो, और समकालीन साम्राज्यवादी वैश्वीकरण को महिमामंडित करता है।
मगर तरीक़े चाहे अलग हों, दोनों धाराएँ — नव-फ़ासिस्ट भी और नवउदारवादी भी — आख़िरकार "महानगरों की पूँजी" (metropolitan capital) के वर्चस्व को ही मज़बूत करती हैं।
साम्राज्यवाद-विरोधी सोच का मूल
किसी भी गंभीर और सच्चे उपनिवेशवाद-विरोधी (anti-imperialist) नीति की बुनियाद इस समझ में है:
जब तक हम 'महानगरीय पूँजी' के वर्चस्व को सीधी चुनौती नहीं देते, तब तक वैश्विक दक्षिण (Global South) के देशों में व्यापक आर्थिक तरक्की मुमकिन नहीं।
आज अमेरिका की बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी और उसकी राज्यसत्ता चीन और रूस के बीच दरार पैदा करने की कोशिश कर रही है —
ताकि एक "बहुध्रुवीय आर्थिक व्यवस्था" (multipolar order) का उभार न हो सके।
क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका की साम्राज्यवादी हैसियत और कमज़ोर पड़ जाएगी।
ऐसे वक़्त में अगर भारत को अपनी नीति-निर्माण की स्वायत्तता वापस हासिल करनी है, तो पहली और सबसे ज़रूरी शर्त है:
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी पर सख़्त नियंत्रण (capital controls) लागू करना।
ट्रंप के टैरिफ़ वॉर का जवाब: क्या होनी चाहिए भारत की नीति
अगर भारत यह बुनियादी क़दम उठाता है, तो कई और रणनीतिक विकल्प भी खुल जाते हैं:
पहला — अमेरिका-निर्भरता को कम करना:
आज भारत अपने कई प्रमुख निर्यातों के लिए अमेरिका पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर है।
भले ही कुछ वस्तुओं पर अमेरिका अभी ज़्यादा रिटर्न देता हो, मगर यह एकतरफ़ा निर्भरता भारत की सौदेबाज़ी की ताक़त को कमज़ोर करती है।
इसलिए भारत को अपने निर्यात के भौगोलिक वितरण को व्यापक बनाना चाहिए —
यानी नए बाज़ार ढूँढना, पुराने रिश्ते मज़बूत करना — ताकि अमेरिका या किसी एक देश की दादागिरी भारत पर असर न डाल सके।
इस दिशा में निजी कंपनियों के मुक़ाबले सार्वजनिक क्षेत्र ज़्यादा बेहतर भूमिका निभा सकता है —
क्योंकि वो सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए नहीं, बल्कि दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर काम करता है।
दूसरा — रणनीतिक निवेश की दिशा तय करना:
भारत को अमेरिका और चीन — दोनों से "ग्रीनफ़ील्ड निवेश" (Greenfield FDI) आमंत्रित करना चाहिए, मगर एक तयशुदा औद्योगिक नीति के तहत। निवेश सिर्फ़ किसी भी क्षेत्र में नहीं होना चाहिए — बल्कि उन क्षेत्रों में होना चाहिए जो:
- भारत को वैश्विक उत्पादन श्रृंखलाओं में तकनीकी रूप से ऊपर उठाएँ,
- रोज़गार पैदा करें (सिर्फ़ मुनाफ़ा नहीं),
- और भारत के भीतर क्षेत्रीय असमानता को भी कम करें — यानी सिर्फ़ मेट्रो शहरों तक उद्योग केंद्रित न रहे।
तीसरा — आयात शुल्क घटाने के दबाव का विरोध करें (ख़ासतौर पर कृषि और मुख्य औद्योगिक इनपुट्स में)
अमेरिका लंबे समय से भारत पर दबाव बना रहा है कि वह कृषि उत्पादों और अन्य मुख्य इनपुट्स पर आयात शुल्क (import tariffs) घटाए।
अगर भारत ने यह माँग मान ली, तो इसका सबसे बड़ा नुक़सान उन लोगों को होगा जो पहले ही संकट में हैं —
यानी भारत के किसान और कृषि मज़दूर। यह एक तरह की ग़रीबी में और धकेलने वाली नीति होगी।
कॉस्मोपॉलिटन नवउदारवादी तर्क देते हैं कि बड़े घरेलू पूँजीपति जो इनपुट्स (जैसे कच्चा माल या मशीनरी) महँगे दाम पर बेचते हैं, उनकी वजह से MSMEs (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) को नुक़सान होता है।
और इसलिए अगर इन इनपुट्स पर आयात शुल्क घटा दिए जाएँ, तो MSMEs को सस्ता कच्चा माल मिलेगा और उनके निर्यात में वृद्धि होगी।
मगर यह तर्क एकदम सतही है — और असलियत से कटा हुआ भी।
असल में क्या होगा?
