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कटाक्ष: ये जेन ज़ी, जेन ज़ी क्या है!

देखा नहीं कैसे जेन ज़ी का नाम लेने भर से सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया गया। वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में यानी राष्ट्र की सुरक्षा को ख़तरे में डालने के लिए...
LADAKH GEN-Z

कोई बताएगा कि ये जेन ज़ी क्या बला हैं? बताइए, बेचारे छप्पन इंची छाती वालों तक को डरा के रखा हुआ है। और डर भी छोटा-मोटा नहीं, थर-थर कंपाने वाला डर। ऐसा डर जैसे कोई भूत देख लिया हो। देखा नहीं कैसे जेन ज़ी का नाम लेने भर से सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया गया। वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में यानी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए। अब राष्ट्र को लगे न लगे, पर छप्पन इंच वालों को तो सुरक्षा खतरे में लग ही रही होगी। वर्ना वांगचुक से उन्हें खास प्यार भले ही नहीं रहा हो, पर पहले दुश्मनी तो हर्गिज नहीं थी। उल्टे वांगचुक ने तो एक जमाने में थैंक यू मोदी जी का ट्वीट भी किया था। यह तब की बात है जब मोदी जी-शाह जी, कश्मीरी अब्दुलों की चूड़ी टाइट करने के चक्कर में, जम्मू-कश्मीर को तोड़ने-फोड़ने लगे हुए थे।

वांगचुक ने समझा कि हर चीज के लिए श्रीनगर का मुंह देखने से छुट्टी मिली। अब जो भी होगा, लेह से होगा, लेह-लद्दाख वालों की मर्जी से होगा। वह तो बाद में उनकी समझ में आया कि गद्दी तो मोदी जी-शाह जी श्रीनगर से उखाड़ कर दिल्ली ले गए। कहां तो वे लेह-लद्दाख से श्रीनगर की दूरी का रोना रो रहे थे और कहां अब हर चीज के लिए दिल्ली का मुंह देखना पड़ेगा। दिल्ली के मुकाबले तो श्रीनगर बहुत नजदीक था।

श्रीनगर के मुकाबले दिल्ली से लेह भले दूर हो पर राष्ट्र सेठ, ‘‘जिसका नाम नहीं ले सकते’’, दिल्ली के बहुत नजदीक था। नजदीक क्या, वह तो दिल्ली में ही था। दिल्ली में होना भी क्या, वह तो खुद ही दिल्ली था-नयी दिल्ली। नयी दिल्ली में शाही तख्त था और शाही तख्त के पीछे  राष्ट्र सेठ। शाही तख्त से हुक्म जारी हुआ--जो  राष्ट्र सेठ मांगे सो राष्ट्रहित, अज़ दिल्ली ता लेह-लद्दाख। 

राष्ट्र सेठ ने लद्दाख में नारा लगाया, राष्ट्र की जमीन, सो  राष्ट्र सेठ की जमीन और सूरज से बिजली निकालने के नाम पर एक शहर के बराबर जमीन पर कब्जा कर लिया। दिल्ली ने कहा, यही विकास है। साथ में जोड़ दिया--इब्तदा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है। लेह-लद्दाख वाले डर गए। ये वाला विकास नहीं चाहिए का शोर मचाने लगे। मोदी जी-शाह जी ने समझाने की कोशिश भी कि विकास तो विकास है, उसमें ये वाला और वो वाला नहीं करते। विकास जैसा भी हो, उसका विरोध करना अच्छी बात नहीं है। राष्ट्र सेठ का विरोध कर के, राष्ट्र-विरोध करने की गलती नहीं करें। पर पहाडिय़ों का पत्थरों वाला अड़ियल सुभाव, नहीं माने तो नहीं ही माने। लगे आंदोलन करने और वह भी गांधीवादी तरीके से। कभी पांच दिन की भूख हड़ताल, तो कभी पंद्रह दिन और कभी अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल। कभी धरना, कभी बंद। भीड़ बढ़ती गयी। यहां तक कि चुनाव में खतरा नजर आने लगा। नतीजा सामने है। मांगा छठा शेड्यूल, मिली गोली, कर्फ्यू और गिरफ्तारी, वह भी अकेले वांगचुक की नहीं, सैकड़ों की।

