Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ख़बरों के आगे-पीछे: संचार साथी, नाम की राजनीति और बंगाल की चुनौतियां

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन संचार साथी ऐप मामले में मोदी सरकार के यू टर्न समेत नाम बदलने की राजनीति, पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग की चुनौतियों समेत कई मुद्दों पर बात कर रहे हैं।
sanchar sathi
कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

मोदी सरकार का एक और यू टर्न

केंद्र सरकार ने एक बार फिर यू टर्न लिया है। हालांकि यह यू टर्न किस्तों में आया लेकिन आ गया। दूरसंचार विभाग ने एक आदेश जारी करके कहा था कि अब अगले 90 दिन में हर स्मार्ट फोन में 'संचार साथी’ ऐप प्री इंस्टाल होगा। स्मार्ट फोन बनाने वाली कंपनियों को इसका निर्देश दे दिया गया था और ढिंढोरची टीवी चैनलों के जरिये जनता को इसके फायदे समझाए जाने लगे थे। लेकिन जब इसका विरोध तेज हुआ और विपक्ष के साथ-साथ सिविल सोसायटी और सरकार के इकोसिस्टम के लोगों ने भी विरोध शुरू किया तो सरकार की ओर से कहा गया कि यह ऐप प्री इंस्टाल तो होगा लेकिन अगर यूजर चाहे तो इसे डिलीट कर सकते हैं। जब इस पर भी विरोध जारी रहा तो अगले दिन यानी बुधवार को कहा गया कि यह ऐप प्री इंस्टाल नहीं होगा। 

यह केंद्र सरकार का नया यू टर्न है। इससे पहले 'आरोग्य सेतु’ ऐप को भी सरकार ने अनिवार्य बनाने की पहल की थी और विरोध होने पर उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। पिछले ही साल ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज बिल पर भी सरकार पीछे हटी और डाफ्ट वापस लिया। उससे पहले 2021 में भारी विरोध के बाद तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषित किया। उससे भी पहले शुरुआत 2015 में ही हुई थी, जब केंद्र सरकार ने विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक वापस लिया था।

राजभवन का नाम लोकभवन करने से क्या होगा?

पिछले एक दशक के दौरान कई शहरों, गांवों, कस्बों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, संस्थाओं, इमारतों और सडकों के नाम बदले गए हैं। ऐसा करना भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों का खास शौक है, इसलिए नाम बदलने का सिलसिला अभी भी जारी है। दिल्ली में राजपथ का नया नाम कर्तव्य मार्ग, केंद्रीय सचिवालय का नाम कर्तव्य भवन, रेसकोर्स रोड का नाम लोक कल्याण मार्ग किया गया है, उसी तर्ज पर अब प्रधानमंत्री कार्यालय का नाम सेवा तीर्थ और राज्यों की की राजधानियों में स्थिति राजभवनों का नाम लोक भवन कर दिया गया है। 

सवाल है कि नाम बदलने से होता क्या है? अब राज्यपालों के निवास राजभवन को ही लें। देश में पिछले कुछ सालों के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त के बाद अगर कोई संवैधानिक पद सबसे ज्यादा बदनाम हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी भरकम खर्च वाले इस संवैधानिक पद की उपयोगिता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सवाल उठाने का मौका भी कई राज्यपाल खुद ही अपनी अटपटी और असंवैधानिक हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं। 

पिछले कुछ सालों से तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में राजभवन भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में तब्दील हो चुके हैं और वहां के राज्यपाल विपक्ष के नेता की भूमिका में काम कर रहे हैं, जिससे आए दिन विवाद होते रहते हैं। इसलिए जरूरत राज्यपालों का चाल-चलन बदलने की है, न कि राजभवनों का नाम बदलने की।

दिल्ली में भाजपा और आप को सबक 

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी दोनों को सबक मिला है। चुनाव ज्यादा बड़ा नही था लेकिन दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) की 12 सीटों के नतीजों से दिल्ली के लोगों ने एक राय प्रकट की है। दिल्ली के लोगों ने भाजपा को बड़ा झटका दिया है। भाजपा पहले से जीती हुई नौ में से दो सीटों पर चुनाव हार गई है। एक सीट पर उसको आम आदमी पार्टी ने हराया तो दूसरी सीट पर कांग्रेस ने हराया। हालांकि भाजपा के नेता संतोष कर रहे है कि उनका वोट प्रतिशत बढ़ा है लेकिन इससे दो सीटें हारने की भरपाई नहीं हो सकती। लग रहा है कि महिला सम्मान योजना के पैसे नहीं दिए जाने, मोहल्ला क्लीनिक से लोगों की छंटनी, बस मार्शल को स्थायी नहीं करने और प्रदूषण के मामले ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस ने संगम विहार की सीट जीती है। यह मामूली बात नहीं है। यह आम आदमी पार्टी के लिए झटका है। वैसे यह सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीनी है लेकिन भाजपा से नाराज लोग आम आदमी पार्टी की ओर न जाकर कांग्रेस के साथ गए है यह आप के लिए झटका है। उसे दूसरा झटका चांदनी महल सीट पर लगा है, जहां उसकी पार्टी छोड़ने वाले शुएब इकबाल ने अपनी रिश्तेदार को ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक की टिकट पर चुनाव जीता दिया। वहां दूसरे स्थान पर भाजपा रही। इसका अर्थ है कि मुसलमानों के बीच भी आम आदमी पार्टी को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल नहीं है।