शुरुआत में MSMEs को सस्ता इनपुट ज़रूर मिलेगा,
मगर जल्द ही आयात बढ़ जाएगा — जिससे घरेलू उद्योगों को नुक़सान होगा,
रोज़गार घटेगा, मुनाफ़ा गिरेगा, और निवेश की रफ़्तार धीमी हो जाएगी।
आज की वैश्विक स्थिति में, जब निर्यात की संभावनाएँ भी कमज़ोर हैं, ऐसी नीति पूरे भारतीय अर्थतंत्र पर संकोचनकारी असर (contractionary impact) डालेगी।
और जब घरेलू प्रतिस्पर्धी मैदान से हट जाएँगे,
तो विदेशी कंपनियाँ इनपुट की क़ीमतें फिर से बढ़ा देंगी —जिससे MSMEs को मिला हुआ "अस्थायी लाभ" भी छिन जाएगा।
MSMEs की असली चुनौती क्या है?
MSMEs को जो असली चुनौती है, वह आयात शुल्क नहीं, बल्किबड़ी एकाधिकार वाली पूँजी (monopoly capital) के ख़िलाफ़ उनकी संरचनात्मक कमज़ोरी है।
इसका समाधान "आयात उदारीकरण" नहीं, बल्कि सार्वजनिक नीति में हस्तक्षेप है।
भारत को चाहिए कि वो नीतियों के ज़रिए संसाधनों का पुनर्वितरण करे — यानी बड़ी पूँजी से लेकर MSMEs की तरफ़ संसाधन और सहायता का प्रवाह हो।
इसके लिए क्या किया जा सकता है?
- सरकार ख़ुद कुछ ज़रूरी इनपुट्स का सार्वजनिक क्षेत्र में उत्पादन करे,
- और उन्हें नियंत्रित मूल्य पर उपलब्ध कराए — ताकि MSMEs पर लागत का दबाव कम हो सके।
भारतीय नीतिगत विमर्श पर जो वैचारिक धाराएँ हावी हैं — चाहे वे कॉस्मोपॉलिटन नवउदारवादी हों या नव-फ़ासीवादी — दोनों ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी उपनिवेश-विरोधी चेतना को दबाने की कोशिश करते हैं।
कॉस्मोपॉलिटन नवउदारवादी जहाँ औपनिवेशिक इतिहास को निर्मल दिखाने का प्रयास करते हैं,
वहीं नव-फ़ासीवादी देश के भीतर हाशिए पर खड़ी समुदायों को निशाना बनाते हैं।
परिणामतः — दोनों ही धाराएँ आख़िरकार वैश्विक पूँजी के प्रभुत्व को ही मज़बूत करती हैं।
आज यदि किसी वास्तविक उपनिवेश-विरोधी राजनीति की ज़रूरत है, तो उसका पहला क़दम यह समझना होगा कि ग्लोबल साउथ के देशों के लिए सार्थक और टिकाऊ विकास तभी संभव है, जब वे वैश्विक पूँजीवादी ताक़तों के शिकंजे से मुक्त हों।
अमेरिकी एकाधिकार पूँजी (U.S. monopoly capital) की बढ़ती रणनीतिक घबराहट — जो चीन और रूस को अलग-थलग करने के प्रयासों में झलकती है —
इस बात का संकेत है कि एक ध्रुवीय साम्राज्यवादी व्यवस्था अब ढलान पर है।
भारत के लिए यह समय है — साहसिक और विवेकपूर्ण नीतिगत बदलावों का, ताकि राष्ट्रीय संप्रभुता, आर्थिक न्याय, और रणनीतिक स्वायत्तता को फिर से स्थापित किया जा सके।
(शिरीन अख़्तर, दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सी. सरच्चंद सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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