आप पूछेंगे कि इसमें जेन ज़ी कहां आ गयी? जेन ज़ी आ गयी, क्योंकि वांगचुक ने अपने एक भाषण में जेन ज़ी का नाम ले दिया। फिर क्या था, जेन ज़ी लेह में आ गयी। असल में जेन ज़ी तो पहले ही दरवाजे पर खड़ी थी। उसका डर हवाओं में था। खासतौर पर दिल्ली की हवाओं में। और डर हवाओं में क्यों न होता? जेन ज़ी नाम का एलान कर के जेन ज़ी ने राजगद्दी भले ही नेपाल में ही पलटी हो, पर उसकी शुरूआत तो और पहले हो चुकी थी। कोई कहता है, अरब स्प्रिंग तो कोई कुछ और कहता है। और तो और खुद हमारे पड़ौस में पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल; तख्त पर तख्त लुढ़कते जा रहे हैं। डरना तो बनता है। खासतौर पर उनका जो तख्त पर तो बैठे हैं पब्लिक के नाम पर और खुल्लमखुल्ला नजदीकी बढ़ा रहे हैं, तरह-तरह के धन्नासेठों से। 

नौजवानों का धीरज टूट रहा है। न करने को काम और न गुजारे को जेब में छदाम। और तख्तेशाही पर बैठने वालों का बिना कहे यह साफ एलान कि हमसे आगे भी कोई उम्मीद मत रखना। चुनाव से हमें हटाने की तो सोचना भी मत! ऐसे में छप्पन इंची छाती की कोई कितनी भी शेखी मार ले, डरना तो बनता है। डर तो सब को लगता है। पांव सब के कांपते हैं। पर इस डर के आगे भी उनकी जीत नहीं है। इस डर के आगे गोलीबारी है, गिरफ्तारी है।

छप्पन इंची छाती डर रही है। गिरफ्तारियां कर रही है, पुलिस-मिलिटरी आगे कर रही है, पर डर रही है। डर रही है, तभी तो जेन ज़ी का जिक्र भर करने पर, सुरक्षा कानून में गिरफ्तारियां कर रही है। और छप्पन इंची छाती डर रही है, इसलिए लोग उसे और भी डरा रहे हैं। एक नयी हवा यह कहने की चल रही है कि जेन ज़ी तो हर जगह है और वह भी हमेशा से। लोग कह रहे हैं कि भगतसिंह भी अपने टैम के जेन ज़ी ही तो थे। नौजवान तो थे ही। पढ़े-लिखे भी थे। बदलाव चाहते थे। और अपनी कल्पना के बदलाव के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार थे। यानी जैसे तब भगत सिंह यहां पैदा हुए थे, जेन ज़ी अब यहां भी प्रकट हो सकता है। अचानक से प्रकट हो सकता है। इतनी ज्यादा बेरोजगारी है कि बेरोजगार नौजवानों का हुजूम जो कभी दिल्ली, तो कभी लखनऊ, कभी पटना, तो कभी जयपुर, कभी देहरादून तो कभी बेंगलुरु में, कभी भर्ती परीक्षा के लिए तो कभी परीक्षा में पेपर लीक के खिलाफ, प्रदर्शनों में पुलिस की लाठियां खा रहा है, अब तक अपने अंदर छुपे जेन ज़ी को नहीं पहचान सका, इसी में हैरानी की बात है। पर चोर की मां कब तक खैर मनाएगी। अब्दुल की चूड़ी टाइट होने की झूठी खुशी से, नौजवान पीढ़ी कब तक अपने भूखे पेट को बहलाएगी? राज करनी वालों को डर तो लगेगा ही।

खैर! गद्दीधारियों का यह डर अच्छा है। इस डर के आगे, गद्दीधारियों की नहीं, पब्लिक की जीत है। सो जेन ज़ी को आने दो। गद्दीधारियों को इसे अपने खिलाफ कभी चीन, कभी नेपाल, कभी बांग्लादेश और कभी सोरोस का षडयंत्र बताने दो, पर जेन ज़ी को आने दो। भगतसिंह को रास्ता दिखाने दो, जेन ज़ी को आने दो।  

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

 

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