रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ट्विटर हैंडल पर रैदास जयंती पर एक ट्वीट के साथ जो वीडियो शेयर किया है उसमें दिल्ली के श्री गुरु रविदास विश्राम धाम मंदिर में ‘जपो रैदास’ भजन पर करताल बजाते हुए नजर आ रहे हैं। कई जगह दलितों का वोट प्राप्त करने के लिए भाजपा के नेता भी आज रैदास मंदिर में नमन कर रहे हैं। इसे देखकर एक अम्बेडकरवादी होने के नाते मैं असहज हुआ।
प्रधानमंत्री जिस पार्टी से हैं उसकी विचारधारा जातिवादी और सम्प्रदायवादी है। वे भले ही “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबके प्रयास” की बातें करें लेकिन आज की हक़ीक़त इसके उलट ही कहानी बयान करती है। तभी तो सवाल उठता है कि ऐसे लोग भला रैदास को कैसे नमन कर सकते हैं। कैसे उनकी सोच को अपना सकते हैं। रैदास हमेशा अपने दोहों, अपने भजनों के माध्यम से जाति और संप्रदाय के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं।
रैदास तो स्पष्ट कहते हैं :
“जाति-जाति में जाति है, ज्यों केतन के पात
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।
या फिर
रविदास हमारो राम जोई , सोई रहमान
काबा कासी जानियाहि, दोउ एक समान।
रैदास या रविदास जहां काबा काशी और हिन्दू मुसलमान को एक समान मान रहे हैं, वहीं नफरती और मनुवादी सोच वाले लोग हिजाब के मुद्दे को उठाकर हिन्दू मुसलामानों में नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं। कर्नाटक के एक जिले के स्कूल से शुरू होकर पूरे देश में फैलाया गया।
जाति के बारे में उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक जातिगत भेदभाव को त्याग कर सब मनुष्य एक नहीं होंगे तब तक जाति नहीं जायेगी। उनकी बात आज भी प्रमाणिक है। जाति के ऊंच-नीच, छूअछात और भेदभाव की भावना न त्यागने के कारण जाति आज भी जिन्दा है।
शिक्षा व्यवस्था में यहां धर्म का घालमेल किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के स्कूल में तो हिजाब विवाद ने हिंसा का रूप ले लिया। वहां पत्थरबाजी हो गई है। अलीगढ़ में हिंदूवादी छात्र भगवा वस्त्र पहन कर या गमछा डाल कर स्कूल-कॉलेज में आने लगे। शिक्षा प्राप्त करने के स्थान पर छात्र-छात्राएं और उनके अभिवावक विद्यालयों और कॉलेजों में अपनी धार्मिक पहचान को अहमियत देने लगे। क्या है ये सब?
क्या रैदास के अनुयायी ऐसा सोच भी सकते हैं?
रैदास जात-पांत और संप्रदाय के विरोधी थे।
सभी मनुष्यों के लिए कल्याण की कामना
संत रैदास के मन में विचारों में मनुष मात्र के लिए कल्याण की भावना परिलक्षित होती है। वे इंसानों को जाति और धर्म तथा अमीरी और गरीबी के श्रेणी में बांटने के विरोधी थे। वे सब के कल्याण में विश्वास रखते थे। अपने एक दोहे में वे कहते हैं :
ऐसो चाहौं राज में, मिले सबन कूँ अन्न !
छोट-बड़ों सब सम बसें, रैदास रहें प्रसन्न !!
आजकल चुनाव का माहौल है। यहां बाकायदा जाति और संप्रदाय के समीकरण बनाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री की पार्टी के ही राजनेता जाति के आधार पर अस्सी और बीस का समीकरण बना रहे हैं। वे हिन्दू और हिन्दुत्वादियों के ऐसे समीकरण बना रहे हैं कि मतदाताओं में अस्सी प्रतिशत लोग हिन्दुत्ववादी हैं और उनका वोट उन्हीं को मिलेगा। बाकी बीस प्रतिशत में वे प्रगतिशील और मुसलमानों को मान कर चल रहे हैं।
दलितों से जातिगत आधार पर भेदभाव भाजपा की पार्टी में स्पष्ट दिखता है। डिसीजन मेकिंग पॉवर वाले पदों पर दलितों को नहीं रखा जाता। दलितों पर जातिगत अत्याचार होते हैं तब प्रधानमंत्री से लेकर सभी मनुवादी मौन धारण कर लेते हैं। एक शब्द पीड़ितों के पक्ष में नहीं निकलता बल्कि कहना चाहिए कि अत्याचारियों के प्रति उनकी मौन स्वीकृति होती है। उदाहरण के लिए हाथरस और दिल्ली के गुड़िया काण्ड को लिया जा सकता है।
जन्म के आधार पर जाति और उनके कर्म निर्धारण करने वाले मनुवादी सोच के लोग भला क्या रैदास की विचारधारा का अनुसरण करेंगे। रैदास स्पष्ट कहते हैं कि जन्म के कारण कोई ऊंच या नीच नहीं होता बल्कि उसके कर्म ही ऊंच या नीच बनाते हैं :
रैदास जन्म के कारण, होत ना कोउ नीच!
नर कूँ नीच करत हैं, खोटे करमन कौ कीच!!
रैदास जयंती की अवसर पर उनके जीवन के बारे के बारे में संक्षिप्त रूप से जान लेना भी उचित रहेगा।
रैदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया।
वे जूते बनाने का काम किया करते थे और ये उनका व्यवसाय था और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। संत रामानंद के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया। संत रैदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर साहेब जी के कहने पर गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर साहेब ही थे।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
यदि मनुवादी सोच वाले लोग दलित संतो-महापुरुषों की दिखाई राह पर चले होते तो....
दलित समाज की संत परम्परा बहुत प्राचीन रही है। पंद्रहवी सदी में कबीर और रैदास जैसे संत और महापुरुष हमारे गर्व और गौरव हैं। कबीर दास जी ने उस समय में जिस निर्भयता का परिचय देते हुए हिन्दुत्ववादी ताकतों को उनकी कुरीतियों के लिए फटकारा था उसी तरह संत रैदास ने उन सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों के खिलाफ आईना दिखाया था।
कथित उच्च जाति का दंभ रखने वाले लोगों और उनके पुरुखों ने सचमुच में ही कबीर और रैदास जैसे लोगों को अपनाया होता। उनकी दिखाई राह पर चलने का प्रण लिया होता तो निश्चित ही स्थिति आज जैसी नहीं होती।
अब भी अगर ये लोग स्वयं को बाबा साहेब, कबीर और रैदास जैसे लोगों के अनुयायी होने का दिखावा करना छोड़ दें। और सच में उनके दिखाए मार्ग पर चलें तो निश्चित ही एक बेहतर समाज और बेहतर भारत का निर्माण होगा। पर क्या वे ऐसा करेंगे?
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।