बंगाल में चुनाव आयोग की चुनौतियां

विवादों से घिरे चुनाव आयोग के सामने पश्चिम बंगाल में हर दिन नई-नई चुनौती सामने आ रही है। सरकार की ओर से असहयोग, अधिकारियों का असहयोग, बूथ लेवल अधिकारियों यानी बीएलओ का संगठन बना कर विरोध प्रदर्शन आदि चुनौतियों से तो चुनाव आयोग निबट ही रहा था कि इस बीच उसके सामने नई चुनौती आ गई है। हजारों मतदान केंद्रों से सौ फीसदी मतगणना प्रपत्र जमा हो रहे हैं। चुनाव आयोग की ओर से बताया गया है कि 22 सौ से ज्यादा मतदान केंद्रों पर सौ फीसदी मतदाता प्रपत्र भर कर वापस लौटे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 750 से ज्यादा बूथ अकेले उत्तरी 24 परगना के हैं। इसके अलावा नादिया, दक्षिण 24 परगना, मिदनापुर, माल्दा आदि के भी बूथ है। चुनाव आयोग ने इस पर जिले के अधिकारियों से रिपोर्ट मांगी है। क्योंकि ऐसा हो नही सकता है कि पिछले 22 साल में किसी इलाके में एक भी मतदाता की मौत नहीं हुई हो या कोई स्थायी तौर पर शिफ्ट नहीं हुआ या कोई अपने घर से गैरहाजिर नहीं हो या किसी का नाम एक से ज्यादा मतदान केंद्र पर न हो। इन चार श्रेणियों के कारण हर मतदान केंद्र पर सात-आठ फीसदी तक मतगणना प्रपत्र कम भरे जा रहे हैं। लेकिन 2,208 मतदान केंद्रों से सौ फीसदी फॉर्म लौट आए हैं। हो सकता है कि कुछ और जगहों से ऐसा देखने को मिले। ऐसा लग रहा है कि ममता बनर्जी की पार्टी चुनाव आयोग को सबक सिखा रही है।

पवार और देवगौड़ा की पारी समाप्ति की ओर 

पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता शरद पवार की संसदीय पारी समाप्त होती लग रही है। शरद पवार ने लोकसभा का चुनाव लड़ना बंद किया तो अपनी बेटी सुप्रिया सुले को बारामती सीट सौंप दी। उसके बाद से शरद पवार राज्यसभा में हैं। इस बार उनकी पार्टी सिर्फ 10 विधानसभा सीट जीत पाई है। इसीलिए सवाल है कि वे कैसे राज्यसभा जाएंगे? महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी को कुल 51 सीटें मिली हैं। इनमें उद्धव ठाकरे की शिव सेना के 20, कांग्रेस के 16 और शरद पवार की पार्टी के 10 विधायक हैं। इनकी मदद से राज्यसभा की एक सीट जीती जा सकती है। अगर तीनों पार्टियां चाहे तो शरद पवार को फिर से राज्यसभा भेज सकती हैं। 

इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा की लंबी पारी के भी खत्म होने का समय आ गया है। देवगौड़ा की उम्र 90 साल से ज्यादा है और उन्होंने अपनी लोकसभा सीट अपने पोते को सौंप दी। अब उनका राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और सिर्फ 19 सीटें जीती उनकी पार्टी अपने दम पर राज्यसभा की सीट नहीं जीत सकती है। राज्य में अगले साल चार सीटें खाली हो रही हैं। इनमें से एक सीट भाजपा को मिल सकती है। अगर भाजपा उदारता दिखाए तो ही देवगौड़ा राज्यसभा जा सकते हैं, लेकिन वह देवगौड़ा के लिए यह सीट छोड़ देगी, इसमे संदेह है। वैसे देवगौड़ा की उम्र को देखते हुए यह भी हो सकता है कि उन्हें आराम दे दिया जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest